धर्मं की शक्ति महान् है। इससे भी अधिक महान् वे लोग हैं, जो वास्तविक धर्म को सम कर तदनुसार व्यवहार करते हैं। धर्मं का वास्तविक अर्थी होता है ‘कर्त्तव्यपरायणता’। व्यक्ति का स्वयं के प्रति, परिवार के प्रति, देश व समाज के प्रति यहाँ तक कि मानवमात्र या प्राणिमात्र के प्रति क्या कर्त्तव्य हैं? उन्हें पूरा करना क्यों आवश्यक है- इसकी व्याख्या विवेचना करने वाले को एक शब्द में धर्म के नाम से कहा जाता है। शास्त्रों में इसी धर्म की महता यंत्र-तंत्र-सर्वत्र प्रतिपादित की गयी है-
एक एवं सुहृद्धर्मों निधेनऽप्यनुयाति यः। शरीरेण समं नाश सर्वम-यद्धि गच्छति॥-मनु
धर्म ही एक मात्र मित्र है, जो मरने पर भी साथ जाता है, और सब तो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है।
धर्म कामदुधाः धेनूः सन्तोषो नन्दनं वनम्। विद्या मोक्षकरी प्रोक्ता तृष्णा वैतरणी नदी॥
धर्म ही कामधेनु के समान सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला है, सन्तोष ही स्वर्ग का नन्दन वन है, विद्या (ज्ञान) ही मोक्ष की जाननी है और तृष्णा वैतरणी नदी के समान नरक में ले जाने वाली है।
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्। धर्मेण लभते सर्वं धर्म सारमिद जगत्।
धर्म से अर्थ उत्पन्न (प्राप्त) होता है, धर्म से सुख प्राप्त होता है धर्म से ही सब कुछ प्राप्त होता है, ‘धर्म’ ही इस संसार का सारतत्त्व है।
रामायण में प्रसंग आता है कि नर लीला करते हुए जब भगवानराम को अपनी सुरक्षा के विषय में सन्देह होता है तब उन्हें धर्म द्वारा ही रक्षा होने की बात बताई जाती है-
यं पालयिस धर्मं त्वं धृत्या च नियमने च। स बै राघव शार्दूल धर्मस्त्वामभिरक्षतु॥ -बाल्मीकीय रामायण-अयोध्या
हे राघव! (राम) तुम्हारी सुरक्षा के लिए मैं क्या करूं? निश्चित रूप से केवल धर्म ही तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम जिस धर्म का धैर्य और नियम के साथ पालन करते आये हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।
वास्तव में इस समस्त विश्व की प्रतिष्ठा स्थिति) धर्म से ही है-
धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति। धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितम्॥ तस्माद धर्म परमं वदन्तिः -नारायणोपनिषद्
धर्म ही सम्पूर्ण विश्व को प्रतिष्ठिता एवं स्थिर करने वाला है। धर्मिष्ठ (धार्मिक) के पास ही प्रजाजन जाते हैं धर्म से ही पाप दूर होता है, धर्म में सब की प्रतिष्ठा (स्थिरता या सत्ता) है, इसी कारण धर्म को सबसे बड़ा (श्रेष्ठ) कहा गया है।
मृतं शरीरमुत्सुज्य काष्ठलोष्ठ समक्षितौ। विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥ तस्मार्द्धमं सहायार्थं संचिनुयाच्छनैः। धर्मेण हि सहायेन तमसतरति दुस्तरम्।
‘मनुष्य के मर जाने पर, घर परिवार के लोग लकड़ी और मिट्टी के ढेले के समान फेंक कर चले आते हैं धर्म ही केवल उसके साथ जाता है धर्मं की सहायता से निश्चित रूप से मनुष्य अपने दुस्तर अन्धकार (अज्ञानांधकार) को पार कर लेता है, अतः अपने सहायतार्थ मनुष्य को धीरे-धीरे धर्म संचय करना अत्यावश्यक है।
धर्म की इस महिमा को देखते हुए, जीवन में इसकी अनिवार्यता स्वतः सिद्ध हो जाता है। हमें धर्म के वास्तविक रूप को समझने का प्रयास करना चाहिये और तदनुसार अपने आचार- व्यवहार में उसका समावेश करना चाहिये। कर्म को पूजा समझकर, उसे पूरा करने वाले व्यक्ति का प्रत्येक क्रिया-कलाप धर्म सम्मत ही माना जायेगा। इस प्रकार की ‘कर्तव्यपरायणता’ से युक्त व्यक्ति ही समाज में सम्माननीय और अभिनन्दनीय बनते हैं। उन्हीं की यश गाथा संसार में प्रसिद्ध होती है।