एकाकी और सामूहिक प्रयत्नों की सफलता के स्तर में भारी अन्तर रहता है। अलग-अलग रहकर दस आदमी अलग प्रयत्नों से जितना काम कर सकते हैं उनकी तुलना में उन दसों का संयुक्त प्रयत्न कहीं अधिक परिणाम उत्पन्न करेगा। अलग-अलग रहकर सींकें उतनी सफाई नहीं कर सकतीं जितनी कि उन्हें मिलाकर बनने वाली बुहारी द्वारा संभव होती है। ठीक इसी प्रकार अलग-अलग की जाने वाली उपासना व्यक्ति एवं वातावरण को परिष्कृत करने में जितनी उपयोगी सिद्ध होती है उसकी तुलना में एक संकल्प सूत्र में आबद्ध होकर एक तत्त्वावधान की गई साधना का प्रभाव कहीं अधिक होता है। सामूहिक प्रयास, सत्संग, कथा, कीर्तन, यज्ञानुष्ठान, परिक्रमा, तीर्थ यात्रा आदि की क्षमता सामान्य गणना की तुलना में कहीं अधिक होती है।
शब्द शक्ति का संयुक्त समावेश कितना प्रभावी होता है इसका एक प्रमाण तब मिलता है जब किसी भारी वजन को ऊपर उठाने या आगे धकेलने के लिए मजूर लोग एक नारा लगाकर, एक साथ अपनी सामर्थ्य को केन्द्रित करते हैं। प्रातः सायं मंदिरों में होने वाली आरती, विद्यार्थियों की सामूहिक प्रार्थना में भी यही विशेषता रहती है कि संयुक्त मन, संयुक्त भाव प्रवाह से उत्पन्न शब्द शक्ति उच्चारण कर्ताओं से लेकर अन्य असंख्यों के समग्र वातावरण को प्रभावित करने में विशेष रूप से फलप्रद होती है।
ध्वनि शक्ति के संदर्भ में जो शोध कार्य वैज्ञानिक क्षेत्रों में चल रहा है उससे सामूहिक उच्चारण की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में नये तथ्य सामने आये है। एक निष्कर्ष यह निकला है कि संसार के 50 प्रतिशत व्यक्ति भी यदि सक्रिय हों तो वे शब्दों तथा ध्वनियों द्वारा 3 घंटे में छः हजार खरब वाट विद्युत शक्ति पैदा करते है, जो भारत में पैदा की जाने वाली कुल ऊर्जा से 8 गुना ज्यादा है। सम्पूर्ण विश्व में इस ऊर्जा से घण्टों प्रकाश किया जा सकता है।
साधारणतया वाणी का उपयोग बातचीत के एवं जानकारियों के आदान-प्रदान हेतु ही होता है। यह उसका अति स्थूल प्रयोग हैं शब्द की सूक्ष्म शक्ति और उसके उपयोग की विधि को जाना जा सके तो उससे जितने गुना लाभ आमतौर से उठाया जाता है, उससे असंख्य गुना उठाया जाना सम्भव हो कसता है।
शब्द के साथ जुड़ा विद्युत प्रवाह कितना प्रचंड है इसे पदार्थ विज्ञानवेत्ता जानते है और उसी ज्ञान के आधार पर रेडियो, टेलीविजन, रैडार आदि यंत्रों का निर्माण करते है। आज इसी शब्द शक्ति के आधार पर शरीर की विभिन्न गहरे पर्तों में छुपी व्याधियों का निदान भी सम्भव है। इकोएनसेफेलोग्राफ द्वारा प्रतिध्वनि प्राप्त कर मस्तिष्क को बीमारियों का पता लगाया जा सकता है तो उसी तरह इकोकार्डियोग्राफ द्वारा हृदय की व्याधियों का। आवाज मुँह से निकलने वाली ‘हवा’ मात्र ही नहीं है। वह एक शक्तिशाली ऊर्जा (एनर्जी) की तरह है।
उच्चारित शब्द कान व त्वचा पर सीधा प्रभाव डालते हैं। कान एक प्रकार का माइक्रोफोन है जिसमें 02 से 20,000 आवृत्तियों का प्रवेश होते ही एक धारा प्रवाहित होने लगती है। सीधे मस्तिष्क तक पहुंचकर यह शरीर के सभी भागों एवं ग्रंथियों को क्रियाशील बना देती है। मनुष्य के शरीर, विचारणा एवं भाव स्थिति की विविध क्षमताओं का समन्वय करने से विद्युत प्रवाह प्रस्तुत होता है; उसकी क्षमता को अध्यात्म तत्त्ववेत्ताओं ने समझा है और उसी आधार पर मंत्रविद्या का आविष्कार किया है।
उच्चारित शब्दों का श्रोता के मस्तिष्क पर दो तरह से प्रभाव पड़ता है। पहला मुख से शब्द निकलने के पूर्व वक्ता के मस्तिष्क से कुछ उसी प्रकार की विद्युत-चुम्बकीय लहरें निकलती है जिन्हें श्रोता का मस्तिष्क ग्रहण करने का प्रयत्न करता है। दूसरा-उच्चारित शब्द वायुकंपनों के माध्यम से विद्युत संचार के रूप में कर्णरंध्रों से होते हुए मस्तिष्क तक पहुंचकर विभिन्न आवेग उत्पन्न करते हैं। अपमान सूचक शब्द कहने से दूसरों को किस तरह क्रोध आता है एवं फलस्वरूप अनर्थ होता है- इसका उदाहरण द्रौपदी के थोड़े शब्दों से महाभारत का हो जाना है। दुखद शोकसंताप की घटना सुनकर कैसा बुरा हाल हो जाता है। शब्दों की भावोत्तेजक क्षमता स्पष्ट है। भावनाओं को उभारने तथा तरंगित करने का काम संगीत कितनी अच्छी तरह करता है, यह सर्वविदित है।
