काया के विभिन्न अवयवों को सुन्दर, सुडौल, सुसज्जित बनाने के लिए हम पूरा ध्यान रखते हैं और उस कायिक सौंदर्य संवर्धन के लिए वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार प्रसाधन, पुष्प, आदि जो कुछ सूझता है उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इससे विदित होता है कि काया और उसके विभिन्न अवयवों को अच्छी स्थिति में रखने के सम्बन्ध में हमारी सतर्कता और सुरुचि कितनी बढ़ी-चढ़ी है, पर जब यह देखते हैं कि यह ध्यान, मात्र देखने दिखाने तक सीमित है। जो दृष्टि से ओझल है उसकी उपेक्षा ही होती रहती है। फिर चाहें वे अवयव कितने ही महत्वपूर्ण क्यों न हों। पेट, आँतें, जिगर, गुर्दे, फेफड़े, हृदय जैसे अवयव होंठ, गाल, भौं, नाक आदि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उनकी सुसज्जा तो पीछे की बात है सुरक्षा तक पर ध्यान नहीं जाता और वे अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़े रहने के कारण रुग्ण बने रहते हैं। फलतः जीवन का आनन्द ही चला जाता हैं एक प्रकार से जिन्दगी की लाश की किसी प्रकार ढोनी पड़ती है।
मस्तिष्क की-उसके चेतना प्रवाह मन की गरिमा पर जब विचार किया जाता है तो प्रतीत होता है कि जीवन का अस्तित्व, स्वरूप, स्तर और भविष्य भी उसी केन्द्र बिन्दु के साथ जुड़ा हुआ है। देखने में तो जो कुछ किया, कमाया और भोगा जाता है उसमें शरीर की ही भूमिका दृष्टिगोचर होती है, पर वास्तविकता दूसरी ही है। म नहीं पूरी तरह शरीर पर छाया हुआ है, उसके भीतर भी वही रमा है। विपन्नता और सम्पन्नता और सम्पन्नता का सम्बन्ध परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ जोड़ा तो जाता है, पर थोड़ी गहराई में उतरने पर स्पष्ट हो जाता है कि काया की कठपुतली जो तरह-तरह की हरकतें करती और सम्वेदनाएँ प्रकट करती है उसमें पर्दे के पीछे बैठे बाजीगर मन की उँगलियाँ ही अपनी करामात दिखा रही होती हैं।
स्वास्थ्य-अर्थ, व्यवस्था, परिवार-प्रबन्ध, सुरक्षा-सुविधा, श्रेय सम्मान के लिए प्रयत्न करने में ही हमारी गतिविधियाँ संलग्न रहती हैं। उन्हीं प्रयासों में एक कड़ी मनःसंस्थान को सुव्यवस्थित रखने की भी जोड़ी जानी चाहिए। बालों को सुसज्जित रखने का जितना ध्यान रखा जाता है यदि उतना ही मानसिक सन्तुलन बनाये रहने का ध्यान रखा जा सके तो प्रतीत होगा कि सर्वोपरि बुद्धि मत्ता और सर्वोच्च सफलताएँ प्राप्त करने का द्वारा खुल गया। शरीर की जो भी स्थिति है उसके लिए वस्तुतः मन ही उत्तरदायी है। ‘मन के हारे हार और मन के जीते जीत वाली उक्ति की यथार्थता में रत्ती भर भी सन्देह करने की ‘गुंजाइश’ नहीं है।
मस्तिष्क की तुलना एक अच्छे-खासे बिजली घर से की जा सकती है। उसकी उत्पादित शक्ति का वितरण तन्त्रिका तन्त्र-नर्वस सिस्टम-द्वारा समस्त शरीर में होता है और उसी की शक्ति से समस्त अवयव अपना-अपना काम ठीक प्रकार कर पाते हैं। मस्तिष्कीय विद्युत उत्पादन का जितना भाग समस्त शरीर को गतिशील रखने में खर्च होता है उससे कुछ ही कम अपनी निज की मशीनरी को चलाने और खुराक जुटाने एवं टूट-फूट ठीक करने में खप जाता है। चिन्तन अथवा हलचलों के लिए हम जान-बूझ कर कुछ नहीं भी करें तो भी मस्तिष्क तन्त्र स्वयमेव चालू रहेगा। उसे सोते जागते विश्राम कभी नहीं। सोचने विचारने वाला भाग कुछ समय तक नींद में विश्राम भी पा लेता है, पर अवयवों को गतिशील एवं जीवित रखने वाला अचेतन भाग तो जन्म से लेकर मरण पर्यन्त अनवरत रूप से कार्य संलग्न ही रहता है।
