परम्परा की कसौटी विवेक

October 1979

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देर तक मन्त्रणा और विचार-विमर्श के बाद सम्राट देवमित्र और महामन्त्री बोधायन ने यह निश्चित किया कि ज्येष्ठ, राजकुमार पुष्यमित्र को राजगद्दी पर आसीन किया जाय। इसमें मन्त्रणा और विचार-विमर्श की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ राजकुमार ही राज्य के उत्तराधिकारी थे। परन्तु सम्राट और महामन्त्री इस प्रश्न के कुछ दूसरे ही पक्षों को लेकर विचार-विमर्श कर रहे थे। अस्तु, राज्यारोहण के समय न कोई उत्सव मनाया गया और न ही विधिवत् अभिषेक किया गया।

प्रातःकाल राजसभा में ही घोषणा की गई कि सम्राट अब आयुष्य क उत्तरार्ध में वानप्रस्थ ग्रहण कर राज्य संचालन के बाद लोक सेवा के लिए अपने उत्तरदायित्व युवराज को सौंपना चाहते हैं। इस घोषणा के बाद देवमित्र सिंहासन से उठ आए और उस पर पुष्यमित्र को बिठा दिया गया। इस हस्तान्तरण के बाद देवमित्र राजभवन में चले गये और पुष्यमित्र राज्यसभा का संचालन करने लगे।

प्रातः सभा समाप्त होने के बाद अपराह्न जन सभा आरम्भ हुई। इसमें गण ने नागरिक सम्राट् को आकर अपनी कष्ट, कठिनाइयाँ और समस्याएँ सुनाते थे तथा तुरन्त न्याय हो जाता। न्याय प्रक्रिया चल रही थी कि बीच में एक वृद्ध पुरुष आया। पुष्यमित्र का अभिवादन करते हुए वृद्ध ग्रामीण ने कहा- “महाराज न्याय कीजिए। आज स्वयं राजमाता ने हम गरीबों के झोंपड़े जलवा दिये। हम गरीब बेघर हो गये। हमारे साथ न्याय करें महाराज।

ग्रामीण की यह शिकायत सुनते ही पुष्यमित्र का चेहरा तमतमा उठा। उसने ग्रामीण के लिए न्याय विमर्श करने के बजाय उल्टे डाँट पिलाई-दुष्ट! राजमाता के लिए फिर कुछ कहा तो तेरी खाल उधेड़ दी जायेगी। वे राजमाता हैं, इस राज्य की स्वामिनी। पूरा राज्य उनकी संपत्ति है और वे जो चाहे कर सकती हैं।

ग्रामीण सहम गया और चुपचाप अपने घर चला गया। किसी को इस बात पर आश्चर्य हुआ हो अथवा नहीं, पर दूसरे दिन इस घोषणा ने सचमुच सभी को आश्चर्य में डाल दिया। कि नीति निर्मात्री परिषद् ने कल ही सिंहासनारूढ़ पुष्यमित्र को राज्यकार्य के अयोग्य घोषित कर दिया है और उनके स्थान पर दूसरे कनिष्ठ राजकुमार विरथ को राज्यासीन किया है।

उस दिन भी जनसभा का आयोजन हुआ। लोग अपनी-अपनी फरियादें लेकर आते, उन्हें परिषद के सामने प्रस्तुत करते और विरथ उन पर विचार करता अपना फैसला सुनाते। इन फरियादियों में ही एक कलाकार भी था जिसने कहा- “महाराज! आज महा-मन्त्री ने मेरी बनाई हुई उन सभी कलाकृतियों को नष्ट करा दिया है जो मैंने बड़े परिश्रम से तैयार की थी। उनके भेजे अधिकारियों का कहना था कि अब महामन्त्री के आदेश से राज्य में केवल सम्राट् की ही मूर्तियां लग सकती हैं अनय देवी-देवताओं की नहीं। यह अन्याय हैं,कला का अपमान है महाराज। न्याय किया जाना चाहिए।

विरथ ने सोचा महामन्त्री ने सम्भवतः भूतपूर्व सम्राट को आदर देने के लिए ही यह निर्णय लिया होगा अतः उन्होंने मूर्तिकार को उनकी कलाकृतियों का यथेष्ट मूल्य दिये जाने का फैसला किया और राजकोष से इस आदेश की पूर्ति भी कर दी गई।

तीसरे दिन प्रातःकाल, राजसभा के सभी पार्षद एकत्रित हुए। इसमें भूतपूर्व सम्राट देवमित्र थे। पार्षदों को आशा थी कि आज राजकुमार विरथ के अभिषेक समारोह की घोषणा होगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, उल्टे विरथ को भी राजकाज चलाने के लिए अयोग्य करार दे दिया गा। नीति निर्मात्री परिषद् के अनुसार विरथ भी राज्य संचालन करने में अक्षम थे।

उस दिन तीसरे कनिष्ठ राजकुमार सुरथ को गद्दी पर बिठाया गया। लोगों को प्रतिदिन होने वाले इस परिवर्तन के कारण समझ में नहीं आ रहे थे। सभी आश्चर्य चकित थे कि प्रतिदिन एक नया सम्राट् आखिर कारण क्या है?

