सिद्धियाँ न तो आवश्यक हैं न लाभप्रद

July 1979

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बौद्ध साहित्य में एक बहुत ही सुन्दर कथा आती है। उस समय भगवान बुद्ध जीवति थे और जगह पर घूम कर लोगों को धर्म, नीति तथा सदाचार का उपदेश दे रहे थे। जिस राज्य में वे प्रव्रज्या कर रहे थे उसी राज्य के नरेश ने एक रत्न जटिल स्वर्ण कमण्डल ऊंचे बाँस पर टाँग दिया और कहा जो कोई व्यक्ति इस कमण्डल को उतार लेगा उसे मैं सिद्ध योगी मान लूँगा और उसका अनुयायी बन जाऊँगा। कमण्डल बहुत ऊँचे बाँस पर टंगा था, किसी व्यक्ति का सीधे खड़े होकर उसे उतार पाना सम्भव नहीं था। भगवान बुद्ध का एक शिष्य जिसका नाम कश्यप था, कुछ ही दिनों पूर्व धर्म संघ में दीक्षित हुआ था। उसने अपने सिद्धि ‘बल’ से कमण्डल को उतार लिया। यह सूचना ले कर लोग बुद्ध के पास गये और यह सारा विवरण उन्हें कह सुनाया।

लोगों को आशा तो यह थी कि वह कश्यप की प्रशंसा करेंगे क्योंकि उसने एक राज परिवार को धर्म दीक्षित कर लिया था। परंतु हुआ इसके विपरीत ही। बुद्ध ने यह विवरण सुना ही था कि वे उठे और उस विहार की ओर चल पड़े। उन्होंने कश्यप पर अपनी व्यथा उड़ेलते हुए कहा- मैं बार-बार तुम लोगों को इन चमत्कारों का प्रदर्शन करने तथा अभ्यास करने के लिए रोकता हूँ। यदि तुम्हें इन मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि की सिद्धियों और प्रदर्शनों में ही आकर्षण हैं तो अद्यावधि तुम लोगों को धर्म की कोई जानकारी नहीं है। यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो सदाचार का अभ्यास करो। क्योंकि चमत्कार ही यदि अध्यात्म की कसौटी बनने लगे तो फिर बाजीगरी की बन आवेगी और तपस्वी, ज्ञानवान तथा लोक सेवियों की बात कोई नहीं सुनेगा।

वस्तुतः अध्यात्म का चमत्कारों से कोई संबंध नहीं है। अधिकांश चमत्कार तो, जो जनसाधारण को प्रभावित करने के लिए किये जाते हैं, केवल हाथ की सफाई और बाजीगरी के अलावा कुछ नहीं होते। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि सिद्धियों-अतीन्द्रिय शक्तियों के पीछे भी यही कारण है। अध्यात्म मार्ग पर चलते हुए, सिद्धियाँ और अतीन्द्रिय शक्तियाँ अनायास ही मिल जाती है। अध्यात्म मार्ग के लिए उन्हें अलग से कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता और नहीं वह इनमें रमता है। पातंजलि मुनि ने यम नियमों के पालन से ही पूर्वाभास, दूरबोध, परोक्ष दर्शन, दिव्यस्पर्श, आकाशगमन, अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों की प्राप्ति बतायी है और साथ ही साधको को सतर्क भी किया है- ‘ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः’

अर्थात् वे (सिद्धियाँ) समाधि में विघ्न हैं तथा अभ्युत्थान में सिद्धियाँ है। विघ्न इसलिए है कि इन सिद्धियों के कारण मिलने वाली प्रशंसा, उनसे उत्पन्न होने वाला अहंकार साधक को श्रेय पथ से विचलित कर देता हैं। लेकिन कोई व्यक्ति यदि इन सिद्धियों को ही श्रेय की प्राप्ति समझता है तो पातंजलि मुनि ने उसे विक्षुब्ध या भ्रमित मनः स्थिति वाला व्यक्ति कहा है।

