मृत्यु से अधिक निश्चित, कुछ भी नहीं

October 1979

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किसी भी मनुष्य के जीवन में क्या घटना है, यह सर्वथा अविज्ञान और संदिग्ध रहता है, पर एक तथ्य पूर्णतया निश्चित है कि प्रत्येक व्यक्ति को मरना पड़ेगा। मरने के बाद कोई जन्म लेगा या नहीं, नहीं कहा जा सकता, पर जन्म लेकर जो अपनी जीवन यात्रा पर निकल पड़ी है उसका मरना सर्वथा सुनिश्चित है। मृत्यु एक अनिवार्य घटना है जो प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक प्राणी के साथ घटता है। मृत्यु से अधिक निश्चित कुछ भी नहीं है। जो सर्वाधिक निश्चित, अनिवार्य और असंदिग्ध है, उसी से लोग इतने भयभीत रहते है। कि मरना, मौत, मृत्यु जैसे शब्दों को ही अशुभ मानते है। इस शब्द को सुनना ही पसन्द नहीं करते। इस भयग्रसतता और भीरु ग्रस्तता का क्या कारण है? यह जानता और समझना चाहिए।

मरने से भयभीत रहने का कारण केवल मनुष्य की वह मनःस्थिति है जो अपरिचित स्थिति में जाने और एकाकी रहने की आकाँक्षा से भय और भीरुता के रूप में उभरती है। सम्बन्धित व्यक्तियों और जाने-पहचाने लोगों से समझे हुए जगत से संपर्क छूट-टूट जायगा यह डर भी मनुष्य को मौत से डराता है, पर जिनने मरकर देखा है उनका कहना है कि मौतें में डरावनेपन की कोई बात ही नहीं हैं। मरने से पूर्व कैसा अनुभव होता है यह मनुष्य की अन्तःस्थिति पर निर्भर रहता है। वह आजीवन जैसा सोचता रहा है अन्तिम अनुभूतियाँ उसका सारतत्त्व क्षणभर के लिए प्रस्तुत हुआ कहा जा सकता है।

किन्हीं को प्रकाश दिखाई देता है तो किन्हीं को मधुर संगीत सुनाई पड़ता है, कुछ को नशा चढ़ने जैसी अनुभूति भी होती है और कइयों को दम घुटने तथा डूबने जैसी अकुलाहट अनुभव होती है। लेकिन जो जीवन को सही ढंग से जीते है सही ढंग से सोचते समझते है उन्हें मरण का सुखद अनुभव ही होता है। प्रसिद्ध प्राणि शास्त्री डा विलियम हन्टर ने मरते समय मन्द स्वर में कहा था कि, “यदि मुझमें लिखने की ताकत होती तो विस्तार से लिखता कि मृत्यु कितनी सरल और सुखदायी होती है।

डेट्रायर (अमरीका) के एक अखबार में कुछ समय पूर्व ‘उस पार’ शीर्षक से एक लेख माला छपी थी। उसमें उन लोगों के अनुभव संस्मरण शैली में प्रकाशित हुए थे, जो मरने के बाद पुनः जीवित हो गये थे। इन संस्मरणों में एक अनुभव मियानी निवासी लिनमेलविन का भी था, जिन्होंने बताया कि, “मृत्यु से पूर्व उन्हें तीव्र ज्वर के कारण मस्तिष्क में भारी जलन हो रही थी कि अचानक सब कुछ शान्त हो गया और मैं शक्ति, मैं शान्ति, स्वतन्त्रता तथा शीतलता का अनुभव करते हुए हवा में तैरने लगा। अपने चारों ओर का वातावरण मुझे बेहद रंगीन और सुहावना लगा। इस आश्चर्यपूर्ण स्थिति का पहले तो कोई कारा समझ में नहीं आया, पर पीछे लगा कि मैं मर गया हूँ और आत्मा के रूप में स्वच्छन्द विचरण कर रहा हूँ यह स्थिति भी देर तक नहीं बनी रही किसी ने मुझे पुनः शरीर में धकेल दिया और मैं जीवित हो उठा। देखा तो परिवार के लोग आवश्यक तैयारी करने में लगे हुए थे। मरने के बाद वापस जी उठने पर उन लोगों ने भी प्रसन्नता अनुभव की, खासतौर से मेरी छोटी लड़की ने।

