अपनों से अपनी बात - शक्ति पीठों का निर्माण और प्रव्रज्या का अभिवर्धन साथ-साथ

July 1979

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इन दिनों युगनिर्माण परिवार के समर्थ संगठनों में गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण का कार्य सघन भाव श्रद्धा एवं परिपूर्ण तत्परता के साथ चल रहा है। बसन्त पर्व पर इन निर्माणों की संख्या चौबीस घोषित की गई थी। वह प्रथम चरण कब का पूरा हो गया। इन दिनों पचास का अंक पार हो चुका और 108 की परिधि में प्रायः निर्माण प्रयासों की श्रृंखला चल रही हैं। भारत में प्रायः 400 जिले है। किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि अगले दिनों इतनी ही संख्या में इन धर्म संस्थानों को भी कार्यरत देखा जा सके।

धर्म तंत्र की उपयोगिता शासन तंत्र से कम नहीं। भौतिक प्रगति अपेक्षित है। किन्तु आन्तरिक उत्कृष्टता के बिना तो बढ़ी हुई सम्पन्नता भी विपत्ति और विनाश के विग्रह ही खड़े करती है। बहिरंग संपन्नता है, पर अंतरंग की भी सुसंस्कारिता कम महत्व की नहीं है शासन व्यवस्था बनाने और सम्पन्नता बढ़ाने का कार्य हाथ में लेना है तो धर्म की उत्कृष्टता के अभिवर्द्धन का उत्तरदायित्व संभालना चाहिए। दोनों का कार्यक्षेत्र तो अलग है पर दोनों परस्पर मिलजुल कर मानवी गरिमा के उभय पक्षीय प्रयोजनों को पूरा कर सकते हैं। शासन की तरह ही धर्म को भी समर्थ होना चाहिए। दोनों अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहकर एक दूसरे के सहायक और पूरक बन सकते हैं। युग सृजन से जन मानस का परिष्कार ही प्रधान कार्यक्रम हैं। यह समृद्धि संवर्धन की तरह महत्वपूर्ण है। सुगठित धर्म संस्थानों के रूप में गायत्री शक्ति पीठों का निर्माण हो रहा है। आवश्यकता को देखते हुए उनकी संख्या का विस्तार होना उज्ज्वल भविष्य का शुभ लक्षण है।

असमंजस का एक ही कारण हो सकता है कि धर्म संस्थानों की देवालयों की वर्तमान दुर्गति और सडांद को देखते हुए विचारशील वर्ग चौंके और यह आशंका करे कि प्रतिगामिता की नई यह नई हवेलियाँ तो नई बन रही हैं। ऐसा सोचना उचित भी है। देश में हजारों बड़े और लाखों छोटे मन्दिर बने हुए हैं। इनकी गतिविधि भी और उपलब्धियों का पर्यवेक्षण करने पर निराशा ही हाथ लगती है। प्रतिमा पूजन में इतनी जनशक्ति और धनशक्ति लगना किन्तु उत्कृष्टता के संवर्धन में उनसे कुछ भी योग दान न मिलना-रचनात्मक प्रवृत्तियों के लिए इन समर्थ साधनों का कुछ भी उपयोग न होना निश्चय ही निराशाजनक है। बहुत बार तो निहित स्वार्थों द्वारा इन देवालयों की आड़ में जो विकृतियाँ उगाई जाती है उनसे अश्रद्धा ही नहीं बढ़ती उत्तेजना भी उत्पन्न होती है। विचार शील वर्ग की देवालयों के प्रति अवज्ञा से हर कोई परिचित है ऐसी दशा में गायत्री शक्ति पीठों को सरसरी दृष्टि से देखने वालों को अप्रसन्नता ही हो सकती है।