आये दिनों सामान्य व्यक्तियों में भी इस प्रकार की विलक्षण क्षमतायें कुछ समय के लिए अथवा सदा के लिए जागृत हो जाने की घटनायें देखने सुनने में आती है। इस तरह की ढेरों घटनायें अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में छपती रहती है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि चेतना, अध्यात्म, आत्म और परमात्मा को जानने मानने का भी यही प्रयोजन है। इन घटनाओं के माध्यम से यह तो सिद्ध होता है कि अध्यात्म एक सर्व समर्थ विद्यमान हैं, आत्मा विलक्षण विभूतियों का भण्डार है लेकिन उसका उपयोग इस तरह बाल क्रीड़ाओं के लिए करना न आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है और न समाज के लिए ही उनकी उपयोगिता है। इन साक्ष्यों से आत्मा की सामर्थ्य को एक अंश तो प्रमाणित किया जा सकता है पर आत्म सत्ता की शक्ति सामर्थ्य इतने तक ही सीमित नहीं है।

जिन किन्हीं व्यक्तियों में यह सामर्थ्य विकसित होती है वे न इसका ढिंढोरा पीटते हैं न इनका प्रचार ही करते है। क्योंकि इससे जन साधारण का ध्यान श्रेय की दिशा से हट कर उन क्रीड़ा कौतुकों पर ही चला जायेगा। इस लिए सच्चे आत्मवेत्ता न तो किसी को चमत्कार दिखाते है और न ही किसी को इस बात की शिक्षा देते है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की नीति ही अध्यात्म की सच्ची साधना है और उसी का अभ्यास कर सामान्य, स्थिति में रहते हुए भी देवोपम जीवन व्यतीत किया जा सकता है। उसके आलोक से असंख्य व्यक्तियों का भला किया जा सकता है। सही अर्थों में यही अध्यात्म का चमत्कार है। और जिन व्यक्तियों ने भी अध्यात्म के मर्म को समझा है उन्होंने सिद्धियों और चमत्कारों को व्यर्थ बताया है।

सर्वसाधारण के लिए इनकी कोई उपयोगिता नहीं है इसलिये ईश्वरीय विधान के अनुसार इन्हीं अविज्ञात एवं रहस्य के पर्दों में छिपा हुआ ही रहने दिया है। परमात्मा ने मनुष्य और प्राणियों को वे सारी विशेषतायें साधन क्षमतायें पहले ही इतनी मात्रा में प्रदान कर दी हैं जितनी कि उन्हें आवश्यक है। हवा, पानी, अन्न, आदि आवश्यकताओं के लिए जिनके बिना जीवन चल नहीं सकता परमात्मा ने प्रकृति में प्रचुर व्यवस्था कर दी है इसके बाद जीवन की ग्रन्थियों और समस्याओं को समझने हल करने के लिए सामान्य बुद्धि भी मनुष्य में विद्यमान हैं। विशेष प्रतिभाशाली व्यक्ति अपनी बौद्धिक क्षमताओं का विकास करते हैं और उससे स्वयं लाभ उठाते हुए अन्य मनुष्यों को भी लाभान्वित करते है।

इसके बाद आती है वे सिद्धियाँ और क्षमतायें जिन्हें मनुष्य वरदान तुल्य समझता है और सोचता है कि यदि ये सिद्धियाँ उसके पास होती तो वह ‘और’ भी बड़ा बन सकता था। स्मरणीय है इन सिद्धियों की ललक दूसरों का भला करने के लिए अपना अहंकार पुष्ट करने के लिए ही ज्यादा उठती है। यदि दूसरों का भला करना ही अभीष्ट रहता है तो मनुष्य अपनी उपलब्ध क्षमता और वर्तमान स्थिति में रह कर ही बहुत कुछ कर सकता है। परन्तु सिद्धियों के पीछे यह भावना नहीं रहती। उसमें अधिकांशतः अहंकार की भावना ही काम करती है और अहंकारी व्यक्ति के पास यदि से सिद्धियाँ आ जायँ तो न वह अपना भला कर पाता है न दूसरों का ही कुछ हित साधन कर सकता है।

