विकृत चिन्तन-दुःखी जीवन

July 1979

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दुर्बल मनःस्थिति के लोग प्रायः अशुभ भविष्य की कल्पनायें करते रहते हैं। विपत्ति की, असफलता की आशंकाएँ ही उनके मन पर छाई रहती हैं। वे ऐसे कारणों को ढूँढ़ते और तर्कों को गढ़ते हैं जो भविष्य में किसी संकट के आगमन की पुष्टि कर सकें। असफलता का निराशाजनक चित्र खींच सकें। इन गढ़ी हुई तस्वीरों में मित्रों को आकृति शत्रु जैसी गढ़ दी जाती हैं। दूसरों की सामान्य गति विधियों में भी षड्यन्त्रों का जाल छिपा होता दिखाई देता है। यह अशुभ कल्पना चित्र किसी भयंकर दैत्य दानव से कम नहीं होते। कल्पित भूतों को आमन्त्रित करके कितने ही व्यक्ति स्व संकेतों के आधार पर बीमार पड़ते, डरते, घबराते, और जान गँवाते देखे जाते हैं। डरावनी आशंकाओं के दैत्य डरपोक मनुष्य पर दिन−रात छाये रहते हैं। विपत्ति की सम्भावना उन्हें दिन रात डराती रहती है। ऐसे मनुष्य भय से काँपते खिन्न रहते और सदा निराशा में डूबे ही दिखाई पड़ते हैं। ऐसी मनःस्थिति अपने आप में एक विपत्ति है वास्तविक विपत्ति के आने पर जितनी क्षति हो सकती थी, उससे भी कई गुनी हानि इस अशुभ चिन्तन की आदत से होती है। ऐसा व्यक्ति अपनी बहुमूल्य चिन्तन क्षमता का बहुत बड़ा भाग इसी भट्टी में झोंकता जलाता रहता है और कुछ महत्वपूर्ण सोच सकने की क्षमता गँवा बैठता है। जब देखो तब चिन्ताओं की काली घटाएँ ही उसके सिर पर छाई रहती हैं।

इस स्थिति को बदल सकना पूर्णतया अपने हाथ की बात है। कल्पनाएँ अपनी ही गढ़ी हुई तो होती हैं। उन्हें अपने ही चिन्तन तर्क और अनुमान के सहारे ही तो खड़ा किया जाता है। जो आशंका की गई थी जिस संभावना की कल्पना की गई थी, वह निश्चित रूप से होकर ही रहेगी यह नहीं कहा जा सकता। ऐसी दशा में यदि यह गठन विधेयात्मक स्तर का किया जाय तो क्या हर्ज है। भविष्य के उज्ज्वल होने, सफलताएँ मिलने की आशा भी बँध सकती है। उसके पक्ष में भी तर्क और तथ्य ढूँढ़े जा सकते हैं, जिनमें शत्रुता का भय सोचा गया था, उनके उदासीन रहने अथवा समयानुसार मित्र बन जाने की बात भी सर्वथा अशक्य ही नहीं होती। परिस्थितियाँ उलटती ओर तथ्य बदलते रहते हैं। आवश्यक नहीं कि अपना आज का भय कल उसी रूप में बना रहे। सम्भव है अपने सुधार प्रयत्न पूरी तरह सफल होकर रहें और सम्भव है समय के प्रवाह में अपने चिन्तन के प्रतिकूल अनायास ही सुखद सम्भावनाएँ विनिर्मित होने लगें। जब परिवर्तन एक तथ्य है तो निराशा के आशा में बदल जाने की सम्भावना को ही क्यों अस्वीकार किया जाय?

