पराजित और श्रद्धानत्

July 1979

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शत्रु सेना का मुकाबला करने और उसे राज्य की सीमा से दूर तक खदेड़ देने के लिए युद्ध अभियान पर गये सेनानी भामलेकर को प्रतीक्षा कर रहे थे, छत्रपति शिवाजी को चिंता थी कि कहीं आशा के विपरीत भामलेकर शत्रु सेना के बंदी तो न हो गये हों।

प्रतीक्षा करते हुए काफी देर हो गयी थी, शिवाजी महल का अट्टालिका पर ही बैठे थे। उन्होंने एक सेनानी को देखा। निकट आने पर जाना यह भामलेकर ही थे। चाल देख कर ही अनुमान लगा लिया कि वह विजयी श्री का वरण कर लौटे है, पर उनके पीछे दो सैनिक जो डोला लेकर आ रहे थे उसके बारे में छत्रपति को कुछ समझ में नहीं आया।

दौड़कर वे नीचे आये और भामलेकर को गले लगा लिया। भामलेकर ने कहा -’छत्रपते! आज मुगल सेना दूर तक खदेड़ दी गयी। बेचारा बहलोल जान लेकर भागा। अब ताकत नहीं कि मुगल सेना इधर की तरफ मुँह भी कर सके।’

‘वह तो मैं तुम्हें देख कर ही समझ गया था भामले - छत्रपति ने कहा और डोले की ओर इशारा करते हुए कहा

-’यह क्या है?’

अट्टहास करते हुए भामले ने कहा- ‘इसमें मुसलिम रमणियों में सुँदरता के लिए प्रसिद्ध बहलोल की बेगम है महाराज! मुगल सरदारों ने हजारों हिन्द नारियों का सतीत्व लूटा है। उसी का प्रतिशोध लेने के लिए मेरी आपको भेंट है।,

‘छिः छिः’ - शिवाजी के मुंह में जैसे किसी ने कड़वा पेय उड़ेल दिया हो। इसके बाद वे डोले के पास गये, पर्दा हटाया ओर बहलोल की बेगम को बाहर आने के लिए कहा। छुई मुई सी अपने आपमें सिमटती सिकुड़ती वह बाहर आयी शिवाजी ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा और कहा- सचमुच तू बड़ी ही सुँदर है। अफसोस है कि मैं तेरे पेट से पैदा नहीं हुआ, नहीं तो मैं भी तेरे जैसा ही सुंदर होता।’

भविष्य के लिए ऐसा न करने को सतर्क करते हुए शिवाजी ने अपने एक अन्य अधिकारी को निर्देश दिया कि वह बेगम को बहलोल खाँ के पास ले जाकर ससम्मान सौंप आये। इसके बाद वे भामलेकर से बोले- ‘भामले! तुम मेरे साथ इतने दिन रहे, पर मुझे नहीं पहचान सके। वीर उसे नहीं कहते जो अबलाओं पर प्रहार करे, उनका सतीत्व लूटे और धर्म - ग्रन्थों की होली जलाये। कोई पाप और पतन के गर्त में गिरता हो तो उसके प्रतिकार का यह अर्थ नहीं हैं कि हम भी उसी तरह की नीचता पर उतर आयें।’

इधर बेगम को ससम्मान लौटाया देख कर बहलोल खाँ विस्मित हुए बिना नहीं रहा। वह तो सोच रहा था कि अब उसकी सबसे प्रिय बेगम शिवाजी के हरम का शोभा बन चूकी होगी, पर बेगम ने अपने पति को छत्रपति के बारे में जो कुछ बताया वह जान कर तथा अधिकारी के हाथों भेजा गया पत्र पढ़ कर बहलोल खाँ जैसा क्रूर सेनापति पिघल उठा। पत्र में शिवाजी ने अपने सेनानायक की गलती के लिए क्षमा माँगी थी। इस पत्र को देख कर स्वयं को बहुत महान, वीर और पराक्रमी समझने वाला बहलोल खाँ अपनी ही नजर में शिवाजी के सामने बहुत छोटा दिखाई देने लगा। उसने निश्चय किया कि इस फरिश्ते को देख कर ही दिल्ली लौटूँगा।

इसके लिए आग्रह भेजा गया। बहलोल खाँ और शिवाजी के मिलने का समय व स्थान निश्चित हुआ नियत तिथि, समय व स्थान पर शिवाजी बहलोल खाँ के पहले ही पहुंच गये। बहलोल खाँ जब वहाँ पहुँचा तो पश्चात्ताप आत्मग्लानि के साथ साथ शिवाजी के महान व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धाभाव से इतना अभिभूत था कि देखते ही परों में झुक गया - “माफ कर दो मुझे मेरे धरिश्ते। बेगुनाहों का खून मेरे सर चढ़कर बोलेगा और मैं उनकी आह से जला जाऊँगा। उस समय तेरी सूरत की याद मुझे थोड़ी सी ठंडक पहुँचायेगी।”

‘ जो हुआ सो हुआ, अब आगे का होश करो’ - एक पराजित और श्रद्धानत सेनापति को छत्रपति ने गले से लगाते हुए कहा।


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