कुपोषण से रुग्ण रहने वाले और अकाल मृत्यु के मुख में समा जाने वालों की संख्या संसार में बहुत है। दरिद्रता के कारण शरीर पोषण के उपयुक्त पौष्टिक आहार न मिलने से कितनों को ही दुर्बलता घेरती है। उस अविकसित स्थिति में कई प्रकार के रोग उठते हैं। रोते, कराहते किसी प्रकार कुछ समय जीवित रहने के पश्चात् असमय में ही कूच कर जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँची हुई मनुष्य जाति अपने सदस्यों के लिए उपयुक्त आहार तक की अवस्था न कर सके और उत्पादन के प्रचुर साधन रहते हुए भी करोड़ों को हर साल जीवन का आनन्द रहने से वंचित रहना पड़े।
इससे भी बड़ा दुर्भाग्य है अति पोषण। आर्थिक सुविधा सम्पन्न इस दूसरे आकार-प्रकार से दुर्भाग्य-ग्रस्त बनते हैं और कुपोषण ग्रस्तों की तरह ही रुग्णता एवं दुर्बलता से ग्रसित होकर मृत्यु के मुख में प्रवेश करते हैं। समझा जाता है कि अधिक मात्रा में, अधिक स्वादिष्ट तथा अधिक पौष्टिक समझे जाने वाले पदार्थ खाने से स्वाद का आनन्द मिलेगा और बल वृद्धि भी होगी किन्तु होता ठीक इसके प्रतिकूल है। पाचन की क्षमता, अपनी मर्यादा में ही आहार को हजम कर सकती है। पाचन तन्त्र का निर्माण इस प्रकार नहीं हुआ है कि उस पर कितना ही-कैसा भी भार क्यों न डाला जाय वह सब कुछ पचा सके। अनावश्यक मात्रा में- अति गरिष्ठ आहार पेट में पहुँच कर बिना पचा पड़ा रहता है और सड़ान का विष उत्पन्न करता है। इस विष का रक्त के साथ शरीर के विभिन्न अंगों में प्रवेश होता है और वे विविध आकार-प्रकार के रोगों से ग्रसित बनते हैं। इतना ही नहीं उस अनावश्यक भार का ढोने में घोर परिश्रम करने के कारण थके हुए पाचन तन्त्र अपनी क्षमता गंवाते चले जाते हैं। साथ ही अपच का विष उन्हें भी गलाता जलाता-क्षत विक्षत करता है। इस प्रकार पोषण की दृष्टि से किया गया आहार उलटे पाचन तन्त्र से लेकर समस्त शरीर के लिए विपत्ति का कारण बनता चला जाता है।
इंग्लैण्ड के प्रख्यात कार्डियोलाजिस्ट डॉ0 जे. एफ. गुडविन ने दिल्ली के स्वास्थ्य विशेषज्ञों के सम्मुख संसार में बढ़ रहे हृदय रोगों के प्रति चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा- “इसका बहुत बड़ा कारण ‘अति पोषण’ युक्त आहार है। माँस और चिकनाई के अति प्रयोग से हृदय रोगों की असाधारण वृद्धि हुई है। इतना ही नहीं उसके कारण पेट, छाती और जननेन्द्रिय में होने वाले कैन्सर का प्रधान कारण भी यह ‘अति पोषण’ ही होता है।
केन्सर निवारण के लिए संसार भर में अति महत्वपूर्ण प्रयत्न हुए हैं, शोधें हुई हैं और अभिनव उपचार ढूंढ़े गये हैं। रोकथाम के उपाय भी निकले हैं, पर उनमें सफलता नहीं मिली है जहाँ आहार-विहार की आदतों में सुधार किया गया है, चटोरे और पेटू लोग इन उपचारों का भी कोई लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। पेट का कैन्सर अन्य देशों में पहले की अपेक्षा घटा है, किन्तु जापान में अभी भी सुधार का कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसका कारण अति पोषण युक्त आहार ग्रहण करने और चटोरेपन की आदत को न छोड़ पाना ही समझा गया है। उस देश में माँस के बने पदार्थों में स्वादिष्टता बढ़ाने वाली पाक विद्या बहुत बढ़ गई है। व्यंजन बनाने में उन लोगों ने अपने चातुर्य और कौशल का भरपूर समावेश किया है। सुखानुभूति में काम कौतुक की तरह ही भोजन स्वादिष्टता में अभिरुचि बढ़ी है। फलतः उपभोग में आतुरता उत्पन्न हुई है। इस प्रकार जीभ और पेट पर भार तो बढ़ा है, पर उसे वहन करने की क्षमता में अभिवृद्धि सम्भव नहीं हो सकी है। परिणाम सामने है पेट की छुट-पुट बीमारियों ने भी उन्नति की है और वे कैन्सर जैसे भयंकर विद्रोह का परिचय दे रही है।
इन्द्रियों से सरसता जुड़ी है। मनुष्य उनके माध्यम से आनन्द उठाना चाहता है; किन्तु इस उपयोग में औचित्य का समावेश रहना चाहिए। विवेक खोकर अतिवाद पर उतारू होने का दुष्परिणाम ही सामने आता है। मर्यादा और संयम की समझदारी हटा दी जाय तो फिर विनाश ही सामने प्रस्तुत होगा। इन दिनों बढ़ते हुए रोगों में बहुत से ऐसे हैं जिन्हें सभ्यता के अभिशाप ही कह सकते हैं। तपेदिक, कैन्सर, हार्ट अटैक, अनिद्रा अपच, तनाव, ब्लडप्रेशर जैसे दुःसह दुःख देने वाले और जीवन सम्पदा का बेतरह क्षरण करने वाले रोगों की बाढ़ आने का प्रधान कारण आहार-विहार का असंयम ही बना हुआ है। मूल कारण को न हटाया जायगा तो फिर उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों का अन्त कैसे होगा? नशे बाजी जैसी बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों की रोकथाम न हुई तो रोग उपचार के सारे प्रयत्न निरर्थक सिद्ध होते चले जायेंगे।
मानसिक रोगों की भयंकरता तब प्रकट होती है जब वे उन्माद का रूप धारण करने और जीवन प्रक्रिया को अस्त-व्यस्त कर देने की विस्फोटक स्थिति में जा पहुँचते हैं। सनकों के स्तर पर जब वे रहते हैं तो दूसरों को उनकी भयंकरता प्रतीत नहीं होती किन्तु उस मानसिक अव्यवस्था से व्यक्ति को सामान्य जीवन यापन में भारी अवरोध दृष्टिगोचर होता है। प्रगति क्रम तो एक प्रकार से रुक ही जाता है। दूरस्थ लोगों को तो पता नहीं चलता, पर निकटस्थ परिजन तो उन सनकों की प्रतिक्रिया को सहते, खीजते और दुःख पाते हैं। स्वयं पर भी दुर्भाग्य की छाया चढ़ी हुई नजर आती है। आत्महीनता संकोच, भय, निराशा आशंका, चिन्ता उदासीनता जैसी सनकें यों ज्वर-जूड़ी की तरह प्रत्यक्ष नहीं होतीं तो भी उनके कारण आनन्दमय जीवन का एक प्रकार से अन्त ही हो जाता है। आन्तरिक गुत्थियों में उलझा हुआ व्यक्ति जाल में फँसे पक्षी की तरह अपने को कातर एवं आपत्ति ग्रस्त ही अनुभव करता रहता है। अपच, जुकाम आदि मन्द रोग ऐसे ही चलते रहते हैं, पर जब भयंकर उदर शूल उठ खड़ा होता है तो घबराहट उत्पन्न होती है। मानसिक रोग जब तक सनकों के रूप में अपने को अस्त-व्यस्त एवं दीन-दरिद्र बनाये रहते हैं तब तक उनकी उपेक्षा होती रहती है। किन्तु जब वे क्रोध, आवेश, आक्रमण, उद्दण्डता के रूप में विकराल बनते हैं और अपराधियों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तब पता चलता कि उनकी भयंकरता कितनी बढ़ गई। ऐसी स्थिति में ही हत्या एवं आत्महत्या जैसी दुर्घटनाएं घटित होती हैं। वास्तविक कारण तो कम होते हैं, पर मानसिक उत्तेजना में ही ऐसा विग्रह घटित होते हैं।
