अन्तः करण की सुंदरता साधन से बढ़ती है।

July 1979

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बुद्ध ने कहा था- अच्छे जीवन का सार है- “सुन्दर का मनन”। स्पष्ट है कि यह सुन्दरता बाहरी नहीं हो सकती। सत्य और शिव ही सुन्दर है इसीलिये सुन्दरता के मनन का अर्थ है-सत्यं और शिव का मनन। यही बात गाँधी जी अपने ढंग से इस प्रकार कहते थे- “तपस्या जीवन में सरल सौंदर्य की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है।” इस प्रकार गाँधी जी की दृष्टि में तपस्वी होना ही सचमुच सुन्दर होना है।

वस्तुतः सुन्दरता का अर्थ ही है पवित्रता और सुव्यवस्था। देह वही सुन्दर कही जाती हैं जो स्वस्थ-सुडौल और स्वच्छ हो। कपड़े वही सुन्दर कहे जाते है, जो स्वच्छ हों और दूसरों को भी भाएँ। यह सही है कि सुन्दरता कई बार शृंगारिकता का पर्याय मान ली जाती है। किन्तु उसका कारण दृष्टि का सिर्फ ऊपर ही ऊपर अटकी रहना है। बाहरी सुन्दरता को सराहने वाले में दृष्टि के पैनेपन का अभाव होता है। पर जो कुछ वह देख रहा होता है वह स्वच्छता और सुव्यवस्था ही होती है। ऐसी कभी भी नहीं होता कि गंदगी और अस्त-व्यस्तता, शिथिलता या विकृति समझ में आ रही हो, तब भी उसे सुन्दर मान लिया जाये। जो लोग शरीर की सुन्दरता पर ही मुग्ध होते है, वे उस समय भीतरी प्रवृत्तियां देख नहीं रहे होते। अतः उसे उनकी दृष्टि का उथलापन या विवेक की दुर्बलता तो कहा जायेगा। पर जिसे वे गंदा देख रहे है, उसे वे भी नापसंद करेंगे।

जो लोग जीवन का सार शरीर और उसके लिये आवश्यक उपकरणों को ही मानते है, उनके लिये उसी में जुटना उचित ही है। मन, बुद्धि, अन्तः करण का भी अस्तित्व और महत्व मानने वालों को उनकी सुन्दरता के संरक्षण-अभिवर्धन की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अन्यथा वे असौंदर्य, गंदगी और अपवित्रता के उपासक कहे जायेंगे।

अन्तःकरण की सुन्दरता की रक्षा और वृद्धि के प्रयासों को ही साधना कहा जाता हैं। अन्तःकरण ही मानवी सत्ता का केन्द्र बिन्दु है। उसकी स्थिति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर प्रभाव नहीं पड़ता। जा आज सिर्फ धोती- कुर्ता पसन्द करने लगे, तो इससे उसकी स्वयं की स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन न होगा। न ही उसके आस-पास इस परिवर्तन से कोई उल्लेखनीय उथल पुथल होगी। बहुत हुआ, तो हल्की -सी चर्चा, उत्सुकता या विनोद तक बात पहुँचेगी।

किन्तु अन्तःकरण की रुचियों में परिवर्तन होते ही पूरे जीवन का स्वरूप असाधारण तौर पर बदलने लगता है। वाल्मीकि का शरीर और मस्तिष्क नहीं था। पर उनके अन्तःकरण में एक नयी आस्था पैठ गयी, डाकू का जीवन उन्हें अनुचित और साधु-जीवन उचित लगने लगा, तो काया कल्प ही हो गया। खुद उनका स्वयं का व्यक्तित्व बदल गया, उनके परिजनों का भी जीवन - क्रम बदल गया। एक डाकू आदि कवि बन गया। जंगल का अल्पज्ञता तिरस्कृत दस्यु विश्ववंदित मनीषी, साहित्यकार बन गया। अजामिल, अंबपाली, अंगुलिमाल, विल्वमंगल आदि के जीवन- क्रम में ऐसा ही उलट-पुलट हुआ। कारण रहा अन्तःकरण की स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन। उचित और अनुचित की एक नयी मान्यता - आस्था का उदय।