मंत्रविज्ञान द्वारा समस्त सूक्ष्म जगत को प्रभावित करना संभव है। सितार के तारों पर क्रमबद्ध उंगलियां रखने से जिस तरह विभिन्न प्रकार की स्वर लहरियां निकलती हैं उसी प्रकार शब्दों के एक उच्चारण का एक लयबद्ध क्रम रहने से उसमें भी विशेष प्रकार के, विशेष शक्तिशाली कंपन उत्पन्न होते हैं। मंत्रों के अक्षरों के क्रम तथा उनके उच्चारण की विशेष विधि-व्यवस्था का ही अधिक महत्व है। कंठ, तालु, दांत, होठ, मूर्धा आदि जिन स्थानों से शब्दोच्चारण होता है उनका सीधा संबंध मानव शरीर के सूक्ष्म संस्थानों से है। षट्चक्र, उपात्मक एवं दिव्य नाड़ियों, ग्रंथियों का सूक्ष्म संस्थान है, जिनसे हमारे मुखयंत्र के तार जुड़े हुए हैं। जब मंत्र गुंफनों का प्रभाव उक्त संस्थानों पर पड़ता है तब एक अतिरिक्त शक्ति तरंगों का प्रवाह चल पड़ता है। जो मंत्रविज्ञानी को लाभान्वित करता है, उसकी प्रसुप्त क्षमताओं को जगाता है। जब वे कंपन बाहर निकलते हैं तो वातावरण को प्रभावित करते हैं। ये कंपन सूक्ष्म जगत में अभीष्ट परिस्थितियों का सृजन करते हैं और व्यक्ति विशेष को प्रभावित करना हो तो उस पर भी असर डालते हैं।
भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रंथों में शब्दों की इन्हीं प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर विविध शब्द प्रक्रियाओं का विधान किया गया है। आज के वैज्ञानिक युग में यह सब मनोवैज्ञानिक युद्ध यानी ‘‘सायकोलॉजीकल वार’’ या (स्नायविक युद्ध) के अंतर्गत आता है।
इसी शब्द शक्ति का उपयोग करके पिछले दिनों कनाडा के उत्तरी भाग में हजारों वर्गमील के क्षेत्र में सोवियत रूस द्वारा रोगवर्धक तरंगें फैलायी गयी थीं। जिनसे वहां के निवासियों में चिड़चिड़ापन, मानसिक तनाव, डिप्रेशन आत्महत्या की प्रवृत्ति देखने में आयीं। विश्लेषण करने पर मालूम हुआ कि किसी स्थान विशेष से तरंगें छोड़ी जा रही हैं जो कहीं निश्चित आवृत्तियों में होने से मानसिक क्षमताओं पर ऐसा प्रभाव छोड़ रही हैं। इस तरह शब्द शक्ति का दुरुपयोग कर ‘साउण्ड वार’ भी आरंभ हो गया है। दूसरी ओर चिकित्सकों ने ध्वनिविज्ञान का सहारा लेकर ‘साउण्ड थेरेपी’ नामक एक नयी ही चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है जिससे शरीर के विभिन्न भागों में दर्द आदि कष्टों का इलाज किया जाता है। ध्वनि के कंपनों द्वारा परमाणु को सूक्ष्मतम भागों में विभाजित करना अब संभव है। इन सबके मूल में हमारे ऋषि मनीषियों द्वारा प्रतिपादित मंत्रशक्ति है जिसमें ध्वनि विज्ञान का आश्रय लेकर सूक्ष्म संस्थानों व वातावरण को प्रभावित किया जाता है।
पाश्चात्य देशों में शब्द-शक्ति के रूप को सम्मोहन (हिप्नोटिज्म) और आत्म परामर्श (आटो सजेशन) की संज्ञा प्रदान की गई है। प्रसिद्ध रूसी मनोवैज्ञानिक आई.पी. पावलोव ने शब्दों को अत्यंत शक्तिशाली अनुकूलित प्रतिवर्त्त (उत्तेजक) ‘कण्डीशन्ड रिफ्लेक्स’ की संज्ञा दी है। शब्द-शक्ति पर पावलोव ने विशद कार्य किया है, जो विश्व प्रसिद्ध है। शब्द-शक्ति का महत्व वैज्ञानिक जानते हैं व उसे अब उपयोग में भी लाने लगे हैं। यदि यह सब संभव है तो मंत्र-विद्या की सामर्थ्य को समझकर हम उसका समुचित उपयोग कर भौतिक उन्नति से कम नहीं बल्कि कई गुनी अधिक लाभदायक आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त कर सकते हैं।
यह शब्द-शक्ति तब और भी अधिक प्रखर हो उठती है जब उसका भावनात्मक तारतम्य एवं उच्चारण का प्रवाह सामूहिकता को अपनाले। वेद-मंत्रों को सामगान के स्वर क्रम में गाने वाले उद्गात अपने उपक्रम से चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करते हैं। यज्ञानुष्ठानों में भी यही शब्द सहकार एक महत्वपूर्ण तथ्य होता है और उसका प्रभाव भी असाधारण ही होता है।