क्या जगत वस्तुतः मिथ्या ही है

July 1979

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शास्त्रकार संसार को माया एवं ब्रह्म को सत्य मानते हुए कहते हैं ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या।’ इस प्रतिपादन में जगत के मिथ्या होने की अवधारणा उसके अस्तित्व के संदर्भ में नहीं, वरन् स्वरूप के विषय में है। संसार स्वप्न है, माया है, एक प्रपंच है। इस प्रकार की मान्यता के पीछे एक ही तथ्य है कि संसार का जो स्वरूप हमारी इन्द्रियों को भासित होता है वह अवास्तविक है। इन्द्रियाँ, वस्तुओं एवं संसार का वास्तविक स्वरूप बता सकने में असमर्थ हैं। समुद्र में उठने वाली तरंगों की भाँति चेतना की लहरें स्थूल जगत का सृजन करती है। इन लहरों की उलट-फेर से ही जगत का सृजन परिवर्तन एवं विनाश की प्रक्रिया सम्पन्न होती रहती है। इसी कारण चेतन को सत्य तथा संसार को मिथ्या कहा गया है।

संसार स्वप्न, मिथ्या इस अर्थ में नहीं है कि जीवन का जो प्रवार चल रहा है वह मात्र एवं भ्रम है। श्वाँस लेना, खाना, पीना, सोना, श्रम करना जैसी क्रियाओं को भ्रम कहा जाय तो भूल होगी। कहना यह चाहिए कि-”वस्तुओं का जो स्वरूप दिखायी पड़ता एवं अनुभव में आता है वह भ्रामक है?”

इन्द्रियों को मिलने वाली जानकारियाँ कितनी अवास्तविक हैं इसका अनुमान तथ्यों के अवलोकन से लगता है। वस्तुओं का जो स्वरूप हमें दिखायी पड़ता है वह हमारी पूर्व बनायी गई मान्यताओं पर अवलम्बित है। वस्तु का स्वरूप किसी के सापेक्ष से निर्धारित किया जाता है। गुणों की दी जाने वाली परिभाषाएँ सापेक्ष सिद्धान्त पर आधारित है। अपनी बनायी गई मान्यताओं के सापेक्ष से ही वस्तुओं के विविध गुणों की विवेचना की जाती है। इन मान्यताओं द्वारा निरपेक्ष सत्य तक पहुँच सकना सम्भव नहीं। ईश्वर निरपेक्ष है। हमारी मान्यताएँ स्थूल जगत का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट कर सकने में असमर्थ हैं, फिर उस परम सत्ता को जिसके लिए शास्त्रकार नेति-नेति कहता है, अपनी स्थूल मान्यताओं द्वारा कैसे जाना जा सकता है।

आँख द्वारा विविध दृश्य देखे जाते हैं। विभिन्न प्रकार के रंगों का दिग्दर्शन होता है। विज्ञान के छात्र आँख की देखने की प्रक्रिया से परिचित हैं। प्रकाश किरणें वस्तु पर पड़कर आँखों की ओर लौटती है। उनका चित्र आँख की रेटिना पर बन जाता है। फलस्वरूप वस्तुओं क विविध रूप एवं रंग दिखायी पड़ता है। वस्तुओं के विभिन्न रंगों का कारण वस्तुतः प्रकाश किरणें हैं। उदाहरणार्थ बाग में गुलाब के पुष्प पर प्रकाश किरणें पड़ती हैं। विविध रंग की किरणें पुष्प पर पड़कर अवशोषित हो जाती है मात्र गुलाबी रंग की किरणें परावर्तित होकर हमारी आँखों तक पहुँचती तथा गुलाबी रंग का अनुभव कराती है। वस्तुतः यह प्रकाश किरणों की विशेषता है जिससे वस्तुओं में आकर्षक रंग दिखायी पड़ता है। अँधेरी रात में तो सभी वस्तुएँ काली ही दिखायी पड़ती हैं। प्रकाश का संयोग तथा वस्तु द्वारा अवशोषण, परावर्तन की प्रक्रिया जुट जाने से विभिन्न प्रकार के रंगों का आभास होता है।

स्पष्ट है कि किसी वस्तु का अपना कोई मौलिक रंग नहीं है। रंगों का निर्धारण प्रकाश के सापेक्ष है। इस प्रकार देखा जाय तो प्रतीत होगा कि रंगों के विषय में मिलने वाली आँखों की जानकारियाँ कितनी भ्रामक हैं।

त्वचा के स्पर्श द्वारा वस्तुओं के ठण्डा, गरम अथवा कड़ा, नरम होने की जानकारी मिलती है। त्वचा वस्तुओं के संपर्क में आती है, उनके स्फुरणा लेकर नाड़ी जाल द्वारा बुद्धि संस्थान तक पहुँचाती है। शरीर का निश्चित तापक्रम होता है उससे हर कोई परिचित है। बुद्धि उस तापक्रम को आधार मानकर ही गर्मी अथवा ठण्ड का अनुमान लगाती है। यह कायिक तापक्रम विभिन्न जीवों में भिन्न-भिन्न होता है। वह वस्तु जो हमें गरम प्रतीत हो रही हैं आवश्यक नहीं कि मनुष्येत्तर प्राणियों को भी गरम लगे। यही बात ठण्ड के लिए भी है। गर्मी ठण्ड का निर्धारण शारीरिक ताप के सापेक्ष किया जाता है। बाह्य वस्तुओं का तारतम्य हमारे शरीर के साथ कैसा है इतने मात्र की जानकारी त्वचा द्वारा होती है। वस्तुओं के कड़े अथवा नरम होने में भी यही बात लागू होती है। त्वचा एक सीमा तक कड़ाई तथा नरमी का बोध करा सकती है। उस स्थिति की कल्पना की जाय- यदि त्वचा इतनी संवेदनशील बन जाय कि वह आकाश जैसे सूक्ष्म तत्व को स्पर्श कर सके। उस स्थिति में पानी जैसा तरल पदार्थ भी हीरे जैसा कड़ा एवं कठोर मालूम पड़ेगा। जो कभी इतना नरम लग रहा था वही सापेक्ष आधार को बदल देने से कठोरता का परिचय देगा। सम्भव है मनुष्य की त्वचा को जिस रूप में वस्तुओं का अनुभव होता है अन्य जीव जन्तुओं को उसके विपरीत ही होता है।

