साधन सम्पन्न और बुद्धि जीवियों से सहयोग का आह्वान

October 1979

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इन दिनों जब कि हर व्यक्ति एड़ी से चोटी तक संकीर्ण स्वार्थपरता के पाप पंक और लोभ मोह की जंजीरों में जकड़ा और फँसा हुआ है, इस स्थिति में निजी लाभ लोभ पर अंकुश लगाकर मानवीय भाग्य और भविष्य को बदलने के लिए यत्नशील आदर्शवादी व्यक्तियों को सराहा जाना स्वाभाविक ही है। युग परिवर्तन की महान प्रक्रिया में जो सृजन शिल्पी संलग्न हैं उनके साहस को अगले दिनों इसी कारण सराहा जायगा। उनका समुदाय इतिहासकारों के लिए अगले दिनों सर्वप्रिय और प्रमुखता के साथ उल्लेख करने का विषय होगा।

उन सृजन शिल्पियों की प्रतिभा को विकसित करने और भावनाओं को दिशा देने के लिए शान्ति कुँज में चलने वाले प्रशिक्षण शिविरों का असाधारण महत्व है। सैनिकों का साहस और पराक्रम कितना ही उ....म वेग लिए क्यों न हो? उनका प्रशिक्षण और मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना वे अपने साहस और शौर्य का कोई उपयोग कर ही नहीं सकते। उनका कितना ही साहसिक, त्याग, बलिदान देश की सुरक्षा करने में तथा विजय श्री का वरण करने में समर्थ न हो सकेगा। तलवार पर धार न होता वह लोह खण्ड बनकर रह जायगी, उस पर धार चढ़ना आवश्यक ही होगा। शिक्षण सत्रों की व्यवस्था, युगान्तरीय चेतना को, दिशाधारा देने की दृष्टि को बहुत अधिक महत्वपूर्ण समझा जा सकता है। उसे नाभिक या मेरुदण्ड की उपमा भी दी जा सकती है।

1 नवम्बर (कार्तिक पूर्णिमा) से आरम्भ होने वाली सत्र श्रृंखला का महत्व भी बहुत है और विस्तार भी अधिक। सात प्रकार के सत्र एक साथ चल पड़ेंगे। दो तरह के सत्र पहले से ही चल रहे हैं। एक वर्षीय कन्या शिक्षण सत्र आठवाँ है, जो अपने क्रम से गत छह वर्षों से चलता रहा है। नौवाँ शिक्षण सत्र शान्ति कुँज में रहने वाले कार्यकर्त्ताओं और उनके परिवार का विशिष्ट शिक्षण तथा स्वावलम्बन की व्यवस्था बनाने के लिए एक अतिरिक्त सत्र के रूप में चलेगा। इसे पारिवारिक सम्भावना के एक अभिनव अभियान का एक जीवन्त प्रयोग समझा जाना चाहिए। यह प्रयोग देखकर अन्य स्थानों पर भी लार्जर फैमिली तैयार करने की प्रेरणा उत्पन्न होगी और वैसा उत्साह जगेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए, विश्व परिवार की संरचना के लिए इस प्रकार के विकसित परिवारों की इकाइयाँ बहुत महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं। इसका जीवन्त और जागृत प्रमाण नवें क्रम के सत्र में चलेगा। इस सत्र की तैयारी भी करीब-करीब पूरी हो चुकी है।