तथ्य को निकट से देखने पर यह आशंका सहज ही तिरोहित हो जाती हैं। शक्तिपीठों के निर्माण की योजना का सूत्र संचालन जिस केन्द्र से होता है वहाँ दूरदर्शिता और उपयोगिता को पूरी तरह ध्यान में रखा जाता है। धर्म संस्थान किस रूप में अपने महान् उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं इसके प्रयोग परीक्षण का अवसर प्रस्तुत करना इस निर्माण का उद्देश्य है। इस प्रयोग की सफलता से लोक मत का दबाव बढ़ेगा कि देवस्थानों में लगे हुए साधनों का उपयोग इसी स्तर पर किया जाय। इससे चिन्तन को दिशा मिलेगी। धर्म संस्थानों को अपनी गतिविधियों पर नये सिरे से विचार करना होगा और उनके पुनर्निर्धारण के लिए विवश होना होगा। तुलनात्मक अध्ययन के लिए जो अवसर चाहिये उसे यह शक्ति पीठें प्रस्तुत कर सकेगी ऐसा विश्वास किया जा सकता है। यदि हो सके तो यह एक बड़ी क्रान्ति होगी। धर्म के निमित्त लगने वाली धनशक्ति, धर्मशक्ति, बुद्धिशक्ति और भावशक्ति को यदि सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन की ओर मोड़ा जा सके तो यह ऐसा हो चमत्कार होगा जैसा कि बाढ़ से भूमि और फसल को नष्ट करने वाली नदियों पर बाँध बना कर नहरें निकालना और बिजली घर बनाना। धर्म तन्त्र की अस्तव्यस्तता की व्यवस्था में प्रतिगामिता को प्रगति शीलता में बदलने का यह अभिनव प्रयास है जिनसे धर्म संस्थान बनाने की मूल भावना का प्रत्यक्ष स्वरूप देखा जा सकता हैं।

धर्म तत्व को यदि इस बुद्धिवादी युग में अपना अस्तित्व बनाये रहने और सम्मान पाने की इच्छा हो तो उसे अपनी सृजनात्मक शक्ति का परिचय देना होगा। अन्यथा समय की दौड़ में पिछड़ने वाले प्राणी जिस प्रकार अपना अस्तित्व गँवा बैठे ठीक उसी तरह धर्म के प्रति बढ़ती हुई उपेक्षा अन्ततः उसे अवाँछनीय घोषित करके ही रहेगी शक्तिपीठों का सृजन, धर्म प्रचार की विडम्बना से एक कदम आगे बढ़कर धर्म तन्त्र का व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत करने वाले पुनीत संस्थानों के रूप में हो रहा है। देखने में वे वर्तमान देवालयों से ही मिलते जुलते प्रतीत होंगे। प्रतिमाओं की पूजा आरती का सनातन उपक्रम देखकर अनुमान यही लगाया जायगा कि मन्दिरों में बिरादरियों में यह और एक नये सम्प्रदाय का जन्म है। किन्तु यह असमंजस आक्षेप देर तक टिक नहीं सकेगा। वस्तु स्थिति समझने का अवसर मिलते ही प्रतीत होगा कि आकृति मिलती जुलती होने पर भी प्रकृति में जमीन आसमान जैसा अन्तर है। अपनी उत्कृष्टता और उपयोगिता सिद्ध करके शक्तिपीठ धर्म तन्त्र के प्रति बढ़ती हुई अश्रद्धा को रोकने और श्रद्धा सम्वर्धन का प्रयोजन पूरा करने में भली प्रकार समर्थ हो सके। यह सच्चाई कुछ ही दिनों में सामने आ खड़ी होगी।