प्रथम तो परमात्मा ने मनुष्य के हित की दृष्टि से ही उन सिद्धियों को सबके लिए सुलभ नहीं बनाया है। इनका उपयोग और महत्व न जानने के कारण इनसे लाभ उठाने की अपेक्षा अहित होने का ही ज्यादा भय रहता है, उदाहरण के लिए यदि किसी के पास पूर्वाभास की क्षमता हो तो स्वाभाविक ही है कि उसे अपनी मृत्यु का समय पहले ही विदित हो जायगा। यदि पूर्वाभास के कारण सभी लोगों को अपनी मृत्यु का समय मुद्दतों पहले विदित रहने लगे तो लम्बा जीवन प्रेम रहने पर भी वह भयभीत उदास और खिन्न रहने लगेगा। सामान्य जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण में उदासीनता आ जायगी और मानसिक असंतुलन के कारण उससे कुछ करते धरते न बनेगा। जब अमुक समय से आगे पीछे नहीं ही मरना है तो चह किसी से भी प्रतिशोध लेने के लिए आक्रमणकारी बन सकता है, निडर होकर भी कुछ भी कर सकता है। मृत्यु का समय पहले ही मालूम हो जाने से व्यक्ति या तो निरन्तर खिन्न, उदास और बेबस रहने वाला निरीह प्राणी भर बन कर रह जायगा अथवा आगा पीछा न सोच कर कुछ भी कर डालने वाला दुर्दान्त नर पशु बन जायगा।

जीवित रहने का आनन्द तभी है जबकि मृत्यु का ठीक समय का ज्ञान न हो। इसके अतिरिक्त दूसरों के भविष्य को जान लेने पर यदि उसके दुर्दिन हुए तो कोई भी उससे संबंध नहीं बनाना चाहेगा और अच्छे दिन हुए तो हर कोई उसके आगे पीछे घूमने और चाटुकारिता करने लगेंगे। दोनों ही स्थितियों में मनुष्य का मनुष्य के प्रति स्नेह-सौहार्द्र सहयोग सद्भाव, पुरुषार्थ परिश्रम प्रभावित होंगे। इसलिए अनागत को न जान पान का प्रतिबंध लगा कर परमात्मा ने मनुष्य का भला ही किया है। अदृश्य हो जाने की सिद्धि भी परमात्मा ने, मनुष्य का हित देख कर ही उसे प्रदान नहीं की। यदि कोई अदृश्य होने की विद्या सीख ले तो वह बड़े से बड़ा अपराध करते रहने पर भी नहीं पकड़ा जा सकेगा। इस प्रकार मनुष्य का निजी व्यक्तिगत जीवन कुछ रह ही न जायगा। ‘चोर बड़ी आसानी’ से किसी भी व्यक्ति के घर में घुस कर उसका माल, सामान समेट लेंगे। पति-पत्नी के सम्बन्धों में लज्जा जैसी कोई बात रह ही न जायगी।

भविष्य को जानने और अदृश्य होने की सुविधा न देने के साथ परमात्मा ने मनुष्य की इन्द्रियों को भी उतनी ही क्षमता प्रदान की है जितनी से कि उसका काम भर चलता रहे। आंखें प्रकाश का एक नियत स्तर ही देख पाती हैं जबकि आँखों से न दिखाई पड़ने वाले, आँखों की दर्शन क्षमता से कम व अधिक स्तर के दृश्य भी इस संसार में मौजूद हैं। वे दिखाई नहीं देते और इसी कारण केवल काम की तथा उपयोगी वस्तुओं का देख पाना सम्भव है। कल्पना कीजिये यदि पानी, हवा, मिट्टी आदि में रहने वाले जीवाणु उतने ही स्पष्ट दिखाई देने लगे जितने कि माइक्रोस्कोप से दिखाई देता है तो फिर आँखों के समाने इन्हीं की भीड़ भरी रहेगी। तब काम के और बेकाम के दृश्यों का इतना अंधड़ सामने खड़ा होगा कि उन्हें देख का क्या हो रहा है यह निष्कर्ष निकाल पाना ही कठिन हो जायगा।