इन नौ प्रशिक्षण सत्रों को युगान्तर चेतना के प्रशिक्षण की नौ शिक्षा धाराओं का एक विशिष्ट समुच्चय कहा जा सकता है। विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों की शिक्षा के विभाग होते हैं, उन्हें फैकल्टी कहा जाता है। शान्ति कुँज का आकार छोटा है और साधन सीमित हैं, फिर भी इसे विश्व निर्माण विद्यालय कहा जा सकता है। सैनिकों की शिक्षा एक अलग बात है और सेना नायकों को तैयार करने की व्यवस्था अलग बात है। इन दोनों का कार्यक्षेत्र सर्वथा स्वतन्त्र या अलग-अलग नहीं होता फिर भी शिक्षण व्यवस्था तो अलग-अलग ही होती है। वर्तमान विषय परिस्थितियों में शान्ति कुँज को वर्तमान सन्दर्भों में अनुपम और अभूतपूर्व कही जाने योग्य भूमिका निभानी पड़ रही है। सत्र श्रृंखला अब तक भी चल रही है। कार्तिकी पूर्णिमा से जिस प्रकार सत्र श्रृंखला का जो काफी बड़ा क्रम बन पड़ा है उसे ऊँची उड़ान नहीं लम्बी छलाँग ही कहा जा सकता है। स्थान सम्बन्धी सुविधा होते ही नई प्रक्रिया चल पड़ी है और जैसे-जैसे स्थान सम्बन्धी एवं अन्य दूसरे साधन जुटते जाएँगे वैसे-वैसे इन सत्रों का स्वरूप एवं स्तर बढ़ता चला जायगा। कार्यक्षेत्र जितना बढ़ेगा, संकल्प और उत्तरदायित्व जितने फैलेंगे वैसे-वैसे उसी के अनुसार इन सत्रों की प्रखरता भी बढ़ती ही जायगी। सम्भव है अगले दिनों इन नौ प्रकार के सत्रों को नौ कालेजों के विकसित समुच्चय वाले अद्वितीय अनुपम विश्वविद्यालय के रूप में देखा जा सके। इस विस्तार और आवश्यकता की पूर्ति के लिए साधनों का आह्वान किया गया है। वे शीघ्रता से उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। उनके प्राप्त होने की गति मन्द ही रहेगी। अस्तु जितने साधन मिल सके हैं, उसी अनुपात से विस्तार होता चल रहा है।

साधनों में धन का अपना स्थान है। कई लोगों से तो वह मिलता नहीं है अपने लोग ही थोड़ा-थोड़ा करके उसे संचित करेंगे और सृजन की माँग का घर भरेंगे। यह विस्तार क्रम एक दिन की आमदनी देने वाले उदार लोगों की सहायता से भी आगे बढ़ता रह सकता है। इस प्रक्रिया में थोड़ी तेजी आ सके तो युग की माँग पूरी करने में जो अड़चने उत्पन्न हो रही हैं, उन्हें दूर करने में सरलता हो सकती है।

जिनके पास शिक्षा और प्रतिभा है, वे इस संदर्भ में दूसरे प्रकार का सहयोग भी दे सकते हैं। कितने ही प्रतिभाशाली सुशिक्षित अपनी नौकरी पूरी करने के बाद पेन्शन लेते हैं और आजीविका के सम्बन्ध में निश्चित होते हैं। उन पर परिवार के निर्वाह का कोई आर्थिक उत्तरदायित्व भी नहीं होता। वे इस स्थिति में परिवार के बीच पड़े रहते और बेकार की देखभाल में समय काटते हैं। ऐसे व्यक्ति यदि चाहें तो अपने बचे हुए समय को युग सृजन महान परमार्थ के लिए दे सकते हैं। रिटायर होने वाले यह प्रतिभाशाली व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में वानप्रस्थ आश्रम के अधिकारी भी हैं। यह वर्ग अपने देश में कम नहीं, किन्तु कृपणता, व्यर्थ का मोह और अनेक बेकार के जाल जंजालों ने उन्हें जकड़ रखा है। इसीलिए गृहस्थ व्यक्तियों से थोड़ा-थोड़ा समय लेकर उस परम्परा का निर्वाह और आवश्यकता की पूर्ति करनी पड़ रही है।

जिनकी आध्यात्मिक जीवन पद्धति में रुचि है ऐसे योग्य परिजनों के अन्दर सत्रों में शिक्षण कर सकने योग्य क्षमता का विकास करने में अधिक कठिनाई नहीं होगी। संगीत-भजनोपदेशक सत्र के साथ यह बात नहीं है। उसके लिए ऐसे शिक्षक चाहिए जिनमें संगीत सिखा सकने की योग्यता पहले से ही हो। संगीत की योग्यता के साथ भजनोपदेशक की शैली आसानी से जोड़ी जा सकती है। अस्तु जो परिजन संगीत सिखा सकने की योग्यता रखते हों, वे विशेष रूप से पत्र व्यवहार कर लें। आवश्यक होने पर उन्हें आँशिक रूप से आर्थिक सहायता भी दी जा सकती है।

