पूर्वजन्म के संचित संस्कार, विलक्षण प्रतिभा के उपहार.

July 1979

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जीवन की अविच्छिन्नता एक सचाई हैं नवीनतम वैज्ञानिक अन्वेषणों का भी निष्कर्ष यही है कि जीवन में निरन्तरता तो है ही; किन्तु वे यह मानते हैं कि जीवन-ऊर्जा का रूपांतरण होता रहता है। उनकी मान्यता है कि जीवन-कोशिकाएँ और मस्तिष्क के विभिन्न चेतन-प्रकोष्ठ प्राणी की मृत्यु के उपरान्त इधर-उधर बिखर जाते हैं, वे भूमि, जल, वनस्पतियों आदि में समाहित हो जाते हैं और बाद में आहर रूप में प्राणियों के भीतर रक्त-रस-मज्जा में घुल-मिलकर उनकी सन्तति में ‘सेल्स’, ‘जीन्स’, ‘प्रोटोप्लाज्म आदि के रूप में सक्रिय रहते हैं।

अनेक व्यक्तियों द्वारा पूर्वजन्म की स्मृतियों के प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किये जाने का विश्लेषण वैज्ञानिक इसी रूप में करते हैं कि इन व्यक्तियों में पूर्ववर्ती उस व्यक्ति के, चेतन-प्रकोष्ठ अभाव प्रोटोप्लाज्म का कोई अंश गर्भस्थिति में इनके निर्माण-काल में घुल-मिल जाता है, जिस व्यक्ति से सम्बद्ध प्रामाणिक विवरण, के बाद में बताते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले जन्म की कुछ खास घटनाओं का विवरण जो मस्तिष्क के किसी चेतन-प्रकोष्ठ में अंकित-सुरक्षित था, वही चेतन-प्रकोष्ठ भर नये प्राणी के भीतर आ गया है। पूर्ववर्ती व्यक्ति का सम्पूर्ण मनोजगत या आत्मा से जुड़े समूचे संस्कार-समूह नये शरीर में उसी पुरानी आत्मा के साथ स्वाभाविक रूप में आ गये हैं, ऐसा वैज्ञानिक अभी नहीं मानते। पूर्वजन्म की किन्हीं स्मृतियों की प्रामाणिक पुनः प्रस्तुति मात्र उनकी दृष्टि में उसी आत्मा द्वारा नया शरीर धारण करने का यथेष्ट प्रमाण नहीं है। वे यह मानते हैं कि घास-पात, पेड़-पौधे में मृत प्राणी के प्रोटोप्लाज्म के अंश घुल-मिल गये, वही अंश आहार द्वारा मनुष्य शरीर में पहुँचे और सन्तान में अभिव्यक्त हुए।

इन वैज्ञानिकों की इस परिकल्पना को यदि सही माना जाये तब यह प्रकट होता है किसी भी नयी सन्तान के व्यक्तित्व के निर्माण में आनुवंशिक विशेषताएँ ही सर्वप्रधान कारण होती हैं, हाँ, छुटपुट नयी विशेषताएँ अवश्य प्रोटोप्लाज्म आदि के रूप में सन्तान में प्रविष्ट हो सकती हैं। किन्तु उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व आनुवंशिक विशेषताओं को वाहक ‘जीन्स’ से ही गठित होता है। गुण-धर्म, स्वभाव आदि का निर्माण ये वंशानुगत ‘जीन्स’ ही करते हैं।

