मनुष्य के विकास में उसके चारों तरफ के वातावरण का प्रमुख सहयोग हुआ करता है। मनुष्य में जो कुछ श्रेष्ठता था निकृष्टता परिलक्षित होती है, वह प्रायः उसके वातावरण, तथा संगी-साथियों को देन होती है। सद्गुण सम्पन्न व्यक्तियों का साथ सद्गुणों की वृद्धि करता है, इसके विपरीत दुष्ट-दुर्जन के साथ रहने से दुर्ग गुणों की वृद्धि होती है। इसी को संगति का प्रभाव कहा जाता है। जैसी संगति होती है, व्यक्ति में उसी प्रकार के गुण-दोष स्वतः आने लगते हैं। फलतः व्यक्ति, अच्छे लोगों के संसर्ग से अच्छा और घटिया लोगों के संसर्ग से घटिया बन जाता है। शास्त्रों में भी वर्णन आता है-
यादृशो यस्य संसर्गो भवेत्तद्गुणदोष भाक्। अयस्कान्तमणेर्योगादयोप्याकर्ष को भवेत्॥
जिस प्रकार का जिसका संसर्ग (साथ) होता है, उसी प्रकार के गुण-दोषों से वह सम्पन्न हो जाता है पारस-मणि के संसर्ग से लोहा भी सोना बन जाता है।
शास्त्रों में इसीलिए श्रेष्ठ व्यक्तियों के साथ-साथ रहने, मित्रता करने आदि की बात कही गई है, दुर्जनों के साथ किसी भी प्रकार व्यवहार करना निषिद्ध बताया गया है-
सद्भिरेव सहासीत् सद्भिः कुर्वीत संगतिम्। सद्भिर्विवादं मैत्रींच नासद्भिः किंचिदाचरेत्॥
सज्जनों के साथ ही रहना चाहिए, उन्हीं की संगति करनी चाहिए, उनके साथ ही बातचीत व मित्रता करनी चाहिए दुर्जनों के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए।
वाल्मीकि, अंगुलिमाल जैसे कुमार्ग गामी भी सत्संगति के प्रभाव से महान् सन्त बन गये। मूर्ख व्यक्ति भी विद्वानों की संगति से विद्वान बन जाया करता है, मामूली मूल्य का काँच भी कंचन के संयोग से बहुमूल्य बन जाता है-
काचः कांचनसंसगद्धित्ते मारकतीं द्यतिम्। तथा सतसन्निधानेन मूर्खो याति प्रवीणतान्।
सामान्य-सा काँच, सुवर्ण के संयोग से मरकत मणि जैसी कान्ति को प्राप्त कर लेता है तथा सद्गुण सम्पन्न व्यक्ति के संग स मूर्ख में भी प्रवीणता आ जाती है’ इसके विपरीत असज्जनों का संग पतन के गर्त में धकेल देने वाला होता है-
‘असताँ संगदोषेण कोन याति रसातलम्।’
असज्जनों ( दुष्टों ) के संगदोष से कौन व्यक्ति रसातल में नहीं चला जाता अर्थात् पतन के गर्त में नहीं गिर जाता, प्रायः सभी गिर जाते है। नीच व्यक्ति के साथ रहने से नीचता, मध्यम प्रकृति वाले व्यक्ति के साथ रहने से मध्यम प्रकृति तथा विशिष्ट व्यक्तियों के साथ रहने से व्यक्ति में विशिष्ट गुणों की वृद्धि हो जाती है-
हीयते हि मतिस्नात हीनैः सह समागमात्। समैश्च समतामेति विशिष्टैश्च विशिष्टताम्॥
वास्तव में सभी प्रकार के गुण-दोष संसर्ग से ही विकसित होता रहते है-
सर्गजाः दोष गुणाः भवन्ति।
इसीलिए दुष्टजनों के संपर्क का सर्वत्र निषेध किया जाता रहा है-
वरं गहनदुर्गेषु भ्रान्त्रं वनचरैः सह। न दुष्टजन सर्म्पकः सुरेन्द्र भवनेष्वपि॥
भयंकर जंगली पशुओं के बीच रहना ठीक है, लेकिन दुष्ट-दुर्जनों के साथ इन्द्र के वैभव सम्पन्न भवन में भी निवास करना उपयुक्त नहीं है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है, कि श्रेष्ठ-सद्गुणों का विकास श्रेष्ठ लोगों की संगति से हुआ करता है। अतएव श्रेष्ठता अभिवर्धन हेतु सदैव श्रेष्ठ व्यक्तियों का संसर्ग आवश्यक है।