जीवन यात्रा की भीषण दुर्घटना

October 1979

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जीवन सर्वाधिक प्रिय वस्तु है। मनुष्य अपने आपसे और अपने जीवन से जितना प्यार करता है उतना शायद ही किसी और से करता हो। इसी सर्वाधिक परम प्रिय जीवन को सुखी, सन्तुष्ट और तृप्त रखने के लिए वह तरह-तरह के साधन जुटाता है। उचित अनुचित सभी तरह के उपाय अपनाकर जीवन को खुशहाल बनाने की चेष्टा करता है और जीवन पर आ पड़ने वाले आकस्मिक खतरों से निपटने के लिए तो कभी-कभी इतना दुस्साहस भी कर बैठता है कि सामान्य स्थिति में रहते वह स्वयं उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था।

जिस समय जीवन पर संकट की सम्भावना बढ़ जाती है तो उस समय व्यक्ति में न जाने कहाँ से इतना बल आ जाता है कि वह अपनी स्थिति से भी अधिक सक्रियता बरतने लगता है। जंगल में शेर यदि पीछे भाग रहा हो और व्यक्ति उससे अपने प्राण बचाने के लिए दौड़ने लगा हो तो इतना तेज दौड़ने लगता है कि किसी बड़ी दौड़ प्रतियोगिता में भी कोई व्यक्ति क्या भागता होगा? अग्निकाण्ड, बाढ़ और प्राकृतिक प्रकोपों के समय दुर्बल रोगी और कमजोर व्यक्तियों का जीवन के लिए संघर्ष भी इतना प्रबल रहता है कि लाखों रुपये के पुरस्कार का आकर्षण भी उसे इतना साहसी नहीं बना सकता। यह जिजीविषा ही है कि व्यक्ति बुरी से बुरी परिस्थितियों और गम्भीर से गम्भीर खतरों में उलझ जाने के बाद भी उनमें से बच निकलने के लिए अन्त तक संघर्ष करता है।

इन सब बातों से सभी परिचित हैं और सभी कोई जानते है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन से बेहद लगाव रहता है। जीवन परम प्रिय है यह सच है लेकिन यह भी सच है कि कोई अवसर ऐसे आते है जब व्यक्ति अपने जीवन से ही घृणा करने लगता है और उसे समाप्त कर देने में क्षण भर की भी देर नहीं करता। आये दिनों होने वाली आत्म-हत्याओं की घटनाओं को देखते या उनके समाचारों को पढ़ते हुए हम इस बात का आसनी से अनुमान लगा सकते है कि जीवन को सबसे अधिक प्यार करने वाला मनुष्य क्या जीवन से इस प्रकार घृणा भी करने लगता है। दूसरे व्यक्तियों के द्वारा की गयी आत्म-हत्याओं के बारे में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तुरन्त उन्हें कायर बुज़दिल और अकर्मण्य कह दिया जाता है। परन्तु अपने संबंध में प्रायः कोई नहीं कहता कि वह जीवन से उन्हीं लोगों की तरह घृणा कर रहे है। यह बात और है कि आत्म-हत्या का साहस नहीं जुटा पाते। अन्यथा जिस प्रकार का जीवन हम जीते है उससे हमें जरा भी सन्तोष नहीं है और जीवन से बहुत प्रेम करते हुए भी उससे क्षुब्ध, असन्तुष्ट तथा खिन्न रहते है।

“अमेरिका के प्रख्यात मनोवैज्ञानिक डा अर्नाल्ड जॉन का कथन है कि-अधिकाँश व्यक्ति जाने-अनजाने प्रतिदिन आत्मविनाश की ओर बढ़ते रहते हैं और हममें से प्रत्येक व्यक्ति नित्यप्रति अपनी हत्या करता है। अधिकाँश मामलों में यह आत्महत्या अचेतन प्रक्रिया ही होती है और हमें इसका जरा भी पता नहीं चलता। उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति ऊपरी मंजिल की खिड़की से नीचे झाँकता है तो उसे हल्का-सा भय लगने लगता है। इस भय का कारण यह नहीं है कि वह अचानक आरक्षित हो उठता है अथवा कमरा डगमगाने लगता है। बल्कि इसका कारण यह अहसास है कि कोई उसे नीचे कूदने या गिर पड़ने के लिए प्रेरित करता है। कुछ लोग तो इस डर के कारण नीचे झाँकने तक की हिम्मत नहीं करते।”

