शास्त्रों में एक मन्त्र आता है- “नमोः शम्भवाय च मयोभवाय च”। जिसका अर्थ है सुखकर को नमस्कार और कल्याणकर को भी नमस्कार। मन्त्र से स्पष्ट है कि सुखकर एवं कल्याणकारक का अन्योन्याश्रित संबंध है। दूसरे रूप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि वे सुख जो कल्याणकारी हैं उनको नमस्कार किया जाय, अपनाया जाय। सुख का अभिप्राय यहाँ भौतिक सुख से नहीं बल्कि - उन विशेषताओं से है जो मनुष्य को कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर करें। यह वह स्थिति है जो अन्तरात्मा को प्रफुल्लित करती है।
सामान्यता देखा यह जाता है कि लोग भौतिक सुखों को ही वास्तविक सुख समझते, उसे प्राप्त करने के लिए पूजा-अर्चना करते तथा कल्याण कारी मार्ग की उपेक्षा कर जाते हैं। धनी तथा विलासी प्रवृत्ति के व्यक्ति अपने ऐसे-आराम में प्रवृत्त रहते हैं। उनके जीवन का लक्ष्य अधिकाधिक सुख-साधनों का उपभोग करना है। फलतः वे अपने को पंगु बना डालते हैं। अपनी इन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं रहता। सुखोपभोग की प्रवृत्ति व्यक्ति की विशिष्ट क्षमताओं को नष्ट करती है तथा उन सारी सम्भावनाओं से वंचित कर देती है; जिनके लिए मानव जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपहार मिला। वे कल्याण का मार्ग इसलिए नहीं अपनाते कि वह दुःखों, कष्टों से भरा प्रतीत होता है।
कल्याणकारी मार्ग में भौतिक सुखों का मोह छोड़ना पड़ता है, तप-तितीक्षा का मार्ग स्वेच्छा से अपनाया जाता है। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि भौतिक सुखों से मुख मोड़े बिना उस मार्ग पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता है, किन्तु उन छोटे-मोटे अभावों से घबड़ा कर श्रेष्ठ मार्ग से कदम खींच लिया जाय, यह कितना अविवेकपूर्ण है। यह बात तो उसी प्रकार है जैसे एक विद्यार्थी परिश्रम के भय से परीक्षा की तैयारी करना ही छोड़ दे। परिश्रम न करने वाले विद्यार्थी को अन्ततः कितना घाटा उठाना पड़ता तथा पछतावा हाथ लगता है, उससे हर कोई परिचित है।
देखा यह जाता है कि अधिकाँश व्यक्ति आत्मोत्कर्ष के कल्याणकारी मार्ग से इस कारण डरकर विमुख होते हैं कि वह दुखोंकष्टों एवं अभावों से भरा हैं इस प्रकार की आशंका से आशंकित होकर वे कृत्रिम सुख-साधनों के मौज मजा करने में संलग्न हो जाते हैं। उनकी क्षमताएं, विशेषताएँ भौतिक-साधनों की प्राप्ति के ताना-बाना बुनने तक ही सीमित बनती तथा नष्ट होती रहती हैं।
अभावों के दुःख एवं पीड़ा के भय में कल्याणकारी जीवन लक्ष्य से ही विमुख हो जाया जाय, यह मानवी विवेक के लिए उचित नहीं है। इस प्रकार की भीरुता से मात्र विलासिता, तथा दुर्बलता की उत्पत्ति होती है। फल स्वरूप जीवन सम्पदा को इन्द्रियों के सुख में झौंक कर मनुष्य अन्ततः पश्चाताप की आग में जलता है। मलीनता के आवरण में जकड़ी उसकी आत्मा सदा कोसती तथा स्वतन्त्रता के लिए छटपटाती रहती है। मनुष्य जीवन की इसे सबसे बड़ी पराजय कहा जा सकता है।
आवश्यकता इस बात की है कि भौतिक सुखों की अपेक्षा कल्याण को वरण किया जाय। उन शाश्वत सुखों के लिए अपनी चेष्टाएँ हों, जो आत्मा को ऊँचा उठाने, जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग दे सकें शाँति, आनन्द, संतोष की उपलब्धियाँ यों किसी भी बाहरी सुख से कम नहीं वरन् अधिक ही हैं।
सुख प्राप्त तो किया जाय किन्तु वह शान्ति देने वाला हो-आत्मा को आनन्द प्रदान करने वाला हो कल्याणकारी हो। कल्याण की उपेक्षा कर इसकी बलि देकर यदि सुख को प्राप्त किया जाता है तो कभी भी स्थायी शान्ति नहीं मिल सकती न ही वह उद्देश्य पूरा होता है जिसके लिए शास्त्र का ऋषि कहता है। ‘नम्रोः शम्भवाय च मयोभवाय च’।