सिद्धियाँ देखिये, जानिये

October 1979

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साधना उपासना प्रायः तीन प्रयोजनों के लिए की जाती है। पहली लौकिक सफलताओं के लिए, जिनमें कोई मनोकामना की पूर्ति, अवरोध हटने-मिटने और अभीष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त करने का उद्देश्य रहता है। पता नहीं साधना उपासना से किसी का यह उद्देश्य पूरा होता है अथवा नहीं, क्योंकि यह उद्देश्य विशुद्ध रूप से लौकिक और भौतिक है और साधना उपासना आत्मिक आध्यात्मिक प्रयास हैं मनोकामनाओं की पूर्ति में इस तरह के प्रयास शायद ही पूरे होते हों। कुछ लोगों के हो भी जाते होंगे पर निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि आध्यात्मिक प्रयोगों द्वारा अनिवार्य रूप से भौतिक मनोकामनाओं की पूर्ति हो ही जाती है।

लौकिक कामनाओं की पूर्ति से हटकर कई लोग अतिमानवी क्षमतायें प्राप्त करने के लिए साधना का मार्ग अपनाते है। उसमें यदाकदा सफलता मिल भी जाती है और ठीक ढंग से यदि साधना की जाय तो निश्चित रूप से सिद्धियाँ प्राप्त होती है। आत्मिक कल्याण के लिए किये जाने वाले योगाभ्यासों में भी अपने आप भी कितनी ही अतीन्द्रिय क्षमताएँ जागृत होती है। महर्षि पतंजलि ने उन सिद्धियों का उल्लेख योगदर्शन के विभूतिपाद में सविस्तार किया है। अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्, ईश्वित्व, काय सम्पत्, मनोजवित्व, विकिरण, प्रधान-जय, भूत-जय, आकाशगमन, प्रतिभा, श्रावण वेदना, आदर्श, आस्वाद और वार्ता आदि अनेक सिद्धियों का उल्लेख किया गया है, पर साधक को इनमें ही न उलझ जाने के लिए सतर्क भी किया है। क्योंकि ये सिद्धियाँ अन्तिम लक्ष्य ‘आत्म-कल्याण’ में बाधक ही बताई गई है।

यह ठीक है कि मनुष्य अनन्त शक्तियों और संभावनाओं से भरा हुआ ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार है। पर उसकी अधिकांश शक्तियाँ सुषुप्त ही रहती है। इसका कारण परमात्मा की दुराव भरी इच्छा नहीं है। वरन् यह मनुष्य के हित में ही है। क्योंकि पात्रता से अधिक यदि उसे कुछ मिल गया तो उसमें लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक है। कम योग्यता वाले और कम विकसित व्यक्ति के हाथों में अधिक अधिकार और अधिक शक्तियाँ सौंप दी जायँ तो वह अपना और समाज का भला करने की अपेक्षा नुकसान ही ज्यादा करेगा। अनपढ़ और पागल व्यक्ति के हाथ में यदि बंदूक थमा दी जाय तो वह अपने अलावा और अन्य लोगों को भी उसका निशाना बना सकता है। बच्चों के हाथ में विस्फोटक पदार्थ सौंप दिये जाएँ तो वह स्वयं जल मरने साथ-साथ दूसरी अन्य हानियाँ भी पहुँचा सकते है। यही बात सिद्धियों और अतीन्द्रिय सामर्थ्यों के संबंध में भी लागू होती है। दक्षिण मार्गी साधना करते हुए यह सिद्धियाँ उन्हीं लोगों को हस्तगत होती है जो उनका सदुपयोग करना जानते है।

बहुत से लोग हठपूर्वक भी यह सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते है। सिद्धियाँ बुरी नहीं है, परन्तु उनके सदुपयोग की, सार-सँभाल की कला न आती हो तो उसमें परमाणु शक्ति के कारण होने वाली विनाश जैसी सम्भावनाएँ हर घड़ी बनी रहती है। परमाणु शक्ति के ध्वंसात्मक उपयोग की थोड़ी बहुत जानकारी तो प्रायः सभी को है। उसकी सृजनात्मक सम्भावनाओं के बारे में भी पिछले दिनों काफी प्रयोग किये गये हैं और उन प्रयोगों के माध्यम से सृजन की कितनी ही ऐसी सम्भावनाओं को स्वीकार किया गया है जो अगले दिनों साकार हो सकेंगी। सर्दी-गर्मी, वर्षा ऋतुओं में हेर-फेर करना तक इन प्रयोगों के द्वारा सम्भव हो सकेगा। समुद्र की अथाह जलराशि से उसके खारेपन को अलग कर मीठा पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध किया जा सकेगा। मरुस्थल तथा ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी और बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकेगा। समुद्र में वनस्पतियाँ उगाकर आहार की समस्या का समाधान सम्भव हो सकेगा। मानवीय श्रम का बोझ बिजली सम्हाल लेगी, व लोग केवल मनोरंजन के लिए श्रम किया करेंगे। संसार के एक कोने में रहने वाले मनुष्यों का संपर्क दूसरे छोर पर रहने वालों के साथ-क्षण भर में स्थापित हो सकेगा आदि आदि।