आनुवंशिक की ये स्थापनाएँ शारीरिक संरचना के क्षेत्र में तो अब तक पूरी तरह खरी उतरती रही हैं। सन्तान की नाक, कान, आँख, दाँत, मुँह, देह, व्यष्टि, अंग-उपांग एवं विभिन्न अवयवों की बनावट तो वंशानुगत विशिष्टताओं के ही किसी न किसी अनुपात में सम्मिश्रण का परिणाम होती है। किन्तु बुद्धि और भावना के क्षेत्र में ऐसी विलक्षणताएँ सन्ततियों में उभरती देखी-पाई गई हैं कि उनका आनुवंशिक से दूर का भी सम्बन्ध नहीं सिद्ध हो पाता और बड़ी दिमागी जोड़-तोड़ के बाद भी यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि आखिर अमुक व्यक्तियों की अमुक सन्तान में ये बौद्धिक भावनात्मक विशेषताएँ आई कहाँ से जो, न तो उसके माता-पिता के वंश में थी, न ही वातावरण में। उन विशेषताओं को प्रोटोप्लाज्म आदि के अंश की अभिव्यक्ति भी नहीं मान सकते, क्योंकि ऐसे लोगों में ये विलक्षणताएँ आँशिक रूप में नहीं होतीं, अपितु उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का ही वैसा गठन होता है। ऐसी स्थिति में यही मानने को बाध्य होना पड़ता है कि व्यक्तित्व की ये विशेषताएँ आनुवंशिक, पर्यावरण अभाव परिव्राजक प्रोटोप्लाज्म की कृपा नहीं, बल्कि उसी व्यक्ति द्वारा पिछले जन्म में अर्जित-वर्धित, संचित-सुरक्षित विशेषताएँ हैं, जो जन्मना ही उसमें उभर आई है।

अशिक्षा, अज्ञान और अभाव के वातावरण में अप्रतिम मेधावी, विद्वान, संगीतज्ञ, गणितज्ञ आदि का पैदा होना, श्रेष्ठ परम्पराओं और उत्कृष्ट वातावरण वाले परिवारों में दुर्गुणी-दुराचारी सन्तति का जन्म जैसी घटनाएँ आये दिन देखने को मिलती हैं। जिस देश, समाज और परिवार में चारों और माँसाहार एक सामान्य आहार अभ्यास के रूप में स्वीकृत हो वहाँ किसी अबोध बालक द्वारा माँस को छूने से भी अस्वीकार कर देना और पूर्ण सात्विक शाकाहारी भोजन पसन्द करना, क्रूरता के वातावरण में जन्मतः अथाह करुणा की प्रवृत्ति का पाया जाना आदि अनेक विचित्रताएँ देखने में आती रहती हैं, जो आनुवंशिक सम्बन्धी अथवा जीवात्मा के मरणोपरान्त बिखर जाने सम्बन्धी स्थापनाओं को खण्डित करती है तथा उसी आत्मा द्वारा नया शरीर धारण करने की पुष्टि करती प्रतीत होती है।

महान वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने ऐसी ही एक विलक्षण प्रतिभा की सामर्थ्य को देखकर उसे भावावेश में अपनी बाँहों में उठा लिया था और आनन्दातिरेक से बोल उठे थे-’किशोर! तुमने आज फिर एक बार इस विश्व में, ईश्वर के संचालक होने का विश्वास दिलाया है।”

उस प्रतिभाशाली किशोर का नाम था मेनुहिन। तब वह मात्र आठ वर्ष का था। पिछले दिनों उसे भारत में भी नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आज वह दुनियाँ का सर्वोत्कृष्ट वायलिन वादक है।

यहूदी मेनुहिन के माता-पिता में से कोई भी संगीतकार नहीं थे। वे स्कूल में साधारण शिक्षक थे। किन्तु मेनुहिन में बचपन से ही संगीत की विलक्षण सामर्थ्य थी। आठ वर्ष की ही आयु में उसने बीथोवेन, ब्राह्मस, बारव जैसे महानतम संगीतकारों की कठिन संगीत-रचनाओं को कुशलता से प्रस्तुत कर लोगों को चकित कर दिया था। सामान्य श्रोताओं की तो बात ही क्या श्रेष्ठ सगीतज्ञों और संगीत-समीक्षकों तक ने उसका वायलिन-वादन सुना तो विस्मय विमुग्ध हो गये।

