नौशेरवाँ को, जो भी मिले उसी से कुछ न कुछ सीखने का स्वभाव हो गया था। अपने इस गुण के कारण ही उन्होंने अपने जीवन के स्वल्प काल में महत्त्वपूर्ण अनुभव अर्जित कर लिये थे।
राजा नौशेरवाँ एक दिन वेष बदलकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध किसान मिला। किसान के बाल पक गये थे पर शरीर में जवानों जैसी चेतनता विद्यमान थी। उसका रहस्य जानने की इच्छा से नौशेरवां ने पूछा-महानुभाव! आपकी आयु कितनी होगी?
वृद्ध ने मुस्कान भरी दृष्टि नौशेरवाँ पर डाली और हँसते हुये उत्तर दिया-”कुल 4 वर्ष।”
नौशेरवाँ ने सोचा बूढ़ा दिल्लगी कर रहा है पर सच-सच पूछने पर भी जब उसने 4 वर्ष ही आयु बताई तो उन्हें कुछ क्रोध आ गया। एक बार तो मन में आया कि उसे बता दूँ-”मैं साधारण व्यक्ति नहीं नौशेरवाँ हूँ। पर उन्होंने अपने विवेक को सँभाला और विचार किया कि उत्तेजित हो उठने वाले व्यक्ति सच्चे जिज्ञासु नहीं हो सकते, किसी के ज्ञान का लाभ नहीं ले सकते, इसलिये उठे हुये क्रोध का उफान शान्त हो गया।
अब नौशेरवाँ ने नये सिरे से पूछा-पितामह! आपके बाल पक गये, शरीर में झुर्रियाँ पड़ गईं, लाठी लेकर चलते हैं मेरा अनुमान है आप 80 से कम के न होंगे फिर आप अपने को 4 वर्ष का कैसे बताते हैं?
वृद्ध ने इस बार गम्भीर होकर कहा-आप ठीक कहते हैं मेरी आयु 80 वर्ष की है किन्तु मैंने 76 वर्ष धन कमाने, ब्याह शादी और बच्चे पैदा करने में बिताये, ऐसा जीवन तो कोई पशु भी जी सकता है, इसलिये उसे मैं मनुष्य की-अपनी जिन्दगी नहीं किसी पशु की जिन्दगी मानता हूँ।
इधर 4 वर्ष से समझ आई। अब मेरा मन ईश्वर उपासना, जप, तप, सेवा, सदाचार, दया, करुणा उदारता में लग रहा है। इसलिये मैं अपने को 4 वर्ष का ही मानता हूँ। नौशेरवाँ वृद्ध का उत्तर सुन-कर अति सन्तुष्ट हुये और प्रसन्नतापूर्वक अपने राजमहल लौटकर सादगी सेवा और सज्जनता का जीवन जीने लगे।