“सोसायटी आफ साइकोलोजिकल रिसर्च” की अमेरिकी शाखा के अध्यक्ष डा थामस डब्ल्यू. साल्मन ने भी इस बात का समर्थन करते हुए लिखा है-”हममें से प्रत्येक व्यक्ति जीवन में एक बार आत्म-हत्या का विचार अवश्य करता है।”

कहा नहीं जा सकता कि उपरोक्त मनोवैज्ञानिकों की यह बात कहाँ तक सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जीवन में एक बार आत्म-हत्या अवश्य करता है। क्योंकि यह प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने निजी अनुभव की बात है। लेकिन जिस प्रकार का जीवन लोग जीते है उससे एक बात तो अवश्य स्पष्ट होती है कि अधिकाँश व्यक्तियों को अपने जीवन से सन्तोष नहीं शिकायत ही ज्यादा रहती है। अधिकाँश व्यक्तियों को असफलताओं, अभावों और प्रतिकूलताओं के प्रति खीझ से भरा हुआ पाया जा सकता है। उन पर अपना कोई बस न चलता देखकर लोग जीवन से ही शिकायत करने लगते है। असफलताओं और प्रतिकूलताओं को अपनी मनमर्जी के अनुसार तुरन्त बदला नहीं जा सकता। फलतः उनके कारण उत्पन्न होने वाली खोज जीवन से ही शिकायत करने लगती है, जैसे कोई बाहर अपमानित हुआ व्यक्ति विवशता के कारण उस स्थान पर अपमान का प्रतिकार न कर पाने के कारण अपने स्त्री, बच्चों पर गुस्सा करने लगता है। वैसा ही कुछ व्यवहार अनबूझ समस्याओं के कारण उत्पन्न होने वाली खीझ के कारण जीवन के साथ किया जाने लगता है।

इस तथ्य को यों भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति जीवन की कठोरताओं और प्रतिकूलताओं, कठिनाइयों और अभावों का कहीं नाम भी नहीं होता वे भी आत्म-हत्या कर लेते है और अधिकांशतः तो ऐसे ही व्यक्ति आत्म-हत्या करते है। अभावग्रस्त जीवन जीने वाले व्यक्ति फिर भी अपनी जिन्दगी की गाड़ी जैसे-तैसे खींचते रहते हैं लेकिन सम्पन्न, प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्ति बहुत जल्दी अपने जीवन से स्नेह सम्बन्ध तोड़ देते है। इसका क्या कारण है?

अमेरिका की प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री मर्लिनमनरो की आत्महत्या अभी भी गुत्थी बनी हुई है। उसके पास रुपये, पैसों का भी अभाव नहीं था। किसी बड़े उद्योगपति से वह अधिक सम्पन्न थी। कहा जाता है कि उसके बराबर सम्पन्न व्यक्ति कम से कम भारत में तो कोई नहीं है। सम्पन्नता के अतिरिक्त यश की दृष्टि से भी उसे काफी सफलता मिली है। सम्पत्ति, यश, प्रतिष्ठा और प्रभाव में बहुत अधिक आगे बढ़ी हुई मर्लिन ने आत्महत्या कर ली तो आज तक कोई भी उसके कारणों पर प्रकाश डालने में सफल नहीं हो सका है।

कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के सुरक्षा सचिव जेम्स फोरेप्टाल ने खिड़की से कूदकर आत्म-हत्या कर ली। इस व्यक्ति के एक संकेत पर अमेरिका सेना और वहाँ के युद्धास्त्र, परमाणु-शस्त्र किसी भी राष्ट्र को धूरिसात् कर सकते थे। इसकी कल्पना ही की जा सकती है कि उस व्यक्ति का कितना प्रभाव, कितना महत्व और कितना सम्मान हो सकता है कि अमेरिका प्रशासन में राष्ट्रपति भी किसी देश से सन्धि करने या तोड़ने, संबंध बनाने बिगाड़ने के लिए उससे परामर्श लिये बिना कोई निर्णय नहीं लेता है तथा उसके परामर्श को महत्व देना ही होता है। इतने महत्वपूर्ण पद पर आसीन व्यक्ति को सुविधा, सम्पन्नता, प्रतिष्ठा, पद और सम्मान में किस बात की कमी हो सकती थी, परन्तु जेम्स फारेष्टाल को किन कारणों से विवश होकर आत्म-हत्या करनी पड़ी यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया।

कारण चाहे जो भी हो परन्तु इस तरह के उच्चपदों और उन्नति के उच्च शिखरों पर पहुँचे व्यक्तियों को अपनी सफलता से सन्तोष नहीं होता। यह असन्तोष ही जीवन को नष्ट करने का कारण बन जाता है। कई बार तो इस असन्तोष के बड़े विचित्र-विचित्र रूप सामने आते है। जैसे अभी कुछ समय पूर्व लन्दन के एक 82 वर्षीय व्यक्ति अल्फ्रेड ने केवल इसलिए आत्म-हत्या कर ली थी कि वह अपने आपको अपने एक मित्र से अधिक वृद्ध होता अनुभव करता था।

मेनचेस्टर के डा हेमिंग्वे से यह नहीं देखा गया कि उनके सिर के बाल उड़ रहे है। इस बात से चिन्तित होकर उन्होंने आत्म-हत्या कर ली।

मेक्सिको के निर्वाचित मेयर फेमिन सिवियर ने सन् 1970 में केवल इसलिए आत्महत्या कर ली कि उन्हें अपना पद पसन्द नहीं था। टर्की की एक महिला इअदिर ने इसलिए आत्महत्या कर ली-वह सोचती थी-मैं काफी जी चुकी हूँ। इअदिर की आयु मात्र चालीस वर्ष की थी। इस तरह की आत्म-हत्यायें कारणों की दृष्टि से विचित्र सनकीपना ही लगती है। वस्तुतः यह सनकें नहीं है, लम्बे समय से चले आ रहे जीवन यात्रा के प्रति ऊब असन्तोष है और वह असन्तोष गला काट देता है।

इसका अर्थ है कि जीवन अपने आपमें कोई प्रिय वस्तु नहीं है अथवा वह इस योग्य नहीं है कि उसे जिया जाय प्रेम किया जाय। जीवन की सार्थकता, उपयोगिता तभी सिद्ध होती है जब वह किन्हीं आदर्शों के लिए जिया जा रहा है। किन्हीं उद्देश्यों के लिए जीवन समर्पित हो। वैसी स्थिति में जीवन के प्रति ही नहीं मृत्यु का वरण जीवन का उत्सर्ग करने के प्रति भी एक उल्लास का भाव रहता है। जिन कारणों से जीवन के प्रति असन्तुष्ट होकर, खीझकर लोग आत्महत्या करते है वे जानते हैं कि मरने के पहले हमें बड़ी पीड़ा सहनी पड़ेगी। इसके बावजूद भी वे आत्महत्या का दुस्साहस करते हैं इसका अर्थ है कि वे जीवन से कितने ऊब चुके हैं, कितने परेशान है।

