सृजन और ध्वंस का अविराम क्रम

July 1979

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सृष्टि का कण-कण सृजन और ध्वंस के संगुम्फित नृत्य-उत्सव में निरन्तर नाच रहा है। मनुष्य-शरीर के भीतर भी रचना और संहार की अन्योन्याश्रित गति-विधियाँ लगातार चलती रहती हैं।

फेफड़े प्रतिपल श्वाँस-वायु का पोषक अंश ग्रहण करते और दूषित अंश बाहर फेंकते हैं। एक करोड़ लाल रक्त-कोशिकाएँ प्रति सेकेंड मरती है और निर्जीव कोशिकाओं को प्लीहा उसी समय तोड़ डालती है। यकृत उनके लौहांश जैसे जीवन्त भागों का इस ध्वंस से संरक्षण करता है और नयी रक्त-कोशिकाओं के निर्माण के आधार प्रस्तुत करता रहता है। अशुद्ध रक्त को शुद्ध करने का काम यकृत निरन्तर करता रहता है।

सृजन और ध्वंस का यह क्रम जीवन की मूल इकाई कोशिका में भी निरंतर गतिशील रहता है। वे निरंतर मरती रहती हैं और वैसी ही नई कोशिकाएं लगातार पैदा होती रहती हैं।

सृजन और संहार की इस प्रक्रिया के स्वरूप पर दृष्टिपात करें तो यही स्पष्ट होता है कि विधेयात्मकता नवसृजन का और निषेधात्मकता विनाश का कारण बनती है। ऊपरी त्वचा को ही लें जब उन्हें स्वच्छ रखा जाता है और समुचित श्रम से उनकी क्रियाशीलता का पोषण किया जाता है, तो वे संरक्षक का कार्य करती हैं। शरीर का कारखाना गरम होते ही तेजी से पसीना बाहर निकालने का काम स्वेद-ग्रन्थियों के द्वारा करने लगती हैं और बदन ठंडा कर देती हैं। सर्दियों में शरीर की संचित ऊष्मा सुरक्षित रखने की जरूरत पड़ती है, तो उनके छेद सिकुड़ जाते हैं। भीतर की गर्मी रुकी रहती है और ठण्ड से बचाव हो जाता है। इस प्रकार ये “एयर कंडीशनर” का काम अंजाम देती हैं।

इसी त्वचा पर जब रंग-पोतकर उसकी स्वाभाविकता नष्ट की जाती है, तो वह अपनी यह “एयर-कंडीशनिंग” की क्षमता खोने लगती है। उनके छिद्र भरे रहने लगते हैं और वे कई बीमारियों का कारण बन जाती हैं। त्वचा के रंग-रोगन का अभ्यास चर्मरोगों को बढ़ाता है। स्नान की उपयोगिता न समझकर उसे मात्र चिन्ह-पूजा बनाकर करने वाले भी ऐसी ही पीड़ाएँ-परेशानियाँ झेलने को बाध्य होते हैं। एक बार होली के अवसर पर एक लड़के के शरीर पर ‘सीरा’ पोत कर रुई चिपकाई गई और लंगूर का स्वाँग रचा गया। थोड़ी देर बाद लड़का बेहोश हो गया। अस्पताल ले जाने तक उसने दम तोड़ दिया। पोस्टमार्टम-रिपोर्ट से पता चला त्वचा के छिद्रों का पूरी तरह बंद हो जाना ही इस मृत्यु का कारण था। पुराने जमाने में अपराधी को मृत्यु-दण्ड देने की एक विधि यह भी थी कि उसके हाथ पैर बाँध दिये जायें और पूरे शरीर र मोम पोत दिया जाय। त्वचा के रामे-छिद्र बन्द होने से, वह घुट-घुटकर मार जाता था।

विधेयात्मकता और निषेधात्मकता दोनों के दो-दो पक्ष स्पष्ट होते हैं। त्वचा की सृजनात्मकता के दो रूप हैं-वह स्वयं अपना परिपोषण करती है और शरीर के लिये आवश्यक प्राणवायु भी जुटाती रहती है। उसकी संवेदना के बारे में भी यही बात है। वह अपने संपर्क में आने वाले वातावरण का संवेदनात्मक अनुभव स्वयं करती और सम्पूर्ण शरीर तक पहुँचाती है। धूप, बर्फ, तीखी हवा, तेज बारिश की बौछार काँटा कील, सुई की चुभन आदि का स्पर्श त्वचा में होने पर भी पूरा शरीर उस सम्वेदना को अनुभव करता है। प्रीतिकर स्पर्श-सम्वेदनों के बारे में भी यही बात है। बदले में शरीर के अन्य अवयव भी उसके साथ वैसा ही सहयोग करते हैं। मस्तिष्क उसे आवश्यक निर्देश देता है। उसमें चोट पहुँचने पर रक्त कण आक्रमण के प्रतिकार हेतु दौड़ पड़ते हैं।