इसी अन्तःकरण के क्षेत्र को प्रभावित करने का प्रयास साधना कहलाता है। शरीर की सुन्दरता की रक्षा के लिये उसे व्याधियों से मुक्त रखना होता है और पोषक तत्व जुटाना होता है। अन्तःकरण को कुसंस्कारों - कषाय कल्मषों की भयानक व्याधियों से साधना की औषधि ही मुक्त करती है। अन्तःकरण की गहराई तक उत्कृष्टताओं को पहुँचाने वाले भाव-संवेदनों के इन्जेक्शनों का नाम ही साधना है।

असत् से सत् की ओर अंधकार से आलोक की ओर और विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम साधना है। चेतना के समुद्र में अनन्त ऐश्वर्य-दायक रत्न-भंडार भरे पड़े है। उन्हें पाने के पुरुषार्थ को ही साधना कहते है। वह भीतर की स्वच्छता और श्रृंगार-सज्जा है।

शरीर के विकास-पोषण के लिये स्वास्थ्य के नियमों की जानकारी और उनको जीवन में अपनाना आवश्यक होता है। मन-बुद्धि को विकसित करने के लिये शिक्षा, साहित्य, संपर्क-जन्य अनुभव आदि आवश्यक है। उसी प्रकार चित्त के विकास परिष्कार का मार्ग साधना है।

स्वर्ण की आभा पकने पर फौलाद बनता है। खारा और भारी जन तपाने के बाद हलका और मीठा हो जाता है। ये सब उन वस्तुओं की साधना कही जा सकती है। व्यक्तित्व की साधना इसी प्रकार आभा निखारती, परिपक्वता-सुदृढ़ता बढ़ाती और सात्विकता मधुरता पैदा करती है। मनुष्य के भीतर जो दिव्य, अलौकिक और अद्भुत है, उसे साधना द्वारा ही उभारा-निखारा जा सकता है।

साधना से ही व्यक्तित्व विकसित - परिवर्तित होता और महिमा-मंडित, गरिमापूर्ण बनता है। मानवीय चेतना साधना द्वारा ही अपनी स्वाभाविक सुन्दरता-उज्ज्वलता से समृद्ध बनती है।

साधना का अर्थ है चिन्तन और मनन। आत्म-चिन्तन द्वारा अपनी समीक्षा आप ही करनी चाहिए। जैसे प्रयोगशाला में पदार्थों का वर्गीकरण कर उनकी संरचना के तत्वों को देखा-परखा जाता है, उसी प्रकार अन्तःकरण की प्रयोगशाला में चिन्तन-प्रक्रिया द्वारा अपनी भीतरी स्थिति का वर्गीकरण कर उसे देखा -परखा जाता है। गुण-कर्म-स्वभाव की स्थिति और प्रकृति समझी जाती है। उनका आदर्श स्वरूप क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है, यह विचारपूर्वक निर्धारित किया जाता है।

