तुच्छ का महान् के साथ मिलन ऐसा सुयोग है जिसकी सराहना ही की जा सकती है, उसका लाभ भी असीम है। पारस के साथ लोहे का-स्वाँति वर्षा के साथ सीप का मिलन स्वर्ण और मुक्तक क सृजन करता है। मिलन धन्य होता है। और उस सुयोग से लाभान्वित होने का अवसर असंख्यों को मिलता है।
हनुमान ने राम के साथ-सुदामा ने कृष्ण के साथ मिलकर कुछ गंवाया नहीं कमाया ही। आरम्भ अवश्य ही अड़चन उपस्थित करता रहा होगा। सुदामा को बगल में दबी चावल की पोटली गँवानी पड़ी और हनुमान को समुद्र लाँघने का खतरा उठाना पड़ा। इन असमंजस की घड़ियों में क्षुद्रता को डरने घबराने के लिये कारण मौजूद हैं। फिर भी महानता जब अकुलाती है तो उसे दुस्साहसी ही बनना पड़ता है। यह पराक्रम और कुछ नहीं कुसंस्कारी लिप्सा लालसा से झगड़ पड़ना और क्षुद्रता को अस्वीकार करने के लिये तनकर खड़ा हो जाना भर है। यही योग साधना और यही तपश्चर्या है।
साधना याचना नहीं है। क्रिया-कृत्यों की विलक्षणता एवं काय कष्टों में उसकी पूर्णता समझना व्यर्थ है। शरीरगत हलचलें और मनोगत मनुहारें साधना के आवरण को तो पूरा करती है पर लक्ष्य तक पहुँचने के लिए पर्याप्त नहीं। भक्ति का उद्गम अन्तःकरण है। उस मर्मस्थली से जब महानता के प्रति अगाध आस्था और पाने की आतुरता उत्पन्न होती है तो दिशा में कदम बढ़ते हैं जो क्षुद्रों द्वारा मूर्खतापूर्ण कहे जाते हैं। तुच्छता और महानता की दिशा, परिभाषा और उपलब्धि भिन्न-भिन्न है। परमात्मा का स्वरूप महानता है। उसी पथ पर बढ़ते हुए लोग जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और पूर्णता के चरम बिन्दु तक जा पहुँचते हैं।