बोस्टन निवासी डा मूर रसेल फ्लेचर ने लगातार 25 वर्षों तक इस तथ्य का अन्वेषण किया कि मरने के उपरान्त मनुष्य को किस प्रकार की अनुभूमि होती है। इतने वर्षों तक कई व्यक्तियों से भेंट कर, अध्ययन कर, उन्होंने “ड्रिटाइज आन सस्पेंडेंस इण्टीमेशन” नामक ग्रन्थ लिखा। वे आजीवन मैसाचूरौट्स मेडिकल सोसायटी के अग्रणी सदस्य भी रहे। अपने अनुसन्धान कार्य के दौरान उनका वास्ता ऐसे लोगों से भी पड़ा जो कुछ समय तक मृत रहने के बाद पुनः जीवित हो उठे थे। ऐसे लोग को खोज-खोजकर डाँ0 फ्लेचर ने उनके बयान लिए और इसके बाद उन्हें अपनी उक्त पुस्तक में प्रकाशित किया।

इन बयानों में एक संस्मरण गंनागिर नगर की निवासी श्रीमती जॉन डी0 ब्लेक का है। वे तीन दिन तक मृत स्थिति में पड़ी रही थी और डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था, पर कुछ लक्षण उनके शरीर में ऐसे भी विद्यमान थे जिनके कारण उनके घर वालों ने उन्हें नहीं दफनाया और पुनर्जीवन की प्रतीक्षा में शव को सम्हाले रहे। तीन दिन बाद मैडम ब्लेक जीवित हो उठीं। पूछने पर उनने बताया कि वह एक ऐसे लोक में गई थी, जिसे परियों का देश कहा जा सकता है। वहाँ बहुत-सी आत्माएँ विद्यमान थी, जिनमें उनकी मृत सहेलियाँ भी थी। मैडम ब्लेक ने बताया कि वे बिना परों आसमान में उड़ती थी और सभी प्रसन्न थी।

वरमान्य हडिगेट की एक अध्यापिका ने भी कुछ समय तक मृत रहने के बाद पुनर्जीवन प्राप्त किया था। उसने बताया कि मृत्यु देश के सभी निवासी प्रसन्न थे किसी के चेहरे पर विषाद नहीं था और सभी आमोद-प्रमोद में मग्न थे। वोस्टन से सेंट जान जाने वाला एक जलयान समुद्र में डूबा तो उसमें से केवल एक लड़की बची। पानी में एक घण्टे तक डूबी रहने के बाद वह बाद लहरों के साथ किनारे पर लगी। मृत समझी जाने के बाद भी वह बच गई। डाँ. फ्लेचर का उसने बताया कि मृत्यु और जीवन के बीच का समय उसने सुनहरे प्रकाश के बीच आनन्द पूर्वक बिताया।

साँस का रुक जाना और हृदय की धड़कन बन्द हो जाना आमतौर पर मृत्यु का चिह्न माना जाता है, पर अब यह तथ्य प्रकाश में आया है कि वस्तुतः साँस के रुकने और हृदयगति बन्द हो जाने से ही मृत्यु नहीं हो जाती। ये दोनों क्रियाएँ कृत्रिम रूप से भी जारी रखी जा सकती है। पानी में डूबे हुए व्यक्ति को कृत्रिम साँस देने की विधि साधारण स्काउट भी जानते है। आपरेशन करते समय किसी की हृदयगति बन्द हो जाने पर डाक्टर लोग कृत्रिम रूप से धड़कन पुनः चालू कर देते है। क्योंकि वास्तविक मृत्यु तो मस्तिष्कीय कोशों द्वारा अपना काम अन्तिम रूप से बन्द कर देने पर होती है।