प्रत्येक शक्तिपीठ में गायत्री के नौ शब्दों की प्रतीक नौ प्रतिमाओं की - नौ देवियों की प्रतिष्ठापना होगी।’ इन्हें व्यक्तिगत जीवन में नौ सत्प्रवृत्तियां और सामाजिक जीवन में नीति मर्यादाएँ कहा जा कसता है। हर दर्शनार्थी को एक प्रशिक्षित ‘गाइड’ इनका परिचय देते हुए वैयक्तिक उत्कर्ष के लिये आवश्यक नौ सद्गुणों की और समाज विकास के लिये अभीष्ट नौ रीति-नीतियों का महत्व एवं उपयोग समझाता रहेगा। हर देव दर्शन को आने वाले हर व्यक्ति को कुछ न कुछ नई प्रेरणा लेकर ही वापिस जाते देखा जा सकेगा। जिनके पास समय होगा वे देवालयों में बैठकर साधन का- साथ ही स्वाध्याय का लाभ लेते रह सकेंगे। पुस्तकालय ज्ञान मन्दिर के रूप में हर शक्तिपीठ का अविच्छिन्न अंग रहेगा। दर्शनार्थी घर ले जाकर पढ़ने और वापिस करने की शर्त पर बहुमूल्य युग साहित्य यहाँ से ले जाया करेंगे और इस सूत्र के सहारे जन मानस के परिष्कार का-विचार क्रांति का एक सीमा तक उद्देश्य पूरा किया करेंगे।

शक्तिपीठों में देवता के सम्मुख पैसा चढ़ाने का निषेध रहेगा। यह परम्परा प्राचीन काल में जिस भी उद्देश्य से चलाई गई हो आज वह अनेकानेक विकृतियों के निहित स्वार्थों के परिपोषण का केन्द्र बिन्दु बन गई है। देवता के सामने पैसा चढ़ाना आवश्यक नहीं। प्रतीक रूप में पुष्प अक्षत चढ़ाये जा सकते है। यह न होने पर एक चमची जल, पाद्य, अर्घ के निमित्त चढ़ा देने से काम चल सकता है। देव स्थानों में धनी निर्धन का जो भेद-भाव बरता जाता है। देवता का अनुग्रह पाने को पैसे को निमित्त बनाने के प्रचलन का उसी प्रकार अन्त होगा। शक्तिपीठों में कहीं भी देव प्रतिमा के संमुख पैसा न चढ़ेगा। कोई कुछ देना ही चाहेगा तो उसे तुरन्त उतने ही मूल्य का सस्ता युग साहित्य दे दिया जायगा जिससे वे स्वयं लाभ उठाने और दूसरों तक उसका आलोक पहुँचाने में समर्थ हो सकें।

हर शक्तिपीठ में पाँच परिव्राजकों की एक टीम रहेगी। एक देवालय की व्यवस्था सम्भालेगा। दो-दो की दो टोलियों में शेष चार परिव्राजक समीपवर्ती क्षेत्रों में संपर्क स्थापित करने जाया करेंगे। एक दिन में एक गाँव हो सके इस दृष्टि से एक महीने में तीस गाँवों का शक्तिपीठ मण्डल बनाने का विचार किया गया है, एक टोली हो तो महीने में एक दिन दो टोलियाँ हों तो महीने में दो बार उन गाँवों में जाने का अवसर मिलेगा। दिन में जन संपर्क रात्रि में प्रवचन का क्रम चलेगा। प्रयत्न यह होगा कि गाँव के उपयोगी वर्ग से इस अवसर पर संपर्क साधा, और सघन बनाया जाए। अनेकों रचनात्मक प्रवृत्तियों का बीजारोपण एवं परिपोषण ही इस संपर्क का एकमात्र उद्देश्य होगा। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रांति के लिये जिन स्थापनाओं की जिन उन्मूलनों की आवश्यकता है उन सबको संपर्क योजना में सम्मिलित रखा गया है। जहाँ जिसके लिये जिस प्रकार अवसर होगा वहाँ उसी प्रकार प्रगतिक्रम आगे बढ़ाया जायगा संक्षेप में भौतिक एवं आत्मिक सत्प्रवृत्तियों की दृष्टि से आवश्यक सभी रचनात्मक योजनाओं को इसमें सम्मिलित रखा गया है।

