मानवीय मस्तिष्क प्रकृति द्वारा मनुष्य को प्रदान किया गया मणिमुकुट है, जो इस बात का द्योतक है कि वह इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी, परमात्मा का युवराज पुत्र है। अनादिकाल से अब तक मनुष्य ने जो प्रगति की है, जिस सभ्यता और संस्कृति का निर्माण तथा विकास किया है वह इस मस्तिष्क की ही कृपा है। शरीर स्वास्थ्य मानसिक सन्तुलन से लेकर सामाजिक सुव्यवस्था तक हर क्षेत्र में व्यवस्था और स्थिरता बनाये रहने में मस्तिष्क समर्थ और सक्षम है। लेकिन यह उसी स्थिति में सम्भव है जब मस्तिष्क को समुचित पोषण और सुव्यवस्थित संचालन मिलता रहे।
चिन्तन मस्तिष्क का प्रधान कार्य है। यदि वह सही और सन्तुलित हो तो सामान्य स्तर का मस्तिष्क भी पग-पग पर सफलताएँ प्राप्त करता चलता है। संसार में। जितने भी महापुरुष और सफल व्यक्ति हुए हैं, उनमें से अधिकांश के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनकी मस्तिष्कीय क्षमता का अधिकतम छह प्रतिशत भाग ही सक्रिय रहा। लेकिन सही और सन्तुलित चिन्तन प्रक्रिया अपनाने के कारण उन्होंने इतनी सफलताएँ अर्जित कर दिखाई जो छह प्रतिशत या इससे भी अधिक सक्रिय मस्तिष्क वाले व्यक्ति भी प्राप्त नहीं कर सके। इसका एक ही कारण है कि अस्त-व्यस्त मनःस्थिति और मानसिक विकृतियाँ मस्तिष्क को चौपट करके रख देती हैं। बाहर वालों को न दीख पड़ने पर भी ऐसे व्यक्ति बेतरह जलते कुढ़ते रहते है और अपनी मस्तिष्कीय क्षमताओं को बर्बाद करते रहते हैं।
कहा जा चुका है कि मस्तिष्क प्रकृति द्वारा प्रदत्त वरदानों में सर्वोपरि सर्वश्रेष्ठ और मानवीय सत्ता की अमूल्य निधि है। इसी के आधार पर अगणित आविष्कार किये गये, जिनके द्वारा मनुष्य पाषाण युग से अणु युग तक अपनी सभ्यता की यात्रा पूरी कर सका। इसी के बल पर उसने आन्तरिक जगत की विलक्षणताओं को समझने तथा उनसे लाभ उठाने योग्य सामर्थ्य अर्जित की। इसी के बल पर सूक्ष्म जगत के क्रिया-कलापों और नियमों को जान पाना सम्भव हो सका। योग विज्ञान भी मस्तिष्क के कुशलतम अध्ययन और उसके निष्कर्षों का परिणाम है, जिसके द्वारा वह नर से नारायण नया पुरुष से पुरुषोत्तम बनने में समर्थ हो सका।
योग शास्त्रियों का कथन है कि अंतर्जगत में दिव्य उपलब्धियाँ अर्जित करने के लिए मस्तिष्कीय कुशलता अनिवार्य नहीं है। यह ठीक है, परन्तु यह भी सच है कि असन्तुलित मन और अव्यवस्थित चित्त द्वारा उस क्षेत्र में रंचमात्र भी सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। आत्मिक क्षेत्र में प्रगति के लिए यह अनिवार्य है कि मन की, मस्तिष्क की अव्यवस्थित दशा को सँवारा सुव्यवस्थित किया जाय, सन्तुलन साधा जाय और व्यर्थ के क्रिया-कलापों में नष्ट होती रहने वाली उसकी शक्ति को नष्ट होने से बचा कर आत्मिक प्रगति की दशा में लगाया जाय। योग-दर्शनकार ने इसी स्थिति को प्रत्याहार कहा है और बताया है।
“स्वविषय संप्रयोगे चित्त स्वरुपानुकार इवेद्रि-याणाँ प्रत्याहारः।”(2154)
अर्थात्- ‘‘अपने विषयों के संबंध से रहित होने पर चित्त का स्वरूप में तदाकार हो जाना प्रत्याहार है। जब साधनाकाल में साधक इन्द्रियों के विषयों से सम्बद्ध नहीं होता और चित्त को अपने विषय में लगाता है, उस समय इन्द्रियों का अपने विषयों की ओर न जाकर चित्त में विलीन सा हो जाना ही प्रत्याहार सिद्धि है।”
सामान्य स्थिति में होता यह है कि विषय मुखों, इन्द्रिय भोगों को भोगने के बाद भी मनुष्य की कल्पनायें उसी दिशा में भागती दौड़ती रहती हैं। उदाहरण के लिए भोजन करने में मुश्किल में पन्द्रह बीस मिनट लगते हैं, कोई व्यक्ति अहर्निश रतिक्रिया नहीं कर सकता, सुख सुविधाएँ शरीर से सम्बन्धित होती हैं और अपना परिणाम प्रस्तुत कर निष्प्रभावी हो जाती हैं। कहने का आशय यह है कि उपभोग के समस्त विषय एक निश्चित समय में सम्पन्न होते हैं। लेकिन मन उनमें चौबीसों घण्टे डूबता, उतराता रहता है। नित्य उन्हीं का ध्यान करता रहता है। प्रत्याहार साधना में सर्वप्रथम मन की इस निरर्थक भागदौड़ को रोका बाँधा जाता है।
