पाण्डवों ने तीर्थाटन की तैयारी की तो श्री कृष्ण से भी साथ चलने को कहा। श्रीकृष्ण ने कहा-”मैं तो बहुत व्यस्त हूँ; पर कृपया मेरा यह कमण्डलु ले जायें व हर तीर्थ में इस भी स्नान कराएँ।’
पाँडवों ने ऐसा ही किया। लौटकर श्री कृष्ण को कमण्डलु दिया और बताया इसे हम लोगों ने सदा अपने साथ ही स्नान कराया, दर्शन-काल में भी इसे स्वयं धर्मराज हाथ में रखते थे। श्रीकृष्ण ने कहा-’तब तो यह अति पवित्र हो गई और इतना कहकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर प्रसाद रूप में सब को बाँट दिया। पर वह तो कड़वी तूम्बी थी। सब थू-थू करने लगे। कृष्णा ने कहा-’धर्मराज! इतने तीर्थाटन के बाद भी इसका कड़ुवापन मिटा नहीं।”
लोगों ने कहा- ‘महाराज! भला कमण्डलु की कड़ुवाहट तीर्थस्थान, देवदर्शन से मिट सकती है?
तब कृष्ण ने कहा-”यदि नदी जैसी निर्जीव वस्तु में स्नान से और पाषाण-प्रतिमा के दर्शन से उन्हीं के समान जड़ श्रेणी का कमण्डलु अपनी कड़ुवाहट नहीं मिटा पाया, तो चेतन मनुष्य पर इनका क्या असर होगा? उस पर तो चेतना का ही प्रभाव पड़ सकता है। चेतना-सम्बन्धी ज्ञान एवं साधना ही चेतना का स्तर उठाने में समर्थ है। विकसित चेतना नदी, प्रतिमा आदि से भी प्रेरणा पा सकती है और दैनंदिन जीवन क्रम से भी। अविकसित चेतना स्तर पर तीर्थाटन का भी प्रभाव नहीं होगा, जबकि विकसित चेतना के लिए घर में ही तीर्थ यात्रा के सुफल प्राप्त होना सम्भव हैं। अतः अपनी भूलों को स्वीकार कर उनका प्रायश्चित्त करते हुए निरन्तर आत्म परिष्कार के लिये प्रयासरत रहना ही सच्ची तीर्थ यात्रा है।