अणु के स्वरूप, शक्ति और बाहुल्य पर दृष्टिगत करें तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि अपने अति समीप ही अतिशय शक्ति का इतना बड़ा भण्डार प्रस्तुत है कि उससे लाभ उठाते नहीं बनता। उसकी शक्ति की संक्षिप्त जानकारी भी आश्चर्यचकित कर देती है। अणु का आकार एक इंच के बीस करोड़वें भाग के बराबर होता है। अब तक बने किसी भी सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों में से किसी के भी द्वारा अणु को अकेला नहीं देखा जा सका है और न ही उसे तोलने की कोई तराजू बनाई जा सकी है।

पदार्थ के सबसे छोटे इस कण के बारे में अभी पूरी तरह नहीं जाना जा सका है, पर उससे शक्ति प्राप्त करने में अवश्य सफलता प्राप्त कर ली गई है। परमाणु द्वारा शक्ति उत्पन्न करने की प्रक्रिया अणु-विखंडन कहलाती है। इसके लिए मूलतः यूरेनियम धातु का प्रयोग किया जाता है। उस पर न्यूट्रान्स का आघात करने से अणु विखंडन हो जाता है। उपलब्ध यूरेनियम पूरी तरह विखण्डन के योग्य नहीं। उसका एक प्रतिशत से भी कम अंश विखंडनीय होता है। शेष 99.29 प्रतिशत भाग बेकार चला जाता है। प्रयत्न यह हो रहा है कि इस भाग को विखंडन में सहायता देने योग्य बनाया जाय। विज्ञान की भाषा में शुद्ध अंश को यूरेनियम 235 तथा अशुद्ध अंश का यूरेनियम 238 कहा जाता है। अशुद्ध यूरेनियम पर न्यूटाणुओं का आद्यात करे उसे भी एक नये पदार्थ प्लूटीनियम 239 में परिणत’ कर लिया जाता है। इस प्रकार लगभग सारा मसाला ही घुमा-फिरा कर परमाणु शक्ति उत्पन्न करने में प्रयुक्त किया जा सकेगा।

एक घन फुट यूरेनियम में इतनी शक्ति उत्पन्न की जा सकती है, जितनी 17 लाख घन फुट कोयले में से अथवा 72 लाख गैलन तेल में होती है। इसे 320 खरब घनफुट प्राकृतिक गैस के बराबर भी समझा जा सकता है। यूरेनियम में अग्नि और रेडियम सक्रियता दोनों गुण है। इसलिए उसके निर्माण एवं उपयोग में पूरी-पूरी सावधानी बरतनी पड़ती है। तनिक-सी असावधानी के कारण महाविनाश उत्पन्न हो सकता है। पिछले दिनों अमेरिका में हैरिसबर्ग के पास एक नदी के द्वीप पर स्थित परमाणु बिजली घर में ऐसी ही दुर्घटना घटी। हालाँकि सावधानी के तौर पर तुरन्त ध्यान दिया गया। फिर भी जितनी रेडियोधर्मिता फैलने का अनुमान लगाया जा रहा है वहीं महाविनाशकारी है।

परमाणु बिजली घरों में ऐसी व्यवस्था होती है कि संयंत्रों में साधारण सी भी गड़बड़ी आ जाय तो खतरे की सूचना देने वाली बत्तियाँ जलने लगती है। पिछले दिनों इसी तरह बत्तियाँ जल उठीं। सोचा गया कहीं कोई साधारण सी गड़बड़ी होगी। लेकिन जब संकट बड़ा दिखाई दिया तो रेडियो धर्मिता से दूषित पानी बड़े पैमाने पर बाहर निकलने लगा। करीब ढाई लाख गैलन पानी बाहर आया। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो बिजली घर की भट्टी के पूरी तरह से गल जाने या फट जाने का भय था।

वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल के दौरान पता चला कि उस भट्टी के भीतर 880 घनफुट का विराट बुलबुला बन गया। अगर यह बुलबुला और बड़ा होता जाता है। तो इस बात की पूरी सम्भावना है कि भट्टी में आने-जाने वाला पानी रुक जाये ओर भट्टी का तापमान बढ़ जाए। इस जाँच-पड़ताल के समय भट्टी का तापमान 600 डिग्री फारेनहाइट था। यदि भट्टी में आने जाने वाला पानी रुका ही रहा तो वह 3000 डिग्री फारेनहाइट तक पहुँच जाएगा। उस स्थिति में भट्टी का सारा यूरेनियम पिघलकर जमीन में रिसने लगेगा। शुद्ध ‘यूरेनियम इतनी वेधक धातु है कि पृथ्वी को तोड़ती फोड़ती उसके दूसरे छोर तक पहुँच जाएगी। ऐसी दशा में पूरी पृथ्वी के ही विनष्ट हो जाने की सम्भावना व्यक्त की गई है। अमेरिका के परमाणु विदों का कहना है कि यदि यूरेनियम धातु पिघल कर जमीन में रिसने लगी तो वह रिसते-रिसते चील तक पहुँच जाएगी। ऐसी दशा में पृथ्वी पर कैसा विनाश कारी दृश्य उपस्थित हो जायगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

