अमृत-पुत्र (kavita)

January 1978

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हम अमृत पुत्र, भय मृत्यु से कब हमें।कौन कहता, कि हम मृत्यु से डर गये॥ मृत्यु ने भी निमन्त्रण दिया जब हमें,मुस्कुराते हुए, मृत्यु के घर गये॥1॥

हम जिये चार दिन, पर जिये शान से।हम मरे भी अगर, तो मरे शान से॥ जी सके एक क्षण भी अपमान से।है धरोपा हमारा कि श्मशान से॥

मृत्यु हमको नहीं है अमंगलमयी, लोकहित, मुस्कुरा मृत्यु को वर गये॥2॥

हम सुधा भी, न अपमान की पी सके।जिन्दगी हम उपेक्षित नहीं जी सके॥

स्वर्ग की दासता भी न सह ही सके।स्वर्ण से क्या, नहीं लोह से भी झुके॥

विष पिया देव हित, मुस्कुराते हुये,और शिव की कथा को अमर कर गये॥3॥

स्वाभिमानी हमारा कि इतिहास है।और मृत्युंजयी आत्म-विश्वास है॥

स्नेहियों को समर्पित मधुर-हास है।शत्रुओं के लिए बाँह यम-पाश है॥

दी चुनौती हमें क्रूर-अन्याय ने,हम दधीची बने, वज्र-सा गिर गये॥4॥

आज ‘संकल्प’ युग के सृजन का किया।इस धरा पर कि स्वर्ग अवतरण का किया॥

और वृत देववत आचरण का किया।और साहस नये युग सृजन का किया॥

उर कि युग-पीर से छलछलाने लगा,हम कि सम्वेदना-भाव से भर गये॥5॥

-मंगल विजय

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*समाप्त*


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