मस्तिष्क को चिन्तन की विधेयात्मक धारा अपनाने के लिए यदि प्रशिक्षित किया जा सके तो उतने भर से समृद्धि, सफलता, प्रसन्नता एवं उज्ज्वल भविष्य की उत्साह भरी आशा का आनन्द लिया जा सकता है। आँखों में चमकने वाली आशा, साहस बढ़ाती है और उपयोगी पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरणा देती है। निराशा में नष्ट होने वाली शक्ति को यदि आशा भरी सृजनात्मक स्थिति में प्रयुक्त किया जा सके तो इतने भर से मनोबल बढ़ने लगेगा और उस अभिवृद्धि से सहज ही ऐसी क्षमता विकसित हो सकेगी जिसके सहारे सचमुच ही उज्ज्वल भविष्य का सृजन हो सके।’

सूक्ष्म शरीर की मन-मस्तिष्क की सृजनात्मक शक्ति की विकसित करने की चेष्टा को एक महत्वपूर्ण साधना कहा जा सकता है। उसके अनगढ़ होने का प्रतिफल ही हमें इस अत्यन्त उपयोगी उपकरण के अनुदानों से वंचित किये रहता है। इस दिशा में थोड़ा ध्यान दिया जाय मस्तिष्क को अशुभ चिन्तन से विरत करके विधेयात्मक दिशा अपनाने के लिए सहमत अभ्यस्त किया जा सके तो यह जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि ही कही जायेगी। संसार के सफलता सम्पन्न महामानवों को सबसे प्रथम अपने चिन्तन को परिष्कृत किया है। इसी आधार पर उनकी गतिविधियाँ सुधरी। चिन्तन और कर्तृत्व इन्हीं दो पैरों के सहारे मनुष्य आगे बढ़ता। यदि वे विकृत स्तर के हों तो प्रगति पतन की दिशा में होगी और स्थिति दुखद एवं निराशाजनक बनती चली जायेगी।

वर्तमान उपलब्धियों का आनन्द लेने और जो हाथ में है उसका श्रेष्ठतम उपयोग करने की बात सोचते रहना बुद्धिमत्तापूर्ण है। मूर्खता इसमें है कि अपने से अधिक समृद्धों के साथ तुलना करते रह कर अकारण अपने ऊपर अभाव ग्रस्तता और दरिद्रता का अभिशाप लादा जाय। इस तरह सोचने पर तो बड़े से बड़ा सम्पन्न भी अपने को गरीब ही अनुभव करेगा। क्योंकि उससे भी बड़ा समृद्ध तो कोई न कोई अवश्य होगा। रावण, हिरण्यकश्यप सिकन्दर जैसे सम्पन्न व्यक्ति भी अपनी समृद्धि से कहाँ सन्तुष्ट हुए थे। दरिद्रता, धन की नहीं मन की होती है। अपने से अधिक अभावग्रस्तों के साथ तुलना करके हर मनुष्य अपने वर्तमान साधनों पर भी हर्ष, सन्तोष और गर्व अनुभव कर सकता है। इस प्रकार भूतकाल की सफलताओं का लेखा-जोखा एकत्रित कर लिया जाय तो प्रतीत होगा कि सौभाग्य ने कम साथ नहीं दिया है। असफलताओं और विपत्तियों की लिस्ट बनाने और उसी का बार-बार पाठ करने से दुर्भाग्य का देवता प्रसन्न होता है और सामने प्रकट होकर विश्वास दिलाता है कि मैं सदा से आपके साथ रहा हूँ और भविष्य में भी कभी साथ छोड़ने वाला नहीं हूँ। निषेधात्मक रीति से सोचने वाले ही दुर्भाग्य का रोना रोते पाये जाते हैं। इन अभावों को यदि विधेयात्मक चिन्तन की चमत्कारी शक्ति का ज्ञान होता तो आज की स्थिति में भी उन्हें हँसता-हँसाता पाया जाता, वे स्वयं प्रसन्न रहते और साथियों को प्रसन्नता का लाभ देते दृष्टिगोचर होते।