नव-निर्माण के लिये स्थान सम्बन्धी व्यवस्था का प्रयोजन शक्तिपीठों की इमारत से सम्पन्न होगा। उस छाया में बैठकर सम्बद्ध मण्डल क्षेत्र को सुविकसित करने का उपयोगी निर्धारण और कार्यान्वयन उसी केन्द्र से होता रहेगा। इस सक्रियता का उभार न तो उभारते बन सकता है-न प्रतिमा से और न साधन सुविधा से। यदि इतने से ही काम चल गया होता तो वर्तमान हजारों लाखों मन्दिरों से न जाने सर्वतोमुखी प्रगति से कितनी बड़ी सहायता मिली होती। समर्थ गुरु के महावीर मन्दिर-सिख धर्म के गुरुद्वारे-बौद्धों के विहार-जनों के चैत्य, साधुओं के मठ, वानप्रस्थों के आरण्यक, जिस उद्देश्य से बने थे यदि वही परम्परा प्रस्तुत देवालयों में भी प्रवेश कर सकी होती तो सचमुच वे धर्म और अध्यात्म की भारी सेवा कर सकने में समर्थ हो गये होते। किन्तु वैसा कुछ भी न हो सका इसका एक ही कारण है कि इन देवालयों में राम कृष्ण परमहंस परम्परा के पुजारियों का प्रबन्ध न हो सका। शक्तिपीठों में पाँच प्रशिक्षित एवं परखे हुए परिव्राजकों की नियुक्ति के पीछे एक ही उद्देश्य है कि वे इन धर्म संस्थानों को अपने व्यक्तित्व एवं श्रम से कल्पवृक्ष की तरह चन्दन वृक्ष की तरह हर दृष्टि से सार्थक सिद्ध कर सके।

रजत जयन्ती वर्ष से प्रव्रज्या अभियान को सुनियोजित गति दी गई है। वानप्रस्थ- तीर्थ यात्रा-लोक शिक्षण, समय दान, धर्म प्रचार, पर्यटन जैसे अनेक उपयोगी तत्वों को मिला कर ‘प्रव्रज्या’ अभियान का सुव्यवस्थित रूप दिया गया है। जागृत आत्माओं को युग सृजन के लिए समय दान करने के लिये प्रेरणा दी गई है। वह बहुत हद तक सफल भी रही है। परिव्राजकों का एक बड़े वर्ग का पंजीकरण हुआ है। उन्हें थोड़े-थोड़े समय के लिये प्रशिक्षण देकर गत वर्ष महापुरश्चरण योजना के अंतर्गत सम्पन्न हुए युगनिर्माण सम्मेलनों में योगदान करने के लिए पन्द्रह-पन्द्रह दिन के लिए हजारों स्थानों पर भेजा गया है। जन संपर्क और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन का रचनात्मक सामने हैं। बुरे संपर्क की- कुसंग की दुष्परिणामों की हानियाँ सर्व विदित हैं। सत्संपर्क एवं सत्संग का सत्परिणाम भी कम प्रभावी नहीं होता है।

पाप से पुण्य की-दैत्य से देव की-ध्वंस से सृजन की-शक्ति निश्चित रूप से अत्याधिक है। प्राचीनकाल में सन्त परम्परा ने जन संपर्क के अनेकानेक उपाय अपनाकर लोक मानस में धर्म धारणा की फसल उगाई और गरिमा भरी रत्न राशि उगाई थी। आज भी भावनात्मक सृजन के लिए उन्हीं प्रयत्नों का पुनर्निर्धारण आवश्यक है। मात्र राजनैतिक और आर्थिक सुधार ही पर्याप्त नहीं। भौतिक समृद्धि ही सब कुछ नहीं है। व्यक्तित्वों में उत्कृष्टता की मात्रा का संवर्धन भी आवश्यक है। हर क्षेत्र में घुसे हुए अनाचार को चुनौती देना आवश्यक हैं श्रेष्ठता का समर्थक-दुष्टता विरोधी जनमानस तैयार किया ही जाना चाहिये। नई सृजन के लिए जनजागरण और मार्ग निर्धारण आवश्यक है। यही कार्य इन परिव्राजकों को करना होगा। वे अपने भागीरथी प्रयासों से अपने संपर्क क्षेत्रों को पुष्पोद्यान की तरह सुविकसित कर सकेंगे ऐसी आशा और अपेक्षा सहज ही की जा सकती है।