चिन्तन को सही धारा से प्रभावित कर सकने का ज्ञान न होने से विचार शक्ति भ्रान्तियों और विकृतियों में भटकती है। इस भटकाव में उद्वेग और विक्षोभ ही हाथ लगता है।
अवाँछनीय गतिविधियाँ अपनाकर क्या दरिद्र क्या सम्पन्न, क्या अशिक्षित, क्या विद्वान- सभी समान रूप से कष्ट पाते हैं। दरिद्र, कुपोषण से जितना कष्ट उठाते हैं- सुसम्पन्नों को अतिपोषण के कारण उससे कम नहीं अधिक ही कष्ट उठाना पड़ता है। अविकसित लोगों को अशिक्षा के कारण जितनी कठिनाइयाँ सताती हैं उससे कहीं अधिक तथाकथित बुद्धिमान लोग अपनी विकृत महत्वाकाँक्षाओं और उद्धत उच्छृंखलता के कारण भुगतते रहते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में उलझे हुए व्यक्ति अभावों और संकटों के त्रास सहते हैं, पर उनको क्या कहा जाय जो सब प्रकार साधन सम्पन्न होने पर भी मनःस्थिति को उलट लेते हैं और सम्पत्ति से भी विपत्ति जितना संकट रचते, खड़े करते हैं। मकड़ी अपने लिए आप जाल बुनती है और उसी में उलझकर बन्धन ग्रस्त होने का दुख पाती है। अपने ही अज्ञान अनाचार का मनुष्य दुष्परिणाम भुगतता है।
उपयोगी वस्तुओं में अभाव में कष्ट सहने की बात समझ में आती है, पर उपलब्धियों के दुरुपयोग में संलग्न दुष्टता के लिए क्या कहा जाय? स्वार्थी मनुष्य लाभ सोचता है, पर उसके पल्ले संकीर्णताजन्य हानि और विपत्ति ही पड़ती है। हार्टअटैक के प्रत्यक्ष कारण जो भी हों वास्तविकता यह है कि कठोर, निर्दय, निष्ठुर, स्वार्थी और धूर्त प्रकृति के कारण मनुष्य हृदयहीन होता चल जाता है। आत्मिक कोमलता, करुणा और आत्मीयता गँवा बैठने के कारण हृदय की माँसपेशियाँ जकड़ जाती हैं और उस कठोरता पर दैवी वज्रपात की तरह ‘हार्टअटैक’ होता है। नस, नाडियों और माँसपेशियों की कठोरता को स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बढ़ते हुए हृदय रोगों का कारण बताया है। आहार-विहार का असंयम बढ़ते हुए शारीरिक, मानसिक रोगों को विपत्ति ढाने का निमित्त माना गया है। उपचार साधनों की भरमार निरर्थक सिद्ध हो रही है और समझा जा रहा है कि संयम, सन्तुलन अपनाये बिना काम न चलेगा। सुविधा साधनों का अभाव अथवा अभिवर्धन दोनों ही विचारणीय है। दोनों की ओर ही ध्यान दिया जाना चाहिए। किन्तु यदि सर्वपक्षी विपत्तियों का चिरस्थायी समाधान ढूँढ़ना हो तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि संयम, विवेक और उदार दृष्टिकोण अपनाये बिना उन संकटों से छुटकारा न मिल सकेगा जो साधनों की अभिवृद्धि के साथ-साथ ही द्रुत गति से बढ़ते चले जा रहे हैं।
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