अधिक प्राप्त करने, आगे बढ़ने और ऊँचा उठने का उत्साह पूर्वक प्रयत्न करना प्रशंसनीय है। अग्रगमन सराहनीय है यह प्राणी का स्वाभाविक धर्म है। किन्तु जो उपलब्ध है उसे अपर्याप्त ही मानते रहा जाय तो वर्तमान को सर्वथा अभावपूर्ण ही मानते हुए दुःखित रहा जाय यह अनुचित है। इन राह पर चलने वाले को तो बड़ी से बड़ी उपलब्धियाँ भी सन्तुष्ट न कर सकेंगी। जो प्रस्तुत उपलब्धियों का आनन्द नहीं ले सके तो भविष्य में अधिक मिलने पर प्रसन्न या सन्तुष्ट हो सकेंगे इसकी आशा नहीं की जा सकती। उनके चिन्तन की विकृति सदा ही मानसिक दरिद्रता के शोक संताप में डुबाये रहेगी। संसार में सुखद बहुत कुछ है। सज्जनों की भी कमी नहीं। अपने साथ सदा अपकार ही अपकार होते रहे हों ऐसी बात नहीं। अनेकों के सहयोग और उपकार भी समय-समय पर मिलते रहे हैं। जिन्हें अपकारी या शत्रु समझते हैं उनने भी पिछले दिनों कई सहयोग किये होंगे। यदि उन बातों का स्मरण किया जा सके तो प्रतीत होगा इस संसार में मात्र दुष्टता ही नहीं भरी है। सज्जनता, सहयोग और उदारता के तत्व भी कम नहीं है। यदि उनको ढूँढ़ा जा सके तो सन्तोष की साँस ली सकती है। अपनी सज्जनता बढ़ाकर कृतज्ञता और सहकारिता को स्वभाव का अंग बनाकर हम संपर्क क्षेत्र के अधिकाँश व्यक्तियों की सज्जनता उभार सकते हैं और उस प्रयास के फलस्वरूप प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलते हुए देख सकते हैं।

आलस्य और प्रमाद के चंगुल में फँसा हुआ व्यक्ति अपनी तीन चौथाई शक्ति नष्ट कर डालता है यदि समय और श्रम का अपव्यय रोका जा सके तो प्रतीत होगा कि क्रिया शक्ति कई गुनी बढ़ गई। प्रमादवश आधे अधूरे मन से अन्यमनस्क रह कर उपेक्षा पूर्वक बेगार भुगतने की तरह काम किये जाते हैं। फलतः वे सभी काने, कुबड़े, त्रुटिपूर्ण एवं अस्त-व्यस्त रहते हैं। अधूरे शारीरिक और मानसिक श्रम से किये गये काम अपनी त्रुटिपूर्ण स्थिति के कारण ऐसे निराशाजनक रहते हैं कि उनकी अपेक्षा न करना अधिक उत्तम रहता। उन्हीं कार्यों की प्रशंसा होती है, वे ही लाभदायक होते हैं जिनमें तत्परता पूर्वक शारीरिक श्रम और तन्मयता पूर्वक मनोयोग लगाया जाता है इसी रीति से किये गये काम, कर्ता को गौरव बढ़ाते हैं और उसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य हथियाने का अवसर देते हैं। प्रगतिशील मनुष्यों के समुन्नत बनने का यह क्रम रहा है, उन्होंने अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को अस्तव्यस्त होने से बचाया है। आलस्य प्रमाद की अर्धमृतक स्थिति में अपने को नहीं फँसने दिया है। समझा जाता है कि शरीरगत दोष या रोग है पर वस्तुतः वह मन की ही तन्द्रित स्थिति है। शरीर पर मन का अधिकार है। मन के संकेतों पर ही उसकी समस्त गतिविधियाँ संचालित होती है। मन में उत्साह हो तो कोई कारण नहीं कि शरीर पर निष्क्रियता छाई रहे। आलस्य और प्रमाद की जोड़ी साथ-साथ चलती है। मन पर अवसाद छाया है तो शरीर में ही स्फूर्ति कैसे दृष्टिगोचर हो सकती है। कई बार रुग्ण और दुर्बल मनुष्य भी इतना काम कर गुजरते हैं कि आश्चर्य से दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। यह शरीर का नहीं मन की उभरी हुई स्थिति का ही चमत्कार होता है। आद्य शंकराचार्य रहते हुए भी 32 वर्ष जैसी स्वल्प आयु के मिलने पर भी इतना काम कर सके जितना दीर्घजीवी मनुष्य कई जन्मों में भी नहीं कर सकते। यह उनके शरीर का ही नहीं मन का ही कर्तृत्व था।