कहाँ क्या करना है? किस क्षेत्र की परिस्थिति और आवश्यकता क्या है? यह देखते हुए स्थूल गतिविधियाँ निर्धारित की जायेंगी। किन्तु मूल तथ्य जहाँ का तहाँ रहेगा जन-जन में चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा उत्पन्न करना और सृजन प्रयोजनों के लिये अपनी स्थिति के अनुरूप योगदान देना। यही जन-जन को सिखाया जाय। जिस आस्तिकता-आध्यात्मिकता और धार्मिकता की आस्थायें जगानी है वे उनकी प्रतिक्रिया मनुष्य में चारित्रिक पवित्रता और व्यावहारिक प्रखरता उत्पन्न करने के रूप में ही सामने आनी है। शक्तिपीठों का-उनके साथ जुड़े हुए परिव्राजकों का-प्रवाह प्रयास-उसी स्तर का होगा कि वे वातावरण में युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करें और ध्वंस को सृजन में बदलने का चमत्कार कर दिखायें।

लक्ष्य महान् है साथ ही व्यापक भी। ज्ञान यज्ञ से वातावरण में नव जीवन का संचार करना-विचार क्रान्ति से अवांछनियताओं को उलट देना-अपने समय की-विश्व मानव की आज की महती आवश्यकता है। यह किसी देश जाति की नहीं 400 करोड़ मनुष्यों के विनाश या विकास की समस्या के समाधान का प्रश्न है। इसलिए उसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। साथ ही जटिल और गहन भी। इस सृजन के लिए शिल्पी भी उच्च स्तर के ही चाहिए और बड़ी संख्या में भी। यही वह अदृश्य प्रश्न है जिसके समाधान पर शक्तिपीठों का हर प्रयास सार्थक सिद्ध हो सकता है। अन्यथा निष्प्राण निर्माणों से धर्म का कलेवर भले ही बढ़ जाय उससे प्राण संचार संभव हो सकेगा शक्तिपीठें मन्दिरों की भावुकता के उभारने के लिए नहीं-दूरगामी सृजन प्रयोजन को ध्यान में रखकर बनाई गई है! उनके पीछे परिव्राजकों का स्तर और प्रयास ही लक्ष्य को पूरा कर सकने में सफल होगा।

एक ओर शक्तिपीठों के निर्माण कार्य में उत्साह उत्पन्न हुआ है। दूसरी ओर परिव्राजकों को ढालने का प्रयास चल पड़ा है। दोनों दिशा में चल रही तत्परता इन दिनों देखते ही बनती है। प्रथम श्रेणी की शक्तिपीठें पिछले नक्शे के अनुसार प्रायः डेढ़ दो लाख लागत की बनती थीं। वे तीन मंजिली थीं। अधिक स्थानों पर यह निर्माण जल्दी और अधिक संख्या में सम्भव हो सकें इसके लिए एक नया नक्शा बनाया है जो दो मंजिला है और एक लाख के करीब में बन जाता है। पहले इन्हें द्वितीय श्रेणी का माना गया था अब उनमें थोड़े संशोधन के साथ प्रथम श्रेणी में ही गिन लिया गया है। कस्बों और देहातों में शायद इतनी व्यवस्था भी न हो सके इसलिए वहाँ के लिए चालीस हजार लागत के द्वितीय श्रेणी के डेढ़ मंजिलें शक्ति पीठों का निर्धारण हुआ है। भूमि प्रायः सभी में साठ फुट चौड़ी-अस्सी फुट लम्बी आवश्यक होगी। भव्यता की शोभा सुविधा, बढ़ी-चढ़ी होने के लाभ आकर्षण से इन्कार नहीं किया जा सकता। जहाँ अधिक पूँजी जुटा सकने का प्रबन्ध होगा वहाँ वैसा ही किया जाना प्रशंसनीय है किन्तु जहाँ तंगी है वहाँ हलकी व्यवस्था से काम चलाने की नीति भी अपनानी पड़ेगी। अन्यथा प्रगति क्रम कुछ ही स्थानों तक सीमाबद्ध होकर रह जायगा।