निषेधात्मकता के भी दो पक्ष हैं। पहला लापरवाही और भूलें। जैसे रगड़ कर न नहाना-धोना। इससे मैल की परतें बच रहती और फोड़े-फुन्सियों जैसी विकृतियों का कारण बनता हैं। दूसरा असामाजिकता अर्थात् शरीर के लिये वाँछित प्राणवायु की पूर्ति न करना, जैसा, ऊपर के उदाहरणों में बताया है इसका परिणाम त्वचा और शरीर दोनों के विनाश के रूप में सामने आता है। इस प्रकार भूलों से विकृति तथा असामाजिकता के विनाश की स्थितियाँ पैदा होती हैं। विकृतियाँ विनाश की मन्दगति का ही रूप हैं। कुछ लम्बी बीमारियों के बाद कई बार चमड़ी की ऊपरी परतें तौलिये से रगड़ने के उखड़ने लगती हैं। चोट ठीक होने पर भी यही बात होती है। ऐसी निकल-झड़ जाने वाली चमड़ी मरी चमड़ी कही जाती है। शिर से भी भूसी निकलती रहती है। इस प्रकार यह विनाश की मन्द प्रक्रिया चलती रहती है और उसी के समानान्तर गतिशील शरीर की चमड़ी में नवसृजन का क्रम भी चलता रहता है।

अपनी ही चिन्ता करते रहने और दूसरों के प्रति अपने आवश्यक कर्त्तव्यों को भुला देने से अन्ततः स्वयं की भी संकट-ग्रस्त, असहाय और असमर्थ हो जाना पड़ता है। सुख और प्रगति के आधार औरों के सहकार के बिना जूट ही नहीं सकते। दूसरों से सहयोग के आदान-प्रदान हेतु, वाँछित उदारता और अपने काम को भली-भाँति सम्पादित करने हेतु जागरूकता की निरन्तर आवश्यकता रहती है। उदारता और जागरूकता के बिना सफलता और सहयोग नहीं प्राप्त किये जा सकते। असामाजिकता और लापरवाही, प्रमाद सदा हानि ही उत्पन्न करते हैं।

सफलताएँ अनायास ही नहीं मिलतीं और सहयोग यों हीं नहीं जुटता। उस हेतु अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों को जगाये रखने और निखारते रहने तथा निषेधात्मक प्रवृत्तियों को नियंत्रित-निरस्त करते रहने की जरूरत सदैव ही पड़ती है।

माँसपेशी की विधेयात्मकता के भी दो पक्ष होते हैं। वह जितना ही काम करती हैं, उतनी ही सशक्त होती हैं। व्यायाम और परिश्रम से माँसपेशियों का स्वास्थ्य भी अच्छा होता है और ताकत भी बढ़ती है जिन लोगों की माँसपेशियों का श्रम का अभ्यास होता है; उनकी माँसपेशियाँ बुढ़ापे में भी बखूबी काम करती रहती हैं। यह हुआ उनकी रचनात्मकता का निजी पक्ष। सामाजिक पक्ष यह है कि माँसपेशियाँ हाथ, पैर फेफड़े, सीने, आँत आदि के कार्यों में सहयोग देती हैं, बदले में इनमें निरन्तर खून दौड़ता रहता है, जिससे इन्हें बीमारियाँ थक जाती हैं। लापरवाही या अन्य किसी कारण से उनमें मोच भी आ सकती है। विश्राम से थकान और सेंक आदि उपचार के मोच ठीक होती है। किन्तु यदि माँसपेशियाँ सहयोग भरी सक्रियता न अपनाएँ, असामाजिकता अपना लें तो वे निस्तेज और दुर्बल होती जाती हैं। यदि कोई स्वस्थ युवक एक हफ्ते तक व्यर्थ ही आराम करे तो उसकी माँसपेशियाँ अत्यधिक ढीली हो जायेंगी और उसे हिलने-डुलने में ही जराजीर्ण रोगियों जैसी थकान आने लगेगी।