न केवल आँख; त्वचा द्वारा वरन् अन्य शारीरिक इन्द्रियों द्वारा वस्तुओं के स्वरूप एवं गुणों का बोध जिस रूप में होता है उनमें सत्य की खोज की जाय तो स्पष्ट होगा कि इन्द्रियों की पकड़ एवं अनुभव में आने वाला स्वरूप कितना अवास्तविक है।

शब्दों के सुनने के साधन हमारे कान हैं। बाह्य जगत में उत्पन्न होने वाले ध्वनि कम्पन विभिन्न प्रकार के होते हैं। उनकी गतियाँ भी एक समान नहीं हैं। मनुष्य के कान की बनावट ऐसी है कि वह एक सेकेंड में तेतीस स्फुरणा से लेकर चालीस हजार स्फुरणा तक की ध्वनि को सुन सकती है। इससे कम अथवा अधिक स्फुरण वाले शब्दों को सुन सकना सम्भव नहीं है। अनेकों प्रकार की ध्वनि का विभेद करना कानों का नहीं बुद्धि का कार्य है। कौन स्वर किसका है इसका निश्चय बुद्धि करती है। बुद्धि का योगदान न हो तो कान पर ध्वनि पड़ते हुए भी इस बात का निर्धारण नहीं किया जा सकता कि कौन सी ध्वनि कहाँ से आ रही है तथा किसकी है।

कर्णेन्द्रिय अन्तरिक्ष में प्रवाहित ध्वनि कम्पनों में तेतीस स्फुरणा प्रति सेकेंड से लेकर चालीस हजार प्रति सेकेंड की स्फुरणा वाली ध्वनि तक को ही सुन सकने में समर्थ है। उसकी शक्ति सीमित है। कम अथवा अधिक स्फुरणा वाली ध्वनियों को हमारी कर्णेन्द्रिय सुन ही नहीं पाती जबकि अन्तरिक्ष में कम अथवा अधिक स्फुरणा वाली ध्वनियाँ भी निरन्तर प्रवाहित हो रही हैं। सुनने की यह सीमा जीव-जन्तुओं में भिन्न स्तर की होती है। जो ध्वनि हमें रुचिकर मालूम होती है यह आवश्यक नहीं कि उन प्राणियों को भी अच्छी लगे। कर्णेन्द्रिय ध्वनि का सही बोध कराने में अक्षम है।

जिह्वा के विषय रस हैं। रस के विषय में लोगों की मान्यता यह है कि यह वस्तुओं का गुण है जबकि तथ्य कुछ और ही है। जब कोई पदार्थ खाते अथवा पीते हैं तो हमारी जिह्वा से वस्तु की प्रतिक्रिया स्वरूप विशेष प्रकार के रसायनों का स्राव होता है। रसायनों का यह स्राव विभिन्न पदार्थों के साथ भिन्न प्रकार का होता है। रासायनिक स्राव के वस्तु के साथ मिलने से मीठा, खट्टा, नमकीन, कसैला, स्वाद का आभास होता है। यही कारण है कि एक ही पदार्थ सभी प्राणियों को एक जैसा नहीं लगता है। रसों का स्राव विभिन्न जीवों में एक प्रकार का नहीं होता है। नीम की पत्ती मनुष्य को कड़वी लगती है। जबकि ऊँट उन पत्तियों को बड़े चाव से खाता है। ऊँट की जिव्हा में स्थित ग्रंथियों से सम्भव है कि इस प्रकार के पदार्थ का स्राव होता हो जो नीम की पत्ती से मिलकर रुचिकर स्वाद, खट्टा अथवा मीठा का निर्माण करता हो। स्वाद की विभिन्नता अंतःस्रावी ग्रन्थियों पर निर्भर करती है। इस प्रकार वस्तुओं के गुणों के हिसाब से रसना द्वारा मिली जानकारी असत्य है।

गन्ध की स्थिति भी रस जैसी ही है। अणोन्द्रिय द्वारा अनुभव किये जाने वाले गन्ध सभी प्राणियों को एक प्रकार के नहीं लगते। एक गन्ध जो मनुष्य को प्रिय लगता है वही मनुष्येत्तर जीवों को अप्रिय लगता है।

देखने, सुनने, अनुभव करने जैसी आदि क्रियाएँ भी तभी सम्पन्न होती है जब उनके साथ ध्यान की प्रक्रिया जुड़ी हो। मस्तिष्क का चिन्तन कहीं अन्यत्र है तो वस्तु सामने रहते भी दिखायी नहीं पड़ती। ध्वनि कम्पन कर्णेन्द्रिय पर बराबर पड़ती रहती है किन्तु सुनायी नहीं पड़ती है। किसी कार्य में तल्लीन रहने पर कोई बुलाता है तो सुनायी नहीं पड़ता। त्वचा द्वारा अनुभव करना,


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