जो भी हो, उस दिन भी अपराह्न न्याय सभा की बैठक हुई। प्रधान के पद पर बैठे थे युवराज सुरथ। जिन्हें गद्दी तो मिल गई थी, पर विधिवत् सम्राट के रूप में अभिषिक्त नहीं किया गया था। न्याय सभा में एक पीड़ित ने पुकार लगाई, महाराज! मैं एक छोटा-सा किसान हूँ। इस वर्ष का राज्य कर समय पर भुगतान कर चुका हूँ, पर आज ही कर मन्त्री के आदेश से मुझे पकड़ बुलवाया गया और कोड़ों से मेरी पिटाई की गई।

‘मेरे पास कर चुकाने के प्रमाण भी है” यह कहते हुए उस व्यक्ति ने रसीदें युवराज के सम्मुख रख दीं। सुरथ ने उन्हें देखा और आदेश दिया, कर मन्त्री को पकड़ कर लाया जाए। तुरन्त दो सैनिक गए और कर मन्त्री को उनके निवास से पकड़ कर ले आये। उन्हें किसान की शिकायत से अवगत कराया गया और स्पष्टीकरण माँगा गया। कर मन्त्री ने कहा, “मैंने कर मन्त्री की हैसियत से जो किया है वह ठीक है। चूँकि आदेश दिया जा चुका है अतः भले ही इस व्यक्ति ने कर चुका दिया हो, उस आदेश का पालन करना पढ़ेगा। “

सुरथ कुछ देर तक विचार करते रहे और बोले, नागरिक तुम्हारे अभियोग पर कल निर्णय दिया जायगा। दूसरे दिन कर मंत्री को न्याय सभा में उपस्थित किया गया। उस दिन और दिनों की अपेक्षा काफी संख्या में लोग इकट्ठे हुए थे। राज्य के मंत्रीमण्डल में पहली बार किसी सदस्य पर अभियोग लगा था और उस पर निर्णय होने वाला था।

हजारों की भीड़ ने देखा- कर मन्त्री, बन्दी की वेशभूषा में लाये जा रहे है। उनके हाथ बँधे हुए है और गर्दन झुकी हुई है। किसान भी वही उपस्थित था। उसने अपना अभियोग दोहराया और सुरथ ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा-”मैंने इस विषय पर भली-भाँति विचार किया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि कर मन्त्री दोषी हैं। दोषी ही नहीं अपराधी और दुराग्रह भी हैं, अतः उन्हें पदच्युत करने के साथ -साथ यह दण्ड देना उचित होगा कि जितने कोड़े इस नागरिक को लगाये गए हैं उससे दुगुने कोड़े इन्हें लगाये जायें।

आदेश का पालन किया ही जाने वाला था कि पीछे भीड़ में कोलाहल सुनाई दिया। रथ से सम्राट देवमित्र उतर रहे थे और अपने अडिग रक्षकों से घिरे हुए जन-समूह के बीच से गुजरते हुए न्याय मंच की ओर बड़ रहे थे। मंत्र पर पहुँचते ही उन्होंने सुरथ को सम्बोधित करते हुए कहा आदेश का पालन रुकवा दिया जाए। इसके बाद उपस्थित नागरिकों की ओर उन्मुख होकर उन्होंने कहा, “आप पिछले तीन दिनों से नित नये परिवर्तन देख रहे थे उसका आज समापन हुआ। यह सब एक नाटक था। राजमाता पर आरोप ‘महामन्त्र’ को शिकायत और कर मन्त्री पर अभियोग सब नाटक थे, जो राज्य सिंहासन के घोषित उत्तराधिकारियों की परीक्षा के लिए रचे गये थे। परन्तु राजकुमार पुष्यमित्र और विरथ इस परीक्षा में असफल रहे और राजकुमार सुरथ सफल, क्योंकि उन्होंने प्रजा के लिए निष्पक्ष न्याय नीति के प्रति निष्ठा को प्रमाणित कर दिया है।

इन्हीं परीक्षाओं के लिए चार दिन पूर्व सम्राट देव-मित्र तथा महामन्त्री बोधायन में विचार विमर्श चल रहा था, जिसमें बोधायन को कहना था कि परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ राजकुमार को ह आप के बाद राज-गद्दा का उत्तराधिकारी होना चाहिए। जब कि देवमित्र कह रहे थे, हर परम्परा विवेक की कसौटी पर खरी उतरे यह आवश्यक नहीं है। देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार परम्पराओं को बदलते और बुद्ध संगत स्वरूप देते रहना चाहिए। तभी जनता का और समाज का हित सुरक्षित रहता है।


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