तीन वर्ष के नन्हे मेनुहिन की वायलिन-वादन की सामर्थ्य विलक्षण ढंग से प्रकट हुई। उसके माता-पिता उसके लिये नकली वायलिन खेलने के लिये लाये। मेनुहिन ने उसे बजाया तो उसका संगीत उसे रुचिकर नहीं लगा। उसने वह खिलौना फेंक दिया और मचल गया। माना तब, जब माता-पिता ने असली वायलिन लाकर दिया। उसे पाते ही वह बालक उसी में लीन रहने लगा। उसकी दक्षता उभर आई। तब जाकर चार वर्ष की आयु में माता-पिता ने उसे संगीत-शिक्षा दिलानी शुरू की। उसकी विलक्षण गति एवं लगन से संगीत शिक्षक भी विस्मित हो उठता। छः वर्ष के मेनुहिन ने सेन्फ्राँसिस्को में हजारों श्रोताओं के सामने एक श्रेष्ठ संगीत-रचना प्रस्तुत की। अगले दिन अमरीकी अखबार उसकी प्रशंसा से भरे थे।

यद्यपि बाद में मेनुहिन ने श्रेष्ठ संगीत-शिक्षकों से संगीत की शिक्षा ग्रहण की, तथापि उसके प्रत्येक शिक्षक ने यह कहा कि हमने इसे सिर्फ सिखाया ही नहीं, इससे बहुत कुछ सीखा भी है।

टोस्कानिनी जैसे विश्वविख्यात संगीत- संचालकों ने उसे अलौकिक वायलिन वादक कहा। विश्व के अनेक शीर्षस्थ कलाकारों, वैज्ञानिकों, राजनेताओं, लेखकों संगीतज्ञों ने उसकी एक स्वर से प्रशंसा की है और उसकी जन्मजात विलक्षण सामर्थ्य को ईश्वरीय वरदान कहा है। स्पष्ट है कि मेनुहिन की यह क्षमता आनुवंशिक विशेषता नहीं है। यह उसके पूर्व-संचित संस्कारों का, पिछले जन्म की प्रगति का ही प्रतिफल हो सकता है।

महान गणितज्ञ जानकार्ल फ्रेडरिक गाँस भी ऐसा ही अनुपम प्रतिभाशाली था। 30 अप्रैल 1977 को जर्मनी के ब्रन्सविक शहर में उत्पन्न गाँस के पिता किसान थे और गरीब थे। छोटी-मोटी ठेकेदारी भी करते थे तीन साल की ही आयु में उसने एक दिन मजदूरों का हिसाब कर रहे पिता की गलती पकड़ ली थी और उसे सुधार दिया था। नौ वर्ष की आयु में उसने कक्षा में अध्यापक को उस समय चमत्कृत कर दिया, जब गणित का लम्बा प्रश्न बोर्ड पर लिखकर जैसे ही अध्यापक रुके, गाँस ने उस कठिन प्रश्न का सही उत्तर प्रस्तुत कर दिया।

14 वर्ष की आयु में उसकी चारों ओर प्रसिद्धि फैली। ब्रन्सविक के राजा ने उसे अपने दरबार में बुलाया, जहाँ उसने अपनी गणित विद्या की धाक जमाई। 19 वर्ष की आयु में उसने यूक्लीडियन सूत्रों में एक मूलभूत संशोधन प्रस्तुत किया कि सत्रह समान भुजाओं की आकृति को परकार तथा सीधी रेखाओं द्वारा भी बनाया जा सकता है 22 वर्ष की आयु में उसने अपनी ‘थीसिस’ में “फन्डामेन्टल थ्योरम आफ अलजब्रा” नामक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। 25 वर्ष की उम्र में उसने “आँकिक सिद्धान्त” ग्रन्थ रचा, जिसने गणितीय विश्व में तहलका मचा दिया।

चलते-फिरते ज्ञान-कोश, अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी अनेक विलक्षण व्यक्ति आये दिन देखने को मिलते हैं। इनके माता-पिता के वंश में अथवा वातावरण में इनमें से कोई भी विशेषताएँ विद्यमान नहीं पाई जातीं। ऐसी स्थिति में यही मानना पड़ता है कि उनकी यह विभूति स्वयं उनके द्वारा पूर्वजन्म में अर्जित क्षमताओं का सत्परिणाम है।

बौद्धिक-सामर्थ्यों की विलक्षणता की ही तरह स्वभाव एवं संस्कारों की, भावनात्मक विलक्षणताएँ भी देखी जाती हैं जार्ज बर्नार्डशा के कुल में सभी माँसाहारी थे। समाज में भी माँसाहार का ही प्रचलन था। किन्तु वे बचपन से ही शाकाहारी थे। देशभक्त परिवारों में देशद्रोही तथा दुराचार-रत परिवारों में सज्जन-साधु व्यक्तियों का जन्म लेना भी संस्कारों की दृष्टि से वंशानुक्रम एवं वातावरण से विलक्षणता ही है।