नव निर्धारण के अनुसार दो मंजिलें-डेढ़ मंजिलें-एक लाख एवं चालीस हजार वाले बड़े-छोटे शक्तिपीठ स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार तेजी से बनते जा रहे है। समर्थ शाखाओं में सर्वत्र इस दिशा में भाव-भरे प्रयत्न चल रहे हैं और प्रतिस्पर्धा उभर रही है। यह उज्ज्वल विषय के शुभ चिन्ह है। साथ ही जागृत आत्माओं में यह उमंगें भी उठ रही हैं कि वे युग आह्वान में समयदान की आहुति देने के लिए रास्ता खोज निकालें। यह चिन्तन सही भी है। आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के लिए श्रम, समय देने का इससे अच्छा और इससे सुव्यवस्थित सुअवसर कदाचित ही फिर किसी को मिल सकेगा। प्रव्रज्या में सम्मिलित होने का अदृश्य उत्साह भी उसमें कम नहीं उभर रहा है। जैसा कि भवन निर्माण का दृश्य प्रयास सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है। शक्ति पीठों के साथ जुड़कर काम करने के लिए सृजन शिल्पियों के अंतःकरणों में इन दिनों उठ रही उमंगे देखते ही बनती हैं। प्रव्रज्या पंजीकरण की सूची बताती है कि पारमार्थिक तत्परता की युगांतरीय चेतना जागृत आत्माओं को किस प्रकार झकझोरने और तन कर खड़ा होने के लिए विवश बेचैन कर रही है।

प्रव्रज्या को गौरवास्पद बनाने के लिए हीरों को खरीदने की तरह प्रशिक्षण का प्रबन्ध आवश्यक था। सो शान्ति कुँज में बना लिया गया है। वहाँ पहले से भी इस स्तर का प्रबन्ध था, अब उसमें आवश्यक अभिवर्धन और भी कर दिया गया है। 15 जुलाई से यह प्रशिक्षण प्रक्रिया चल पड़ेगी। न्यूनतम एक महीना और अधिकतम जितना आवश्यक है, यह प्रशिक्षण हर युग-शिल्पी को नये सिरे से लेना होगा। पिछले दिनों जिनने अपना नाम वानप्रस्थों में वरिष्ठ-कनिष्ठ समय दानियों में नोट कराया था उन्हें नई आवश्यकता के अनुरूप योग्यता सम्वर्धन के लिए नये सिरे से इस अभिनव प्रशिक्षण में सम्मिलित होने के लिए कहा गया है। टोली नायक, कार्यवाहक, समयदानी वर्ग के क्रमयोगी भी इस पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो सकते हैं। कौन कब आये इसका निर्धारण भी स्थान और सुविधा का संतुलन मिलाकर ही किया जायगा। एक बार में 100 से अधिक के लिए प्रबन्ध नहीं हो सकता, इसमें से न्यूनतम एक महीना और अधिकतम बहुत समय ठहरने की प्रक्रिया भी चलेगी। ऐसी दशा में शिक्षार्थियों में से किसको कब आना है यह निर्धारण पत्र व्यवहार से ही सम्भव हो सकेगा।

भाषण, कला, संगीत, पर्व संस्कार यज्ञ आदि के कर्मकांड, कार्यक्षेत्र के अनुरूप रचनात्मक कार्यों का निर्धारण, प्रतिकूलताओं से निपटना, व्यक्तित्व का परिष्कार प्रभावी जन संपर्क सामयिक समस्याओं का समाधान जैसे अनेकों विषय पाठ्यक्रम में सम्मिलित रखे गये हैं। समझने से लेकर अभ्यास करने तक की प्रक्रिया साथ-साथ चलेगी। शिक्षार्थी की रगड़ाई, मँजाई इस स्तर की हो जायेगी कि पेनी और चमकीली तलवार से उसकी तुलना की जा सके।