जिन पर कोई विशेष पारिवारिक उत्तरदायित्व नहीं है वे घर से बाहर जाकर कुछ समय किसी उत्साहवर्धक वातावरण में रहने की इच्छा करते रहते है, आत्मा यद्यपि उस समय परमार्थ प्रक्रिया में निरत रहने की प्रेरणा देती है, किन्तु ऐसे व्यक्ति इधर-उधर आश्रम में रहकर जिस-तिस प्रकार अपने को सन्तुष्ट रखने की चेष्टा करते रहते हैं। वे किसी आश्रम में भी रहने चले जाते हैं। किन्तु वहाँ न उनके आत्म-कल्याण के लिए कोई उपयुक्त वातावरण रहता है और न ही लोक सेवा का कोई अवसर। ऐसे व्यक्तियों के लिए जो अपनी आत्मा की पुकार सुनते हैं और उसे पूरा करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, शान्ति कुँज एक उपयुक्त स्थान है। यहाँ रहकर परमार्थ भावना को भी परिपूर्ण पोषण मिल सकता है और आत्म-कल्याण तो होता ही है। अब स्थान सम्बन्धी असुविधा भी नहीं रही। पत्नी सहित भी यहाँ आकर रहा जा सकता है। अलग से ऐसा क्वार्टर मिल सकता है जिसमें शौचालय, स्नानघर, रसोई घर, बिजली, पंखा आदि की सुविधा है। कहने का अर्थ यह कि निवास में कोई असुविधा नहीं होगी। चारों ओर हरा-भरा उद्यान, गं....गा तट, हिमालय की छाया और मूर्धन्य बुद्धिजीवियों, सेवा परायणों का सान्निध्य, आत्म-साधना और योगाभ्यास आदि का समुचित अवसर आदि ऐसी सुविधाएँ हैं जो लाख प्रयत्न करने पर भी उचित ढंग से जुटाई नहीं जा सकतीं। सबसे बड़ा और अतिरिक्त लाभ यह है कि उपरोक्त नौ सत्रों में प्रशिक्षण की सेवा साधना में वह बहुमूल्य समय कट सकता है जो घर पड़े रहने पर ऐसे ही निरर्थक बीतता है। विद्या और अनुभव की सार्थकता इसी में है कि वह उच्च उद्देश्यों के काम में प्रयुक्त हो, ऐसे ही नष्ट न हो जाए।

सेवा साधना के उद्देश्य से आने वाले ऐसे रिटायर व्यक्तियों का शान्ति कुँज में विशेष स्वागत किया जायगा जो तकनीकों होने के स्थान पर बुद्धिजीवी स्तर के कार्य करते रहे हैं, उच्च कक्षाओं के अध्यापक, वकील, न्यायाधीश स्तर के लोग प्रशिक्षण में जितने फिट बैठते हैं उतने इंजीनियर आदि नहीं। यों उनमें भी कितने ही स्वाध्यायशील और विचारशील होते हैं तथा शान्ति कुँज में अध्यापक स्तर की योगदान दे सकते हैं। ऐसे व्यक्ति सदा सर्वदा के लिए आएँ यह आवश्यक नहीं है। कम से कम एकाध महीने के लिए तो आना ही चाहिए, इससे कम में कम नहीं चलेगा, पर आने के लिए कम से कम चार महीने की तैयारी की जा सके तो उस समय का कुछ कारगर उपयोग हो सकता है। महीने पन्द्रह दिन का समय तो समझने और समझाने में ही लग जाता है। इस सत्र श्रृंखला में संगीत शिक्षकों की भी आवश्यकता है। साथ ही ऐसी भोजन शाला चलाने वाले निपुण शक्ति की भी खोज-बीन की जा रही है जो निर्वाह भर का लाभ लेकर आश्रम की भोजन व्यवस्था का उत्तरदायित्व सम्भाल सके इस संदर्भ में उपयुक्त व्यक्ति ही लिखें।

इन नौ सत्रों की व्यवस्था का काम बहुत बड़ा है। शान्ति कुँज ने यह साहस किया है। उसे सफल बनाना साधन सम्पन्न और बुद्धिजीवियों के सहयोग की अपेक्षा है। इन पंक्तियों को इसी की आह्वान समझा जाना चाहिए।


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