योग विद्या इस विषय में दिशा निर्देश करती है कि मन की इस अनावश्यक और निरर्थक उछल-कूद को किस प्रकार रोका जाय। योग शास्त्रियों के अनुसार इन्द्रियों के माध्यम से ही मनुष्य की शक्तियों का क्षरण या अपव्यय होता है। मन में उठने वाली भावनायें, मस्तिष्क में उठने वाले विचार इन्द्रियों को उत्तेजित करते है और न चाहते हुए भी उनसे मनुष्य की शक्तियाँ बाहर फेंक जाती हैं जैसे दरवाजे से किसी को जोर का धक्का लगाकर धकेल दिया जाता हो। इन्द्रियों को इसीलिए द्वार कहा गया है कि उन से शक्तियों का विचार और भाव उत्तेजनाओं द्वारा बाहर फेंक दिया जाता है।
यदि मन में आने वाले विचार और भाव उत्तेजनाओं को किसी प्रकार रोका जा सके तो मनुष्य की बहुमूल्य शक्ति सम्पदा को अनावश्यक रूप से क्षरित और स्खलित होने से बचाया जा सकता है। यह अपक्षरण मन मस्तिष्क पर चेतन रूप से नियन्त्रण स्थापित कर ही रोका जा सकता है।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मन जिस वस्तु या विषय को महत्वपूर्ण अथवा मूल्यवान समझ लेता है फिर उसी में प्रवृत्त रहता है और यह समझ तब तक विकसित नहीं होती जब तक कि उस विषय के संपर्क में न रहा जाय। अनावश्यक बातों से अपना ध्यान हटा कर आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए ही मन को निरत रखने का निर्देश देते हुए गीताकार ने कहा-
यतो यतो निश्चरति मनश्चं चलमास्थिरम्। ततस्त्तो नियम्यै तदात्मन्यैव वशं जग्रेत्॥ (अ. 6-26)
अर्थात्- जब-जब मन चंचल हो, इन्द्रियों के विषयों के कारण संसार में विचरे तो तब-तब वहाँ से इसका नियमन करके आत्मा में हो निरुद्ध करना चाहिए।
व्यर्थ के विचारों से मन को हटाकर उपयोगी आत्मा के विषय में लगाने के लिए यह एक अभ्यास है। शास्त्रकारों ने मनोनिग्रह के लिए दूसरा उपाय यौन सजगता बताया है। यौन सजगता का अर्थ यह बताया गया है कि मन जब भी किसी विषय के पीछे भागता है तो उस पर कोई लगाम लगाने की अपेक्षा यह स्मरण रखा जाय कि अपनी चेतन आत्मा मन के इस क्रीड़ा कौतुक को एक मूक दर्शक की भाँति देख रही है। वयस्क व्यक्ति छोटे बच्चों की उछल-कूद को जिस निर्लिप्त भाव से देखते हैं और यदा-कदा उससे अपना मनोरंजन भी कर लेते हैं। उसी प्रकार उछल कूद करने वाले मन को चेतन आत्मा निर्लिप्त भाव से देखते हुए साक्षी बना रहे। मन इस प्रकार अपने आप ही शाँत हो जायगा। देखना और केवल देखना तथा दर्शक के रूप में अपने अस्तित्व को चेतन आत्मा के रूप में अनुभव करना मन को शाँत करने तथा मानसिक शक्तियों का अपव्यय रोकने के लिए अचूक उपाय बताया गया है।
योग शास्त्र में मानसिक शक्तियों को एक दिशा में केन्द्रित करने तथा उसके द्वारा उच्च आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के और भी उपाय हैं। जिनका एक ही उद्देश्य है चिंतन को एक उपयोगी दिशा में नियोजित करना तथा उसके द्वारा अपनी मानसिक शक्तियों से उपयोगी परिणाम प्राप्त करना। आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए चिन्तन की यह एकाग्रता, मन को एक ही दिशा में केन्द्रित करना आवश्यक है ही लौकिक जगत में भी तब तक सफलता नहीं मिलती जब तक कि अपनी सम्पूर्ण मनःशक्ति को पूर्णतया एक ही दिशा में नियोजित न किया जाय। अभीष्ट दिशा में अपनी सम्पूर्ण मनःशक्ति को नियोजित कर ही संसार में कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र विशेष में चमत्कारी सफलतायें प्राप्त कर सका हैं। इसके अतिरिक्त कोई और मार्ग नहीं रहा है तथा न ही सफलता प्राप्त करने का कोई उपाय।