परन्तु इतिहास में ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें स्वेच्छया मृत्यु का वरण किया गया और वह भी बड़े हर्ष तथा गौरव के साथ। मुगल काल में राजस्थान की महिलाओं द्वारा किया जाता रहा, जौहर उसी स्तर की आत्महत्या रहा है जिससे देश व समाज का मान घटा नहीं उसका गौरव बढ़ा ही है। मेवाड़ की राना पद्यिमी, माण्डव की राना रुपमती और अन्यान्य महिलाओं ने अपने सतीत्वशील की रक्षा का कोई उपाय न देखकर कभी आग में कूदकर तो कभी विष खाकर जीवन का उत्सर्ग कर दिया। लेकिन इससे उन्हें कायर, अभिशप्त अथवा डरपोक नहीं वीर, बलिदान और गौरवान्वित होने का ही सौभाग्य मिला। इसलिए कि उन्होंने अपने किसी आदर्श को जीवन से भी मूल्यवान समझा। स्वतन्त्रता संग्राम के समय क्रान्तिकारी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हँसते-हंसते फाँसी पर चढ़ गये- उन्हें भी आत्मसन्तोष हुआ तथा राष्ट्र को भी उन पर गर्व रहा।

जीने की आकाँक्षा सभी में रहती है, जीवित रहने के लिए प्रयत्न और संघर्ष भी सभी करते है। अतः कहा जा सकता है कि जीवन के प्रति प्रेम भी सभी को होना है। यहाँ तक तो कोई असहमत नहीं होता। उलझन तब पैदा होती है कि जब लोग जीवन से ऊबकर आत्महत्या कर लेते है। इसका अर्थ है जीवन का कोई उद्देश्य भी है, जिसे प्राप्त न करने अथवा उस दिशा में अभीष्ट प्रगति न हो पाने अथवा उस उद्देश्य से सर्वथा विमुख दिशा में चलने के कारण इतना पश्चात्ताप, खीझ और ऊब होती है, इतनी आत्म प्रताड़ना मिलती है कि उसके कारण का विश्लेषण न कर पाने के कारण लोग आत्महत्या कर बैठते है।

किसी आदर्श के लिए, सिद्धान्त की रक्षा के लिए लोग हँसते-हँसते जीवन का उत्सर्ग कर देते है। इसका अर्थ है कि कुछ मूल्य ऐसे भी है जिन्हें चुकाने के लिए जीवन का भी मोह छोड़ देना पड़ता है और उस बलिदान से ऐसा भी नहीं लगता कि कोई घाटे का सौदा नहीं हुआ। व्यक्ति उसमें भी सन्तोष गौरव और हर्ष की अनुभूति करता है।

महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई व्यक्ति कितना लम्बी जिन्दगी जीता है महत्वपूर्ण यह है कि उसका जीवन कितना सार्थक और सोद्देश्य है। साधन सुविधा सम्पन्न लम्बा जीवन भी एक दुर्वह भार बन जाता है यदि उसके साथ आदर्श और सिद्धान्त न जुड़े हों तो, और अब तो यह भी अनुभव किया जाने लगा है कि व्यक्ति अपने जीवन की व्यर्थता से इतना ऊब भी सकता है कि वह किसी भी क्षण आत्महत्या का निश्चय कर बैठे। गौरव और गरिमा तो इस बात में है कि व्यक्ति उच्च मानवीय आदर्शों, उत्कृष्ट आस्थाओं तथा आदर्शवादी मान्यताओं को अपनाते हुए आत्मा की उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्न करता रहे। तभी जीवन का आनन्द है और जीने में सन्तोष है। अन्यथा उद्देश्य को भूलकर की गयी यात्रा का अन्त कहाँ होगा, यात्री उसमें अपने आपको कहाँ नष्ट कर लेगा अथवा कब अपनी यात्रा को व्यर्थ समझकर .... उठेगा कहना कठिन है। कोई व्यक्ति निरुद्देश्य जीवन यात्रा अथवा विपरीत दिशा में चलकर आत्महत्या करे अथवा न करे मनीषी विचारकों की दृष्टि में वह आत्महत्या तो है ही। क्योंकि वह अपना समय, श्रम, उपलब्धियाँ और साधन तो नष्ट कर ही रहा है।


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