पुण्य की प्रतिष्ठा

October 1979

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देवनाम् प्रिय प्रियदर्शी सम्राट अशोक के विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र और भागीरथी का उफनता हुआ कोप, बढ़ती हुई जल राशि का निरन्तर तीव्र होता जा रहा वेग सम्राट अपने मंत्रियों, सेनापतियों और पुरोहितों के साथ अवश भाव से खड़े गंगा की बाढ़ देख रहे थे। गंगा का जलस्तर निरन्तर बढ़ता जा रहा था, किसी भी क्षण कुपित नदी की विपुल जल राशि तट बंधों को तोड़कर राजधानी को अपने में समेटने के लिए बढ़ सकती थी। पर किया क्या जाय?

सम्राट ने बाढ़ के सनसनाते हुए जल की ओर एक दृष्टि दौड़ाई और फिर दूसरे ही क्षण महामंत्री और खड़ी भीड़ की ओर टुकुर टुकुर देखने लगे। फिर कहा, क्या अपने साम्राज्य में ऐसी कोई पुण्यात्मा नहीं जो इस भीषण बाढ़ पर काबू पा सके?

यह अनुरोध अकेले महामंत्री से ही नहीं किया गया था वरन् वहाँ उपस्थित लाखों नगर वासियों से भी था। सम्राट के दाँये बाँये सहस्रों लोगों का जमघट था। सभी इस समस्या के लिए अपने-अपने ढंग से सोच रहे थे, समाधान का उपाय खोज रहे थे।

पर किसी को कहाँ से कैसे क्या करना चाहिए कुछ सूझ नहीं रहा था। शशोपंज में पड़ी हुए इतनी भीड़ को चीरती हुई तभी एक महिला आगे बढ़ी। उसे देखकर कितनों के ही मुँह घृणा से दूसरी ओर घूम गये। बहुतों ने तो यहाँ तक कहा ‘रोको इसे नहीं तो विनाश नहीं होगा तो भी हो जायेगा। इस अधम नारी के जलस्पर्श से गंगा और कुपित हो उठेगी।’ यह सब कुछ स्वाभाविक भी था, इतने लोगों की भीड़ को चीर कर बने वाली वह महिला रूपजीवा वैश्या बिन्दुमती थीं।

अनेकों कंठों से किले तिरस्कार और अपमान भरे स्वरों को सहते हुए विधे कंठ से मग्न, हृदय से उसने अपना परिचय दिया। मैं हूँ बिन्दुमती! रूपजीवा!! अपना रूप और यौवन बेचकर जीविका चलाने वाली एक वेश्या। पर माँ भागीरथी से एक प्रार्थना करने का अवसर चाहती है सम्राट।”

अब वह अशोक की ओर देख रही थी। उन्होंने स्वीकृति दी और बिन्दुमती भयंकर गर्जना करती हुए गंगा के समीप पहुँची। उसने नदी की ओर हाथ उठाते हुए कहा, ‘माँ गंगे! यदि मेरे पाप कर्मों। के बीच पुण्यकर्मों के तनिक भी संस्कार रहे हों, यदि में सत्य निष्ठ रही हूँ तो उन पुण्यों का फल परलोक में देने के स्थान पर इसी लोक में दीजिये। आप अपना कोप समेटले माँ।

यह कह कर बिन्दुमती के नेत्रों से एक और गंगा दो धाराओं में बह उठी। उन आँसुओं का स्पर्श गंगा के गर्जन करते जल से होना था कि निरन्तर वेगवान होता जा रह जल प्रवाह घटने लगा। कुछ क्षणों में ही गंगा का उफान शनैः शनैः शान्त होने लगा।

सम्राट को आश्चर्य हुआ इस वेश्या में ऐसे कौन से पुण्य संस्कार है जिनके प्रत्ताप से उफनता हुआ गंगा का जल प्रवाह भी शान्त हो गया। सम्राट ही नहीं वहाँ खड़े सहस्रों नागरिक भी विस्मय विमुग्ध थे। अपने प्रश्न का उत्तर जाने के लिए सम्राट बिन्दुमती को अपने पास बुलाने के स्थान पर स्वयं उसके पास गये और बोले, भद्रे! तुम वेश्या हो। तुम्हारा कार्य घ्रणित है, लोगों को पथ भ्रष्ट करने वाला है। फिर तुम जैसी पापपंक में पली हुई नारी ने किस प्रकार इतना पुण्य अर्जित किया कि भागीरथी को तुम्हारी बात माननी पड़ी।’

‘राजन! आपकी प्रत्येक बात सत्य है, बिन्दुमती ने कहा, “पर मैं धन,जाति, शिक्षा, कुल और रूप के आधार पर किसी से पक्षपात नहीं करती। परिस्थितियों ने मुझे रूपजीवा बनाया पर सत्य, व्यवसाय के प्रति ईमानदारी और प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख निश्छलता के साथ उसे सन्तुष्ट करने का प्रयास ही वह पुण्य हो सकता है, जिसे गंगा ने स्वीकार किया।

सम्राट ने स्वीकार किया और राजकीय सम्मान से विभूषित करते हुए एक समारोह में यह शिलालेख भी खुदवाया, अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति पुण्यात्मा है। वह चाहे जो भी हो पर देश और समाज के लिए संकट के समय वही सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध होता है।


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