यही बात हड्डियों के बारे में है। अनावश्यक विश्राम से हड्डियाँ कैल्शियम- रहित हो जाती और अत्यन्त कमजोर पड़ जाती हैं। एक 30 वर्षीय अमीर युवक एक बार चार सीढ़ियों पर से गिरा और उसको दाहिने पैर की हड्डी टूट गई तथा कुहनी सरक गई। बाद में पता चला कि इसका कारण यह था कि अति विश्राम से उसकी हड्डियाँ इसी आयु में कैल्शियम की कमी से जर्जर हो चली थीं। जबकि निरंतर पर्याप्त श्रम करने वालों को हड्डियों की बीमारी सामान्यतः कभी भी नहीं होती।

यह हुआ परिश्रम का एक पक्ष। इसके दूसरे पक्ष उचित विश्राम का महत्व भी भूलना न चाहिए। नवीन स्फूर्ति के संचय के लिये विश्राम की आवश्यकता पड़ती हैं विश्राम का समय नवीन, उत्साह और नई ताजगी के अर्जन का समय होता है।

अपनी शरीर-रचना में भी निरन्तर क्रियाशीलता के बीच विश्रान्ति के क्रम भी आते रहने की व्यवस्था है। हर अवयव बीच में स्वल्प-विश्राम लेता है। इसी अवधि में वह नई सक्रियता अर्जित कर लेता है और उसकी निरन्तर चलती प्रतीत होने वाली गतिशीलता अक्षुण्ण बनी रहती है, हृदय रक्त फेंकने की अविराम गतिशीलता के मध्य ही टुकड़ों- टुकड़ों में उससे अधिक विश्राम कर लेता है, जितना दूसरे विश्वयुद्ध के समय निरन्तर काम करने वाले ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री विंस्टन चर्चिल अपनी बीच-बीच में थोड़े समय का विश्राम लेने की पद्धति से करुते थे। चर्चिल तो उन दिनों कुल 16 घन्टे काम करते और खंड-खंड में कुल मिलाकर 8 घन्टे विश्राम कर लेते थे। जबकि हृदय चौबीस घन्टे में कुल 9 घन्टे ही काम करता, 15 घंटे विश्राम करता है। तभी तो वह आजीवन इस क्रम को बनाये रख पाता है।

जिन महापुरुषों को अपनी ध्येयनिष्ठा और परिस्थितियों के दबाव से, प्रकृति के इन नियमों को जानते हुए भी, अत्यधिक श्रम करना पड़ता है, वे संयमी-सात्विक जीवन बिताने पर भी अधिक अवधि तक इस क्रम को निभा नहीं पाते और देह-परिवर्तन के लिये विवश हो जाते हैं, स्वामी विवेकानन्द का 40 वर्ष की आयु में ही निधन हो जाने के पीछे उनकी कठोर और अत्यधिक परिश्रम भी एक कारण था। कोशिकाएँ जल्दी ही मरती हैं। इसका कारण उनका कद की तुलना में अनेक गुण अधिक, घोर परिश्रम करना ही है। नन्हीं सी कोशिकाएँ सृजन, नियन्त्रण, व्यवस्था, संचार, संपर्क, विकास, प्रशासन आदि के गुरुतर दायित्व सम्हालती हैं। इससे उन्हें मरना तो 27 दिन में ही पड़ता है। किन्तु अपने गौरवपूर्ण उत्सर्ग का प्रतिदान भी उन्हें मिलता है और उनका नाम तथा वंश चलता ही रहता है। वे ‘मुहूर्त ज्वलितं श्रेयः, न च धूमायितं चिरं’ के आदर्श को साकार करती हुई 27 दिनों का अपना अतिव्यस्त जीवन-क्रम पूरा करती है। उनकी जीवन-अवधि कम ही सही, पर वह जीवन होता सार्थक और महिमान्वित है। शरीर को दिये जाने वाले कोशिका के प्राण-अनुदान व्यर्थ नहीं जाते। बदले में शरीर की प्राणशक्ति उन्हें सर्वथा नया जीवन देती है। नये शरीर में उसी पुरानी कोशिका की ही आत्मा निवास कर रही होती है। वही चेतना, वही संरचना और वही संस्कार उस नई कोशिका के भी होते हैं, जो पुरानी की मृत्यु के तत्क्षण बाद प्रकट होती है।