सोचने या काम करने में मस्तिष्कीय शक्ति का सीमित, सन्तुलित एवं व्यवस्थित व्यय होता है किन्तु मानसिक उत्तेजनाओं की स्थिति में शक्ति व्यय का अनुपात अत्यधिक बढ़ जाता है। चूल्हे में ईंधन सीमित जलता है, पर ईंधन के ढेर में आग लग जाने पर तो ऊँची लपटें उठने लगती हैं और देखते- देखते उतना ईन्धन जलकर खाक हो जाता है जिससे महीनों चूल्हा जलता रहता। घबराहट, चिन्ता, भय, शोक, उदासी जैसी मनःस्थिति होने पर गिरावट स्तर की खिन्नता होती है और क्रोध, आवेश, कामुकता, आतुरता जैसे प्रसंगों में उत्तेजित प्रतिक्रिया उभरती है। दोनों की परिस्थितियों में मानसिक सन्तुलन बिगड़ता है ज्वार हो या भाटा दोनों ही परिस्थितियों में समुद्र में समान उथल-पुथल होती है। खिन्नता एवं प्रसन्नता की अति से जो आवेश मनःक्षेत्र में उत्पन्न होता है उसके कारण सही चिन्तन कर सकना और सही निष्कर्ष निकाल सकना सम्भव नहीं रहता। थका हुआ आदमी असफलताओं की निराशाजनक बातें सोचता है और नशे में धुत्त व्यक्ति दूनकी हाँकता है। जिसे कुछ विशेष उपलब्धियाँ मिल गई हैं वह फूला नहीं समाता और धरती जोतने जैसे मंसूबे बाँधता है। लो ब्लड प्रेसर और हाई ब्लड प्रेसर के लक्षण भिन्न-भिन्न है, पर कष्ट दोनों ही व्याधियों के रोगी समान रूप से भुगतते हैं।
शरीर और मन का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। मन प्रसन्न हो तो शरीर में सक्रियता रहेगी और यदि खिन्नता छाई हो तो क्रियाशीलता में कमी ही नहीं आयेगी वरन् उसके साथ अस्तव्यस्तता जुड़ जाने से जो थोड़ा-बहुत काम किया गया था वह भी गलत-सलत हो जायेगा और उसका नुकसान, न करने से भी अधिक महंगा पड़ेगा।
मनःस्थिति का ही एक नाम ‘मूड’ है। मूड अनुकूल हो तो आदमी काम पर सवार रहेगा और यदि वह प्रतिकूल हो तो काम आदमी पर सवार रहेगा। दोनों परिस्थितियों में कितना अन्तर है इसका परिचय प्राप्त करना हो तो एक उस आदमी को देखा जाय जो घोड़े पर सवार होकर तेजी से सफर कर रहा है। दूसरा वह आदमी देखा जाय जिसके जिम्मे मरा घोड़ा ठोकर या घसीट कर ले जाने का काम सौंपा गया है। दोनों अपनी प्रसन्नता-खिन्नता के अनुरूप ही वे सौभाग्य दुर्भाग्य का अनुमान लगा रहे हों। उसी अनुपात से उनके उत्साह एवं बल में भी घट बढ़ का अन्तर पड़ रहा होगा।
मन कुछ काम तो अपने आप ही कर लेता, कुछ उसे इन्द्रियों की सहायता से कराने पड़ते हैं। चिन्तन, मनन, ध्यान, कल्पना, योजना, निष्कर्ष, निश्चय आदि क्रियाएँ वह अपने आप अकेला ही कर लेता है। चलना-फिरना, खाना-पीना, देखना, सुनना, बोलना जैसे कार्य उसे इन्द्रियों की सहायता से कराने पड़ते है।
इन्द्रियाँ देखने भर में स्वतन्त्र हैं उनका स्थान मस्तिष्क से दूर है तथा बनावट भी भिन्न है इसमें उनकी भिन्नता अनुभव की जाती है, पर तथ्य यह है वे सभी मन के बाजीगर द्वारा उँगली के इशारों पर चलाई जाने वाली कठपुतलियां भर हैं। अधिक से अधिक इतना कह सकते हैं कि वे मन महाराज की रखैल नर्तकी हैं जिन्हें अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के खेल-खेलने और स्वांग रचने पड़ते हैं। इन्द्रियों की बुरी आदतों में कई प्रकार की हानियाँ होती है। चटोरापन, कामुकता, आलस दुर्व्यसन जैसे कृत्यों के लिए इन्द्रियों को दोष दिया जाता है और उनका नियन्त्रण निग्रह करने की बात सोची जाती है। यह जड़ का ध्यान रखकर पत्ते सींचने के समान है। इन्द्रिय विग्रह के स्थानीय अभ्यास प्रायः असफल रहते हैं। कामुकता की प्रवृत्ति को लंगोट बाँधने के प्रतिबन्ध से नहीं रोका जा सकता है। प्रतिबन्ध से प्रत्यक्ष कृत्य रुक सकते है, पर भीतर से उनकी लिप्सा लपकती रहे तो अन्तः शक्तियों का क्षरण इन्द्रिय भोग जितना ही होता रहेगा। पानी का सोता रोका जाना चाहिए मेंड़ बाँधने पर वह एक जगह रुकते ही दूसरी जगह फूट पड़ेगा। इन्द्रिय निग्रह की आवश्यकता अनुभव हो तो स्थानीय रोक थाम की बात सोचने के साथ-साथ लिप्साओं के उद्गम मन पर नियन्त्रण करना चाहिए। इन्द्रिय निग्रह की सफलता मनोनिग्रह पर निर्भर है।
