धन का संग्रह नहीं, सदुपयोग किया जाय,

July 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शरीर यात्रा और परिवार पोषण के लिए धन उपार्जन आवश्यक है। इसके लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए। पर साथ ही वह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि मानव जीवन की सार्थकता के लिए व्यक्तित्व को सुसंस्कृत एवं परिष्कृत बनाने के लिए प्रयत्न किये जा रहे है या नहीं। समाज की ऋण मुक्ति और ईश्वरीय प्रयोजन पूरा करने के लिए बढ़-चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करना भी आवश्यक है। इन दोनों कार्यों के लिए श्रम,समय,चिन्तन, मनोयोग, प्रभाव, प्रतिभा और शक्ति को लगाया जाना चाहिए। यदि धन की लिप्सा ने अभीष्ट तृष्णा का रूप धारण कर लिया तो चिन्तन और थम पूरी तरह उसी दिशा में लगा रहेगा। फिर उच्चस्तरीय अध्यात्म प्रयोजन मात्र एक कल्पना की वस्तु बनकर रह जायेगा। फलतः व सारे कार्य अपूर्ण ही पड़े रहेंगे जिनके लिए मनुष्य जीवन का अनुपम उपहार मिला है। दूरदर्शिता इसी में है कि शरीर और परिवार के लिए धन उपार्जन में उतना श्रम किया जाय और मनोयोग लगाया जाय जिससे सामान्य निर्वाह की गाड़ी किसी प्रकार लुढ़कती रहे।

अनावश्यक धन उपार्जन कानूनी दृष्टि से अपराध नहीं है, उस पर मात्र शासकीय कर-व्यवस्था जैसे प्रतिबन्ध ही है। किन्तु सामाजिक दृष्टि से अति संग्रह और अपव्यय निश्चित रूप से अपराधों की श्रेणी में गिने जाने योग्य है। शास्त्र परम्परा में सीमित मात्रा में न्याय पूर्ण श्रमयुक्त आजीविका उपार्जन तक ही अपनी गतिविधियाँ सीमित रखने के लिए कहा गया है। देश वासियों की औसत स्थिति में निर्वाह करते हुए शेष को परमार्थ प्रयोजनों में लगा देने का निर्देश है। अनावश्यक संग्रह के दुष्परिणामों की ओर जनसाधारण का ध्यान आकर्षित किया गया है।

वेद में साधक भगवान से प्रार्थना करता है-

शिवा अर्स्मभ जातवदों नियच्छ। रमंता पुष्पा लक्ष्मीर्याः पापिस्ता अनीनशम्। प्रपतेतः पापि लक्ष्मि नश्येतः प्रानुतःपत।

हे सर्वज्ञ परमेश्वर! हमें कल्याणकारी और पवित्र सम्पत्ति (लक्ष्मी) देना। पवित्र वन ही हमारे घर को

सुखी बनाये और अनीति, पाप से आये धन का नाश हो। हे पाप मय धन की देवी लक्ष्मी तू चली जा, अदृश्य हो जो और अति दूर चली जा।

धन की पवित्रता के लिए शास्त्र कहता है-

सर्वेषामेव शौचनामर्थशौच परं स्मृतम्। यार्न्थे शुचिहि स शचिर्न मृद् वारि शुचिः शुचिः॥

जिसका अर्थ पवित्र है उसी का जीवन पवित्र है। मिट्टी, पानी के उपयोग से अपने को पवित्र मानने वाला पवित्र नहीं क्योंकि समस्त प्रकार की पवित्रताओं में धन की पवित्रता ही सर्वोपरि कही गयी है।

नेहेतार्थान प्रस..... न विरुद्धेन कर्मणा। न विद्य ( कल्प ) मानेण्त्रर्थेषुँ नात्यामपियतस्ततः॥ ( मनु )

पैसा धर्म विरुद्ध निन्दित कर्म करके न कमायें। जिसके पास गुजारे के लिए पैसा है वह भी जमा करने के लिए न कमायें।

अधिक धन संग्रह मनुष्य को चिन्ता ग्रस्त बनाये रहता है

राजतः संलिलादग्नेश्रोरतः स्वजनादपि। भयमर्थवताँ नित्यंमृतयोः प्राणभृतामिव॥ ( महाभारत )

धनवान् व्यक्ति शासक, राजा, कर्मचारी अग्नि, जल, चोर और अपने सम्बन्धियों से भी भयभीत रहते है। उन्हें सम्पत्ति उसी प्रकार चिन्तित किये रहती है जैसे प्राणी को मृत्यु।

अतः वनं उपार्जन को नीतियुक्त मार्ग अपनाया जाना चाहिए। शरीर निर्वाह एवं परिवार पोषण में कम से कम धन का प्रयोग करते हुए समाज के लिए, मानव मात्र के लिए बचे भाग को समर्पित करना ही धन की महत्ता एवं सदुपयोग है। अनावश्यक संग्रह तो विग्रह ही पैदा करेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118