रक्त और ऑक्सीजन द्वारा मस्तिष्क अपना काम चलाता है। वहाँ यदि यह दोनों चीजें न पहुँचें तो भी मस्तिष्क के लिए देर तक काम करते रहना सम्भव नहीं होता है। अधिक से अधिक वह बिना नये रक्त और ऑक्सीजन के छह मिनट तक अपना काम पुरानी संचित पूँजी द्वारा चलाता रह जाता है। इस बीच श्वाँस और रक्त पुनः प्राप्त होना आरम्भ हो जाय तो वह लगभग आधा घण्टे में वापस अपने पुराने ढर्रे पर आ सकता है, किन्तु यदि अधिक देर हो जाय तो जीवन को वापस लौटाने की कोई सम्भावना नहीं रहती।

मृत्यु निश्चित रूप से उतनी कष्टदायी नहीं जितनी कि समझी जाती है। बीमारी आदि के कारण मरने से पूर्व कितना ही कष्ट क्यों ने रहा हो, मरने का ठीक समय आने से पहले बेहोशी छाने लगती है और पीड़ा के समस्त लक्षण विदा हो जाते है मरने पर मनुष्य अनन्त शून्य में विलीन हो जाता है जहाँ उसके सुखद स्वागत की तैयारी पहले से की हुई लगती है। आमतौर पर वृद्ध लोग शान्ति और सन्तोषपूर्वक मरते है और युवावस्था में अधिक बेचैनी रहती है। यह उद्विग्नता महत्वाकाँक्षाओं के अतृप्त रह जाने के कारा ही होती है।

मृत्यु के समय सामान्यतः शरीर का तापमान 98.6 डिग्री फारेनहाइट होता है। इसके बाद वह प्रति घण्टे डेढ़ डिग्री कम होने लगता है। इस आधार पर यह पता लगाया जा सकता है कि मृत्यु हुए कितना समय बीत गया। मरणोपरान्त माँसपेशियाँ एक बार ढीली पड़ती है। इसके बाद वे कड़ी होती है और फिर ढीली पड़ जाती है। इसके बाद शव में सड़न आरम्भ होने लगती है तथा रक्त का लाल रंग बदलकर मटमैला और पतला होने लगता है।

मरने के बाद किसी व्यक्ति का चेहरा बहुत शाँत और तनाव रहित दिखाई देता है तो कईयों का चेहरा विकृत हो जाता है। इसका कारण यह समझा जाता है कि मृतक की आत्मा शाँत या उद्विग्न अवस्था में विदा हुई है, पर कतिपय शरीर विज्ञानियों की दृष्टि में ऐसा माँसपेशियों में आई शिथिलता के कारण दिखाई देना है। जीवित स्थिति में मस्तिष्क का, मनोभावों का दबाव चेहरे की माँसपेशियों पर रहता है और यह भाव-भंगिमा के रूप में प्रकट होता है। किन्तु जब यह दबाव हट जाता है तो माँसपेशियाँ शिथिल पड़ जाती है और चेहरे को शाँत या विकृत बनाती है। उनका कहना है कि गहरी निद्रा में सोये हुए व्यक्ति का चेहरा भी विकृत ही दिखाई पड़ता है, इसका कारण माँसपेशियों की शिथिलता है। मृतक की चेतना का अन्त ही माँसपेशियों की शिथिलता है। मृतक की चेतना का अन्त ही माँसपेशियों को उनकी बनावट के आधार पर शिथिल कर देता है और वे किधर भी लुढ़क पड़ती है। देखने वाले इस दृश्य को अपने-अपने ढंग से सोचते है और जीवित स्थिति में जो हर्ष-विषाद, सन्तोष, उद्वेग आदि के भाव चेहरे पर दिखाई पड़ते है उसी आधार पर मृतक की स्थिति का अनुमान लगाया जाता है।

जो भी हो इतना निश्चित हे कि मृत्यु के बाद शरीर के साथ जुड़े हुए सभी कष्टों और दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। अचानक पूरी मृत्यु किसी की नहीं हो जाती। वह तीन क्रम में धीरे-धीरे होती है। इन तीन क्रमों को स्लेनिकल, बायोलॉजिकल और सेलुलर कहा जाता है। प्रथम क्रम स्लेनिकल मृत्यु वह है जिसमें साँस, स्पंदन और मस्तिष्कीय विद्युत लहरों का प्रवाह रुक जाता है। इस स्तर पर मरे हुए व्यक्ति को हृदय मालिश जैसे उपचारों द्वारा पुनर्जीवित किया जाता है। मृत्यु के दूसरे चरण में शरीर के कुछ अंग विसंगठित होते हुए भी इस दशा में बने रहते है कि विद्युत प्रवाह के संचार से उनमें पुनः गतिशीलता उत्पन्न की जा सके तथा तीसरा और अन्तिम मरण रोका जा सके।

