ईश्वर प्रदत्त सौन्दर्य किसी-किसी को ही मिलता है। पर हर कोई अपने हाथों अपना प्राकृतिक सौन्दर्य बना और बढ़ा सकता है। सहज मुसकान का अभ्यास करने पर यह दिव्य उपलब्धि किसी को भी मिल सकती है। दाँत कितने ही कुरूप क्यों न हों जब वे कमल पुष्प की तरह खिलते हैं तो अतीव सुन्दर लगते हैं। मुसकाते हुए होठों की शोभा की तुलना अन्य किसी सौन्दर्य प्रसाधन से नहीं हो सकती। चेहरे को सुसज्जित करने के लिए केश सज्जा एवं रंग-रोगन के कितने ही प्रकार उपाय प्रचलित हैं, पर उन सबसे उत्कृष्ट एवं बिना मूल्य का उपाय सहज मुसकान से बढ़ कर और कुछ भी हो नहीं सकता। यह ऐसा चुम्बकत्व है जिससे हर किसी का मन आकर्षित होता चला जाता है। खिले हुए पुष्प पर भौंरे, तितली, मधुमक्खी झुण्ड के झुण्ड- मंडराते रहते हैं। उस पर हर किसी की ललचाई दृष्टि पड़ती है। मुसकाते होठों की भी ऐसी शोभा विशेषता है।
हंसते-मुसकराते व्यक्ति के पास बैठने का, उससे बातें करने का, मित्रता साधने का, हर किसी का मन करता है। समझा जाता है कि जो अपने से संतुष्ट है, जो सफल है, जो समृद्ध है वही प्रसन्न दिखाई दे सकता है। ऐसे व्यक्ति से कुछ पाने की आशा हर किसी को होती है। जो अपनी समस्याएँ हल कर चुका वह दूसरों को भी वैसे समाधान में सहायता दे सकता है। जो प्रसन्न है वह दूसरों को प्रसन्नता दे सकता है। जो स्वयं हंसता है वह दूसरों को भी हंसा सकता है। इन्हीं बातों के लिए हर कोई तरसता है। इसलिए प्रसन्न चित्त के प्रति आकर्षित होने और उससे सम्बद्ध रहने के लिए यदि लोगों का मन ललचाये तो इसे स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए। कहना न होगा कि जिसके मित्र और प्रशंसक अधिक होते हैं, वह सहयोग का आदान-प्रदान करके न केवल स्वयं आगे बढ़ता, ऊँचा उठता है, वरन् दूसरों के लिए भी वैसी ही सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में समर्थ रहता है।
स्वयं प्रसन्न रहना ऐसा सद्गुण है जिसके सहारे प्रसन्नता का प्रसाद दूसरों को भी वितरण किया जा सकता है। यह धन दान से भी बड़ा अनुदान है। हर कोई प्रसन्नता चाहता है। इसलिए समय लगाता, भागता, दौड़ता, दरवाजे खटखटाता और पैसा खर्च करता है। यह अनुदान जहाँ से भी मिलेगा वे वही होंगे जो स्वयं स्वाभाविक अथवा कृत्रिम रूप से प्रसन्न, हंसते-खिलते दीखते हैं। गायक, वादक, अभिनेता, नर्तक भीतर जैसे भी रहते हों- बाहर से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। सिनेमा, थियेटरों में ऐसे दृश्यों की भरमार रहती है जिनमें पात्रों को प्रसन्नता व्यक्त करते देखा जाता है। वृक्ष उद्यान, नदी-सरोवर, बादल, बिजली आदि में प्रकृति की प्रसन्नता दृष्टिगोचर होती है और उन्हें निहारने वाले को भी संतोष होता है। विवाह-शादियों, प्रीतिभोजों, हर्षोत्सवों और मेले-ठेलों में लोग इसीलिए जाते हैं कि वहाँ विनोद उल्लास का वातावरण रहता है। इस सम्पर्क में जो पहुँचता है वह भी प्रसन्नता साथ लेकर लौटता है। इस प्रसन्नता के अनुदान को वह व्यक्ति सहज ही बाँटता है, बखेरता रहता है जिसने अपना स्वभाव हंसने-मुसकाने का बना लिया है।
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रसन्न रहने की आदत का उत्साहवर्धक प्रभाव पड़ता है। खीजते रहने वाले-मुँह लटकाये और झल्लाते रहने वाले अन्य सुविधाएँ होते हुए भी अपना स्वास्थ्य गिराते, गंवाते चले जाते हैं। निराश, खिन्न, क्षुब्ध उद्विग्न मनुष्य अपने आपको दुखी बनाते हैं, निरानंद नीरस जिन्दगी जीते हैं और सम्बद्ध मनुष्यों को अपनी इस दुष्प्रवृत्ति के कारण दुःखी करते हैं। ऐसे लोगों से हर कोई बचना चाहता है। हम प्रसन्न रहें-प्रसन्नता बाँटे और हंसी-खुशी का वातावरण बनायें, इसी में जीवन की सार्थकता है।
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