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अणुबम का बाहरी आवरण इतनी मजबूत और ठोस धातु से किया जाता है कि उसके भीतर अणु विखण्डन की प्रक्रिया सम्पन्न करने वाले यन्त्रों पर बाहरी आघातों का कोई प्रभाव न पड़े। यदि इतनी कड़ी और मजबूत धातु क आवरण उस पर न चढ़ाया जाये तो उस बम के किसी भी क्षण विस्फोट हो जाने का खतरा बना रहेगा। शक्ति को धारण और संचय करने से पहले उसकी सुरक्षा और संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है। उस शक्ति संचय से ही आत्मा की चैतन्य शक्ति बढ़ती है, अतः आत्मिक प्रगति के इच्छुक व्यक्तियों को शक्तियों पर नियन्त्रण करने की विद्या भी आनी चाहिए।
इस संदर्भ में एक तथ्य यह भी ध्यान देने योग्य है कि एक ओर तो शक्ति को श्रम साधना और एकाग्रता पूर्वक संचित किया जाये तथा दूसरी ओर उसे इन्द्रिय छिद्रों से निर्बाध बहने दिया जाता रहे तो स्वप्न ही सिद्ध होगा। प्रयत्न और परिश्रम का, साधना और एकाग्रता का सत्परिणाम संयम से ही मिलता है। जो अपने आवेगों, भावों और इच्छाओं को वश में रखता है, आत्म-विजय की सफलता का श्रेय उसे ही मिलता है। आवेगों का निरन्तर नियन्त्रण में रखने की शक्ति का नाम ही संयम है।
इच्छायें और आकाँक्षायें मन में ही उपजती है। वहीं से शक्ति का क्षरण आरम्भ होता है। इसलिए संयम का बाँध जाना चाहिए और शक्तियों के अपक्षरण को रोक कर उसे आत्मिक प्रगति की दिशा में प्रयुक्त करना चाहिए। मानसिक संयम, शारीरिक संयम की आधार शिला है। मन इच्छावर्ती हो, अभीष्ट दिशा में उसे लगाने की स्थिति प्राप्त कर ली जाये तो शारीरिक शक्तियों का असाधारण विकास होने लगता है। शास्त्रकारों ने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों के विकास के लिए संयम को जीवन का अनिवार्य अंग माना है तथा उसे आवश्यक धर्म-कर्तव्य बताया है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जो मनुष्य जितना संयमी होगा उतना ही उसका व्यक्तित्व प्रखर, तेजस्वी और सामर्थ्यवान होगा तथा वह दूसरों को प्रभावित कर सकता है।
संयम साधना में तभी चूक हो जाती है जब मनुष्य विषय भोगों में रस लेता है। विषय भोग एक सीमा तक आवश्यक है, शरीर निर्वाह की दृष्टि से उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन जब मनुष्य उनमें रस लेने लगता है तो वहीं से दुख और शक्ति क्षय का सूत्रपात हो जाता है। मनुष्य जब सुख की खोज में इन्द्रियों और विषय को साधन बनाकर प्रयत्न आरम्भ करता है, मन बुद्धि को भी इसी ओर लगाता है तो इसी पर्यंत में अनेक दुखों का सूत्रपात हो जाता है। उदाहरण के लिए शरीर यात्रा के लिए भोजन करना नितान्त अनिवार्य है, लेकिन जब रसना के माध्यम से अनेक स्वादों का आनन्द प्राप्त करने के लिए भोजन किया जाने लगता है तो भोजन की मात्रा और उसके स्वरूप का निर्णय पेट न करके जिह्वा करने लगती है। जीभ की तृप्ति के लिए मनुष्य तरह-तरह के सुस्वादु भोजन करता है और परिणाम रोग, शारीरिक कष्टों के रूप में प्राप्त होते है, इस रूप में दुष्परिणाम न भोगना पड़े, शरीर की सामर्थ्य उन्हें पचा जाने की हो तब भी जो शक्ति आत्मिक विकास के लिए लगनी चाहिए थी, वह इन दुष्पाच्य पथ्यों को हजम कर जाने में लग जाती है।
मनुष्य शरीर एक ‘शक्ति उत्पादक डायनेमो की तरह है। इसमें नित्य निरन्तर शक्ति का उद्वेलन होता रहता है। आत्मिक विकास के लिए आवश्यकता इस बात की है उन्हें रोक कर, संयम द्वारा संचित किया जाय तथा उचित दिशा में में लगा दिया जाय। इसके विपरीत विषय भोगों के छिद्रों से नष्ट कर देने पर मनुष्य दीन-हीन असहाय और क्षीण ही हो जाता है। अस्तु संयम द्वारा शक्ति को संचित रखकर उसका सदुपयोग करने से ही मनुष्य का जीवन प्रभावशाली बनता है।’ बुद्धिमान पुरुषों की कसौटी बताते हुए भगवान ‘श्री कृष्ण ने कहा है, “नतेषु रमते बुधः” अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति संयम का महत्व समझ कर विषय भोगों में लिप नहीं होते।