इसी प्रकार हमारे कान एक सीमित स्तर की ध्वनियाँ ही सुन पाते हैं। उनसे ऊँचे और नीचे कंपनों की असंख्य ध्वनियाँ अपने चारों ओर मंडराती रहती है। अंतरिक्ष में घूमते रहने वाले ग्रहों, उनमें होने वाले विस्फोटों के कारण होने वाली भीषण ध्वनियों को यदि सुना जा सके तो हमारा दुनिया में रहना ही दूभर हो जायगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे चारों ओर इतनी भीषण भयावह विस्फोट की ध्वनियाँ चौबीसों घण्टे गूंजती रहती हैं। कि जैसे हजारों बम एक साथ फटते हों। परन्तु हमारे कान उन ध्वनियों के लिए पहले से ही बहरे है। इसलिए जीवनक्रम सामान्य गति से चलता रहता है। कल्पना कीजिए कि यदि उन ध्वनियों को सुन पाना सम्भव रहा होता तो क्या शाँति पूर्ण ढंग से जिया जा सकता था, इसी प्रकार कितने हीं सूक्ष्म ध्वनि कम्पन भी हमारे इर्द-गिर्द घूमते रहते है। उन सभी ध्वनियों को सुना जा सकता तो लगभग उसी तरह की दशा होती जैसे कि एक ट्राँजिस्टर पर संसार भर के सभी स्टेशन बोलने लगें और विचित्र प्रकार की न समझ आने वाली मिश्रित ध्वनियाँ होने लगे।

ईश्वर की ओर से मनुष्य की आंखें, कान, नाक आदि इन्द्रियों को उतनी ही शक्ति मिली है जितनी से कि उनका कार्य सरलता पूर्वक चल सके। इसी प्रकार जिन सिद्धियों की,जिन उद्देश्यों से आवश्यकता है वे सामान्य प्रयास करने पर ही मिल जाती है। मनुष्य के लिए संभाषण, वार्तालाप, गायन और इसी प्रकार की दूसरी अन्य विशेषतायें अन्य प्राणियों की दृष्टि में देवोपम ही है। यह सब बातें मनुष्य के लिए निताँत सहज और ‘स्वाभाविक हैं। जहाँ भी असहज या असामान्य की आकाँक्षा उठी अथवा आरोपण किया गया वहीं अहं का उदय और भय की सृष्टि होने लगती है। पहली बार जिनने रेलगाड़ी देखी थी उन्होंने उसे कोई भयंकर दैत्य समझा था और भयभीत होकर भागे थे, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि भी लोगों के लिए कम आश्चर्य जनक नहीं रहे हैं परन्तु इनकी वास्तविकता समझने के बाद लोग न तो इनसे डरते हैं और न दूसरों को डराते हैं क्योंकि यह सब निताँत सरल सामान्य ही है।

परमात्मा जिन व्यक्तियों को उपयुक्त समझता है उन्हें इस तरह की विशेष शक्तियाँ देता भी है, ताकि साधक उनके द्वारा दूसरों का भला कर सकें। लेकिन सिद्धियों का रहस्य जानने वाले समझते है। कि यह उनका लक्ष्य नहीं है। ये सिद्धियाँ तो ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी मंजिल पर चलते हुए मार्ग में एक से एक सुन्दर सुगन्धित फूल लगे मिल जाँय। उन फूलों की महक में ही कोई रम गया तो लक्ष्य से विचलित हो गया। इसलिए योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पातंजलि ने इन सिद्धियों को साधना मार्ग में विघ्न कहा है तथा उनसे अप्रभावित अनाकर्षित रहते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहने के लिए कहा है। वह प्रगति सदाचार, नीति, सद्भाव और सत्कर्मों द्वारा ही होती है न कि चमत्कारी सिद्धियों द्वारा।


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