शक्तिपीठों के कार्यक्षेत्र की लपेट में प्रायः सारा देश, सारा विश्व आ जाने की आशा है। ऐसी दशा में हर गाँव में स्थानीय कार्यकर्ता की भूमिका हर कोई अपने सामान्य उपार्जन कार्यों में संलग्न रहते हुए भी भली प्रकार निभा सकता हैं। प्रशिक्षित व्यक्ति अपने स्थान पर भी बहुत कुछ कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त वे लोग हैं जो पूरा समय इस योजना में देना चाहते हैं। इनमें से हर एक को तो स्वीकृत नहीं किया जा सकता, फिर भी जो कसौटी पर खरे उतरेंगे उन्हें निश्चिंतता पूर्वक काम करने की व्यवस्था बनाई गई है। शक्तिपीठों के साधन उनके रहेंगे जिनके सहारे ब्राह्मणोचित निर्वाह का प्रबन्ध हो सके।

शक्तिपीठों से जुड़े परिव्राजकों की निर्वाह व्यवस्था के कई स्तर है। परिवार के लिए जिन्हें कुछ भेजना नहीं पड़ेगा प्रायः वैसे ही लोगों को प्राथमिकता दी जा सकती है। सामान्यतया यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि स्थायी कार्यकर्त्ताओं के निर्वाह का प्रबन्ध शक्तिपीठ करें। इनमें से कुछ ऐसे भी हो सकते है जो घर में अपना निर्वाह मँगाते रह सके। हर शक्तिपीठ में एक वानप्रस्थ पत्नी समेत रहेगा। बच्चे उनके साथ नहीं होंगे। यह पति-पत्नी मिलकर पूजा आरती से लेकर अतिथि सत्कार तक की स्थानीय व्यवस्था संभालेंगे आगन्तुकों के साथ सत्संग, परामर्श का क्रम भी यह लोग चलायेंगे और साहित्य केन्द्र का उत्तरदायित्व भी इन्हीं के कंधों पर होगा। इसके अतिरिक्त चार अन्य परिव्राजक रहेंगे। चारों के पास साइकिलें होंगी। दो-दो की जोड़ियों में निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार संपर्क क्षेत्र में जायेंगे और एक-एक दिन एक-एक गाँव में रुकेंगे। इनका निवास निर्वाह का प्रबन्ध शक्तिपीठ में रहेगा। इनमें से कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिनकी जन्म-भूमि समीप ही है और जो रात्रि को घर पहुँचने, दिन में ड्यूटी सँभालने का क्रम चला सकते है। ऐसी दशा में घर और शक्तिपीठ दोनों को संभालना भी सम्भव हो सकता हैं और परिवार के लोगों का विरोध भी हल्का हो कसता है। ऐसे लोगों का निर्वाह व्यय इस प्रकार भी किया जा सकता है जिससे मिल-जुलकर उनके परिवार को भी थोड़ी सहायता मिल सके।

निर्वाह व्यय के सम्बन्ध में सबको एक लाठी से नहीं निर्वाह किया जा सकता। परिस्थिति का भिन्नता को ध्यान में रखना होगा। किन्तु इतना अवश्य है कि उपयुक्त युग शिल्पियों में से अब किसी को भी यह असमंजस नहीं रहेगा कि वे निर्वाह की व्यवस्था न कर पाने के कारण समय की पुकार में योगदान दे सकने से वंचित रह गये।

शक्तिपीठों का निर्माण और प्रव्रज्या अभिवर्धन की दिशा में साथ-साथ उठ रहे हादसों को देखकर उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना हर विचारशील को अति निकट और सुनिश्चित ही दृष्टिगोचर होगी।


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