तीसरी सेलुलर मृत्यु वह है जिसमें शरीर के कोश विगलन की स्थिति में पहुँच जाते है और फिर किसी भी स्थिति में जीवन चेतना का वापस लौटना सम्भव नहीं होता। कई बार तो मृत्यु के यह तीनों चरण एक साथ, कुछ ही घण्टों में पूरे हो जाते है लेकिन कई बार पहली मृत्यु से तीसरी मृत्यु तक पहुँचने में दो-तीन दिन लग जाते है। जल्दबाजी में कितने ही मुर्दों को तुर्त-फुर्त दफना दिया जाता है जबकि वस्तुतः पूर्णतया मरे नहीं होते। ऐसे मुर्दे ही मरने के बाद पुनः जीवित हो उठते है। हिन्दू समाज में मृतक के समीप रोने-धोने, उसे स्नान आदि के क्रियाकृत्य कराने और श्मशान आदि में कुछ घण्टों तक रखे रहने का कारण सम्भवतः यही हो कि मृतक मृत्यु के तीनों चरण पूरी तरह सम्पन्न कर सके।

मस्तिष्कीय विद्युत तरंगों को मापने वाले यन्त्र ‘इलेक्ट्रो एन्सिफेलो ग्राफ’ का निष्कर्ष यह है कि मृत्यु के समय मस्तिष्क की विद्युत तरंगें धीरे-धीरे मन्द होती चली जाती है और गहरी मूर्छा आने लगती है। उस स्थिति में मृतक की स्मरण शक्ति और मस्तिष्कीय क्रियाशीलता धीरे-धीरे बन्द होने लगती है।

यदि आरम्भ से ही मृत्यु को जीवन का अनिवार्य अतिथि मानकर चला जाय, उसकी सुनिश्चितता को समझा जाय और अपनी गतिविधियाँ इस स्तर की बनाये रखा जाय जिससे मृत्यु के समय जीवन व्यर्थ जाने का पश्चाताप न रहे तो मृत्यु हर किसी के लिए सरल और सुखद हो सकती है। थकान मिटाने को जब निद्रा देवी की गोद में जाना नहीं अखरता तो इसका कोई कारण समझ में नहीं आता कि लम्बी थकान मिटाने के लिए, लम्बी निद्रा की गोद में जाने, जीवन की अनिवार्य निश्चित घटना मृत्यु से डरने या घबराने की स्थिति आये।

जो लोग इस तथ्य को समझ पाते है वे ही मृत्यु का हँसते हुए स्वागत करते और शान्तिपूर्वक मरते देखे जो सकते है। जार्ज वाशिंगटन मरने लगे तो उसने कहा, मौत आ गई, चलो अच्छा हुआ, विश्राम मिला। हेनरी थोरो ने शाँत और गम्भीर मुद्रा में मृत्यु का स्वागत करते कहा था मुझे संसार छोड़ने का कोई पश्चाताप नहीं है। कोहन्स ने और भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा-लगता है मेरे बदन पर फूल ही फूल छा गये है। हेनरी ने अपनी मृत्यु के समय अलंकारिक भाषा में कहा, बत्तियाँ जला दो मैं अंधकार में नहीं जाऊँगा। विलियम ने भी मृत्यु को एक सुखद घटना कहा था। स्वामी दयानन्द ने तो ईश्वर तेरी इच्छापूर्ण हुई कहते विष की पीड़ा को भी जैसे गले से लगा लिया था और मृत्यु का स्वागत किया था।

यह मनःस्थिति हर कोई प्राप्त कर सकता है, पर इसके लिए मृत्यु के भय को मन से निकालना पड़ेगा तथा उसे जीवन की सबसे ज्यादा निश्चित घटना मानते हुए उसे सहज भाव से स्वीकार करना पड़ेगा, जिस सहजता से सूर्य का उदय और अस्त होना स्वीकार किया जाता है।


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