आत्म-समीक्षा से प्राप्त निष्कर्षों का मनन करना, उस हेतु निर्धारित उपायों को अपनाना और अभीष्ट दिशा में जीवन-क्रम को ढालते जाना साधना का अगला चरण है। यह कठिन कार्य यों ही नहीं हो जाता। एक तो आत्म- समीक्षा ही कठिन है। अपने दोष देखने की सामान्यतः व्यक्ति में प्रवृत्ति नहीं होती। वैसी प्रवृत्ति अपनाना सरल नहीं है। फिर, दोष समझ में आ जाने भर से दूर नहीं होते। उसके लिये अपने ही अब तक के अभ्यास के विरुद्ध चलना होता है। धारा के प्रतिकूल तैरने का श्रम सर्वविदित है। अपने आप से संघर्ष करना, दुर्बुद्धि-दुष्प्रवृत्ति से लड़ना कठिन नहीं। बाहरी गंदगी तो स्पष्ट दिख जाती है; पर भीतर की गंदगी अभ्यासवश प्रिय और आकर्षक लगने लगती है। उसे समझना भी कठिन है। हटाना तो और भी दुष्कर है। क्योंकि इस सफाई में जिन उपकरणों का प्रयोग होता है, वे बाहरी नहीं है। वे गंदे होते हुए भी अपने स्वच्छ होने का भ्रम पैदा कर सकते है। इसीलिये एक बार आत्म-समीक्षा करने भर से काम नहीं चलता। उस आत्मशोध के निष्कर्षों का निरन्तर मनन करना आवश्यक है। मनन से कर्त्तव्यों का स्मरण रहेगा। आत्म-निर्माण की दिशा याद आती रहेगी और अपना संकल्प भी प्रबल बना रहेगा। तभी आत्मविकास सम्भव होगा।

इस कठिन काम को ही साधना कहते है। प्रचंड मनोबल और जागृत संकल्प शक्ति द्वारा ही यह सम्भव होता है, इस प्रक्रिया में एक प्रकार से अन्तःयुद्ध जैसी ही स्थिति उत्पन्न होती है। इसीलिये साधना को समर कहा गया है। कचरे के विशाल ढेर को हटाने के लिये सफाई-कर्मचारियों को उससे जूझना ही पड़ता है। बाढ़ या तूफान के समय जब प्रकृति के उत्पात से मलबों और लाशों का अम्बार लग जाता है, तब उसे हटाने के लिये सेना की मदद लेनी पड़ती है। फौज जैसी चुस्ती और तत्परता के बिना अपेक्षित सफाई सम्भव नहीं होती।

आन्तरिक क्षेत्र में अपनी अन्तःप्रकृति के उत्पात इसी तरह का मलबा-कचड़ा जमा कर देते है। उन्हें हटाने के लिये सैनिक जैसी तत्परता और श्रमशीलता आवश्यक होती है। साधना-समर में विजय तभी प्राप्त होती है। बुरे विचारों को अच्छे विचारों से काटना पड़ता है। गलत आदतों को दूर कर नई आदतों का अभ्यास करना होता है। निकृष्टता की ओर आकर्षित करने वाले वातावरण के स्थान पर चारों ओर उत्कृष्ट वातावरण बनाना होता है।

कचरा हटा देने भर से कोई स्थान सुन्दर नहीं हो जाता। वहाँ वातावरण को पवित्र बनाना होता है। फिर पुष्प वाटिका मनोहर उद्यान, मंदिर या अन्य कोई सुन्दर भवन बनाना होता है। नव-निर्माण और श्रृंगार-सज्जा के द्वार ही वह स्थान होता है। दुर्बुद्धि दुष्प्रवृत्तियों की समाप्ति और सद्बुद्धि सत्प्रवृत्तियों का विकास करने पर ही अन्तःकरण सुन्दर बनता है। इसके लिये विचार-संघर्ष और कर्म-संघर्ष की समन्वित प्रक्रिया अपनानी पड़ती हैं।

शरीर की स्वच्छता और श्रृंगार-सज्जा भी सुखकर है। पर अंतःकरण की मलिनता उस सुख की अनुभूति में भी बाधक बनती हैं। उपेक्षित अंतःकरण किसी भी प्रकार के सुख की सहज अनुभूति के योग्य सशक्त नहीं होता। अतः उसे स्वच्छ, स्वस्थ, सुन्दर बनाना शारीरिक सौन्दर्य के प्रयासों से भी पहले और बढ़-चढ़कर जरूरी है। इस प्रयास पुरुषार्थ को ही साधना कहते हैं।


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