इस प्रकार जो दिया जाता है, वही अनुदान रूप में प्राप्त होता है। यही सृष्टि-व्यवस्था का सनातन क्रम है। जब मैत्रीपूर्ण सहयोग दिया जाता है, तो वैसा ही भाव भरा सहयोग-अनुदान प्राप्त होता है। सब सर्वस्व न्यौछावर कर दिया जाता है, तब नये सिरे से सब कुछ मिला जाता है, सो भी नई ताजगी, नये जीवन-रस के साथ। दाहिनी ओर की पसलियों के नीचे स्थित तीन पौंड वजन वाली यकृत नाम ग्रन्थि सृष्टि की इस व्यवस्था का एक अन्य उत्तम उदाहरण है। यकृत से शरीर को चौबीसों घंटे ग्लाइकोजन नाम स्टार्च मिलता रहता है। ऊँचाई चढ़ते समय माँसपेशियों को अधिक ईंधन की जरूरत पड़ती है। वह माँग भी यकृत ग्लाइकोजन का एक अंश ग्लूकोज में बदलकर उसे रक्त प्रवाह में घोलकर माँसपेशियों के हवाले करते हुए पूरी करता है। शरीर में कहीं भी चोट लगे, तो वह उठने वाले खून को जमा देने का काम यकृत फिब्रिनोजन तथा प्रोथ्राम्बिन नाम रासायनिक पदार्थ उत्पन्न कर सम्पादित करता है। साथ ही वह विषाणु-निरोधक तत्व भी पैदा करता है। अन्यथा छोटी सी चोट या फुड़िया भी प्राणों पर संकट पैदा कर सकती है।

माँसपेशियाँ ग्लूकोज से ऊर्जा पैदा करती हैं। इस प्रक्रिया में शरीर में लैक्टिक एसिड पैदा होता है। इस जहरीले तेजाब को बढ़ने से यकृत ही रोकता है। वह इसे पुनः ग्लाइकोजन में परिणत कर देता है। रक्तशोधन का गुरुतर दायित्व भी यकृत ही सतत सम्हालता है। यदि अंतड़ियों से होकर आने वाला खून अधिक है और उसके हृदय में पहुँचने पर हृदय पर अधिक दबाव पड़ने की आशंका है, तो उसकी अतिरिक्त मात्रा को यकृत अस्थायी तौर पर अपने कोष में संचित कर लेता है, जो आपात्काल में या कमी के समय काम आता है।

दवाओं या मादक द्रव्यों के नशीलेपन-विषैलेपन को घटाने का काम भी यकृत करता है। शरीर के हारमोन स्रावों को संतुलित करने का काम भी वही पूरा कर सकता है। इतने सहयोगियों की सहायता के महान सामाजिक दायित्वों में व्यस्त यकृत की निजी स्थिति को उसके सहयोगी भूल कैसे सकते हैं? उसे सुदृढ़ रखने का काम वे सम्हालते हैं। हृदय अपने इस आदर्शवादी त्यागी मित्र को रक्त पहुँचाने का विशेष ध्यान रखता है वह अपनी कुल शक्ति का एक चौथाई हिस्सा यकृत को रक्त की पूर्ति में खर्च करता है। शेष तीन चौथाई शक्ति से शरीर के हजारों अवयवों का ध्यान रखता है। किन्हीं प्रचंड आघातों, श्रम की अति या पोषण की कमी से यदि यकृत कैंसर-ग्रस्त हो गया, और उसका आपरेशन कर सड़ा अंश अलग कर दिया, तो शरीर के सभी भीतरी अवयव अपनी-अपनी शक्ति का अंश सर्वप्रथम यकृत के स्वास्थ्य-लाभ और शक्ति-वृद्धि के लिये देने को उमड़ पड़ते हैं। जिससे वह शल्य क्रिया से अंगभंग यकृत पुनः पहले जितना बड़ा हो जाता है। रचनात्मकता, उदारता, उत्सर्ग और सेवा परायणता के फलस्वरूप ऐसे ही चमत्कार-भरे, अनुदानों से व्यक्तित्व समृद्ध बनता चला जाया करता है।

इस यकृत की जब कभी उपेक्षा की जाती है, उस पर निरन्तर अनुचित आहार दबाव विहार से डालकर उसे व्यथाग्रस्त, तनाव-ग्रस्त रखा जाता है तो पेट में रक्तस्राव होने, यकृत-शोथ, सिरोसिस, साण्डुरोग आदि होने लगते हैं। इस प्रकार जहाँ सृजन और ध्वंस की अनवरत प्रक्रिया मानव-शरीर में चलती रहती है, वहीं विधेयात्मक प्रवृत्तियों से सत्परिणाम और निषेधात्मकता के दुष्परिणाम भी सामने आते रहते हैं। हमारा विवेक जागृत हो, तो यह अपना शरीर भी अपना गुरु व मार्गदर्शक मित्र बन सकता है।


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