बुद्धि, भावना और गुण-स्वभाव की ये विलक्षणताएँ जो आनुवांशिकता तथा पर्यावरण के प्रभावों से सर्वथा भिन्न होती हैं, सम्बद्ध व्यक्ति के स्वतः अर्जित संस्कार एवं सामर्थ्य का ही परिणाम मानी जा सकती है। इन प्रत्यक्ष उदाहरणों से यही तथ्य उभरता है कि शरीरनाश के साथ ही मानव-जीवन का अन्त नहीं हो जाता न ही यह बिखर कर टुकड़े-टुकड़े होकर नदी, पर्वत, मैदान, वृक्ष, वनस्पति आदि में समाहित हो जाता, अपितु आत्मा का अस्तित्व शरीर-त्याग के बाद भी बना रहता है और उससे जुड़े संस्कार-समूह जन्म-जन्माँतर तक धारावाहिकता के साथ गतिशील रहते हैं। प्रगति पथ पर बढ़ते रहा जाय, तो उसके सत्परिणाम इस जीवन में ही नहीं अगले जीवन में भी मिलते हैं। इस तथ्य को समझ लिया जाय तो आत्मिक विकास में कभी भी आलस्य-प्रमाद की मनोवृत्ति नहीं उभर-पनप पायेगी। ‘जब जागे तभी सबेरा’ की तरह, कितने ही विलम्ब से श्रेष्ठता की दिशा में कदम बढ़ाया जाय, तो भी उसमें निराशा की कोई बात नहीं। साथ ही, एक क्षण भी अनौचित्य-अनाचार में लगाया गया, तो उसका भी परिणाम अवश्य होगा। अतः उस दृष्टि से रत्ती-भर भी लापरवाही हानिकर सिद्ध होगी और प्रत्येक गलती को सुधारने की आवश्यकता बनी रहेगी। इतना तो सत्कर्म कर लिया, अब जीवन का जो अंश बचा है, उसमें जरा मनमानी कर लें, मौज-मजे ले लें यह भावना भी पुनर्जन्म के मानने वाले में कभी नहीं आ सकती। यौवन के उभार में आदर्शोन्मुखता और प्रौढ़ावस्था में भोग-परायणता के जो दृश्य सामाजिक-राजनैतिक जीवन में देखे जाते हैं, वे जीवन की संकीर्ण धारणा का ही परिणाम है। पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझने वाला तो अन्तिम क्षण तक श्रेयस् पथ पर ही चलता रहेगा। बुढ़ापे में पढ़कर साधना-स्वाध्याय कर या संयम-उपासना-सेवा क पथ अपनाकर भी क्या होगा, अब तो थोड़े दिनों का खेल है, चाहे जैसे दिन काटने हैं, यह भावना पुनर्जन्म पर सच्ची आस्था रखने वाले में नहीं आ सकती। उसके लिये तो जीवन का प्रत्येक क्षण और प्रत्येक कार्य महत्वपूर्ण है। क्योंकि उसका परिणाम अवश्यम्भावी है।

सभी धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते रहे हैं। हिन्दू धर्म में तो उसे सुस्पष्ट-सुनिश्चित मान्यता प्राप्त है ही। इस्लाम और ईसाई भी प्रलय-उपरान्त जीवों के पुनः जागृत एवं सक्रिय होने की बात कहते हैं। जो पुनर्जन्म का ही एक विचित्र एवं विलम्बित रूप है। ईसा मसीह तो तीन दिन बाद ही पुनः जीवित हो उठे थे, ऐसा कहा जाता है।

परामनोविज्ञान के अनेक अनुसंधानों ने पुनर्जन्म की वास्तविकता को प्रमाणित किया है। अगले दिनों सघन वैज्ञानिक प्रयास इस दिशा में और अधिक प्रगति कर सकेंगे, ऐसा विश्वास किया जाता है।


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