इसके अलावा वैज्ञानिकों ने एक-दूसरे खतरे की ओर भी संकेत किया है। वह यह कि भट्टी को ठंडा रखने के यदि सारे प्रयास विफल रहे तो उसमें हाइड्रोजन गैस की मात्रा बढ़ती जायगी। अगर वह बहुत ज्यादा हो गई तो विस्फोट होने का खतरा है। विस्फोट इतना जबर्दस्त हो सकता है कि न केवल भट्टी बल्कि भट्टी के चारों ओर बनी कंक्रीट सीमेन्ट की दीवारें भी फट जायेंगी और रेडियो धर्मी विकिरण चारों ओर फैल जायगा तथा सारा वायुमंडल प्रदूषित हो जाएगा। ऐसी दशा में दूर-दूर तक के प्राणियों का जीवन अस्तित्व तो खतरे में पड़ ही जाएगा, समस्त पृथ्वी वासियों का स्वास्थ्य भी संकटग्रस्त हो उठेगा।

अणु में इतनी विनाशकारी शक्तियाँ भी छिपी है और शान्तिपूर्ण प्रयोगों के लिए किए जाने वाले प्रयोगों में भी तनिक-सी असावधानी बड़े भारी संकट और विनाश प्रस्तुत कर सकती है। फिलहाल विनाशकारी प्रयोजनों के लिए तो उसका खुलेआम उपयोग होने की सम्भावनाएँ क्षीण ही है। अभी अणु शक्ति से बिजली का उत्पादन, पनडुब्बियों का संचालन, अंतर्ग्रहीय ग्रहों की यात्रा करने वाले राकेटों के प्रक्षेपण जैसे ही काम लिए जा रहे है। परन्तु निरापद वह भी नहीं है।

निर्जीव और जड़ अणु इतना शक्तिमान है तो चेतना की सामर्थ्य को तो उससे असंख्यों गुना अधिक होना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अणु विज्ञान से बढ़कर आत्मविज्ञान है। जड़ अणु में जब इतनी शक्ति विद्यमान है तो जड़ की तुलना में चेतन का जो अनुपात है उस हिसाब से आत्म शक्ति की महत्ता बहुत ज्यादा होनी चाहिए। अणु विज्ञानी अपनी उपलब्धियों पर गर्वान्वित है और उस सामर्थ्य को युद्ध अस्त्र से लेकर बिजली की कमी को पूरा करने जैसी योजनाओं में प्रयुक्त करने के लिए प्रयत्नशील है। आत्म विज्ञानियों का कर्त्तव्य है कि वे उसी लगन और तत्परता के साथ आत्मशक्ति की महत्ता व उपयोगिता को इस प्रकार प्रमाणित करें कि सर्वसाधारण के लिए उसकी गरिमा समझ सकना सम्भव हो सके।

इन बातों को स्पष्ट किया जा सके तभी यह समझा जा सकेगा कि सिद्धियाँ, दिव्य शक्ति के वरदान हैं, तो उपयोगी, पर उन्हें सम्हाल कर रखना अति दुष्कर है। थोड़ी भी कहीं चूक या असावधानी हुई तो अणु ऊर्जा के बिखर जाने की तरह ही उससे भी हानि होने का भय है। आत्मशक्ति का बिखराव रावण, कुम्भकरण, नायक बन कर ही छोड़ता है। अस्तु आत्मिक कल्याण के इच्छुकों को इनके लिए न लालायित रहना चाहिए और न ही इनके प्रलोभन में फँसना चाहिए। वैसे ही परमेश्वर के इतने अजस्र अनुदान प्रत्यक्ष रूप में मनुष्य को मिले है कि उन्हीं का ठीक तरह उपयोग किया जाय तो यह जीवन संतान से प्यार होता है और वह स्वयं कष्ट सहकर उनके भरण-पोषण का ही नहीं शिक्षा-दीक्षा, व्याह शादी, रोटी, रोजगार तक का प्रबन्ध करता है फिर भी उसके सुख-दुख में हर समय पूरी सहायता करने के लिए तत्पर रहता है।

मनुष्य भी परमेश्वर की सन्तान है। उसके प्रेम की विशिष्टता का परिचय इसी से मिलता है कि मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त अत्यधिक सुविधाएँ उपलब्ध है। ऐसा लगता है मानो यह सारा जगत ही मनुष्य की सेवा,, सुविधा और प्रसन्नता के लिए बना है। जिस ओर भी दृष्टि दौड़ाई जाए उसी ओर हर्षोल्लास प्रदान करने वाले साधनों का बाहुल्य दिखाई देता है। विवेकपूर्वक विचारपूर्ण दृष्टि से देखा जाय तो चारों ओर सुख-सुविधाएं की साधन-सुविधायें भरी पड़ी है। उनके रहते सिद्धियों की आकाँक्षा लोभ वृत्ति की ही परिचायक होंगी।


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