ईर्ष्या, द्वेष शोक-सन्ताप, क्रोध, आवेश, रोष की मानसिक उत्तेजना में उस मानसिक शक्ति का बुरी तरह विनाश होता है जो सृजनात्मक कार्यों में लगा दिये जाने पर असाधारण उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सकती थी। कहते हैं कि एक घंटे का क्रोध एक दिन के बुखार से अधिक शक्ति नष्ट करता है। कामुकता जैसी वासनायें मस्तिष्क को ऐसे चिन्तन में उलझायें रहती है जिसमें मिलता कुछ नहीं, गँवाना ही गँवाना हाथ लगता है। चिन्ता, निराशा भय, क्रोध, प्रतिशोध, द्वेष जैसे आवेश दोनों ही ज्वार-भाटों की तरह अवाँछनीय उद्वेग उत्पन्न करते है। इस जंजाल में मनुष्य को अपनी उस क्षमता को व्यर्थ नष्ट करना पड़ता है जो यदि सृजनात्मक दिशा में लगी होती तो चमत्कार उत्पन्न किया होता। प्रतिकूल परिस्थितियों में अवसाद और आवेश आता है यह ठीक है, पर यह तो अनगढ़ स्थिति हुई। परिष्कृत मनः स्थिति में इन आवेशों पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है। उत्तेजना पर नियन्त्रण करके उसे अर्ध उन्माद बनने से रोका जा सकता है। इस वचन को उस उपाय से लगाया जा सकता हैं जिससे प्रतिकूलताओं से जूझने के उपाय सोचने और उन्हें निरस्त करने के साधन जुटाना सम्भव हो सके। उद्विग्न रहने से प्रतिकूलतायें घटती नहीं बढ़ती हैं। उत्तेजित मस्तिष्क निवारण का मार्ग नहीं खोज सकता वरन् हड़बड़ी में ऐसे कदम उठा लेता है जो नई विपत्ति खड़ी करते हैं और प्रतिकूलता की हानि कई गुनी बढ़ जाती है। परिस्थिति जन्य प्रतिकूलता जितनी हानि पहुँचाती हैं उससे अधिक स्व निर्मित उद्विग्नता के कारण उत्पन्न होती है। इस तथ्य को यदि समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि मनो निग्रह की जीवन में कितनी बड़ी आवश्यकता है अनगढ़ मस्तिष्क इतनी अधिक विपत्ति उत्पन्न करता है जिसकी तुलना में परिस्थिति जन्य कठिनाइयों को स्वल्प ही कहा जा सकता है। मन की सूक्ष्म शरीर की साधना करके उन स्व निर्मित असन्तुलनों से बचा जा सकता है जो जीवन की संकटग्रस्त बनाने के बहुत बड़े कारण बने रहते हैं।

गुण, कर्म, स्वभाव का आधार शरीर में नहीं मन में जमा होता है। शरीर की बनावट से नहीं किसी का वास्तविक स्वरूप उसकी मनः स्थिति को देखकर ही जाना जा सकता है। शरीर की हरकतें हलचलें ही सर्व साधारण की जानकारी में आती है और कर्म के आधार पर ही किसी का मूल्याँकन किया जाता है पर गम्भीरता से विचार करने पर प्रतीत होगा कि बाह्य सफलतायें और सम्पदायें वस्तुतः आन्तरिक विभूतियों की प्रतिक्रिया पर है। मनः स्थिति ही परिस्थितियों का निर्माण करती है जो इस सारगर्भित तथ्य को जानते हैं वे भाग्य और भविष्य का निर्माण अपने हाथों करने के लिये तत्पर होते है। ऐसा शुभारम्भ मनः संस्थान का परिष्कृत नव-निर्माण करने का साधन संजोने के रूप में ही सम्पन्न होता है। सूक्ष्म शरीर की साधना नकद धर्म है। उसका प्रत्यक्ष परिणाम है हथेली पर सरसों जमाने की तरह तत्काल सत्परिणाम प्रस्तुत करते हुए देखा जा सकता है।


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