कुसंस्कारी मन कच्चे पारे की तरह है। वही सुसंस्कारी बना लिये जाने पर मकरध्वज जैसे पारद रसायनों के रूप में विकसित होता है, तो गुणकारी रसायन का काम करता है। कच्चा पारा तो भयंकर शरीर विस्फोट एवं मरण का निमित्त ही बन सकता है। मन की गुलामी सबसे बुरे किस्म की पराधीनता है। गुलाम सोने खाने जैसे समय तो अवकाश प्राप्त कर लेते हैं, पर मन के गुलाम को दिन-रात में कभी भी चैन नहीं। स्वतन्त्रतापूर्वक वह कुछ भी कर सकना तो दूर; सोच तक नहीं सकता।
बन्ध मोक्ष का-पतन उत्थान का आधार भूत कारण मन है। परिस्थितियों को बहुधा श्रेय या दोष दिया जाता है; पर वह लाँछना मात्र है। यदि परिस्थितियाँ ही कारण रही होतीं तो उन परिस्थितियों में रहने वाले सभी न सही अधिकाँश को तो एक जैसा मार्ग अपनाना चाहिए था। पर वैसा होता कहाँ है। अच्छी से अच्छी परिस्थितियों के लोग समस्त सुविधा साधन होते हुए भी बुरे से बुरे कर्म करते हैं। इसके विपरीत भारी विपत्ति में फँसे हुए और घोर अभावग्रस्त स्थिति में रहते हुए भी कितने ही लोग अपनी नैतिकता और सदाशयता बनाये रहते हैं। वास्तविक कारण मन का स्तर है वह अपनी निकृष्टता एवं उत्कृष्टता के अनुरूप मनुष्य की गतिविधियों को इच्छित दिशा में घसीटता चला जाता है।
प्रश्न मन की शक्ति का नहीं, उसके नियन्त्रण प्रयास का है। घोड़ा बड़ा है या सवार। इस प्रश्न का उत्तर इस जानकारी के आधार पर दिया जा सकता है कि घोड़े के मुँह में लगाम है या नहीं और यदि है तो सवार ने उसे अपने हाथ में थाम रखा है या नहीं यदि सवार के हाथ में लगाम है तो सवार बड़ा है और यदि घोड़ा छुट्टल है तो फिर उसी को सवार से बड़ा मानना पड़ेगा। एक बुढ़िया कौतूहल वश बैठे हुए ऊँट पर सवार हो गई। ऊँट बिना नकेल का था। बुढ़िया के पीठ पर बैठते ही वह उठकर खड़ा हो गया और मन-मर्जी की दिशा में चल दिया। बुढ़िया घबराने लगी पर बहु कुछ कर नहीं सकती थी। कूदने का साहस भी उसमें नहीं था। रास्ते में एक यात्री ने बुढ़िया से पूछा-माताजी इस घने जंगल की ओर अकेली क्यों जा रहीं हो। बुढ़िया ने उत्तर दिया बेटा, मैं कहीं नहीं जा रही यह ऊँट ही जहाँ इसकी मर्जी होगी ले जा रहा है।
मन की मस्तिष्क की बनावट ऐसी है कि ईमानदारी, सज्जनता, संयमशीलता, नियमितता, सुव्यवस्था का हलका-फुलका जीवन जिया जाय तो मनःसंस्थान अपना काम ठीक से करता रहता है। मानवी आदर्शों के अनुरूप गतिविधियाँ और उसी स्तर की उत्कृष्ट विचारणाएँ अपनाई जायँ तो मानसिक सन्तुलन बना रहता है और सामान्य परिस्थितियों में भी आनन्द उल्लास से भरा-पूरा जीवन जिया जा सकता है। विकृतियाँ तो अवाँछनीय गतिविधियाँ अपनाने और स्वार्थांध अनैतिक विचार पद्धति अपनाने से उत्पन्न होती हैं। यदि कुमार्ग पर चलने और अचिन्त्य चिन्तन से मस्तिष्क को भरे रहने की हानि को समझा जा सके तो इतने भर से अनायास ही ईश्वर प्रदत्त उस आनन्द और उत्कर्ष का लाभ मिल सकता है जिसके लिए जीवन और उसका महान संरक्षक यह मन हमें प्राप्त हुआ है।