हमारी कमाई में पिछड़ों का भी हिस्सा है!

January 1978

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भारतीय संस्कृति में धन के उपयुक्त वितरण को पर्याप्त महत्व दिया है अनायास प्राप्त होने वाले धन के अतिरिक्त उचित श्रम एवं न्यायपूर्वक जो धन कमाया गया है, उसके भी खर्च करते समय सब कुछ अपने लिए ही लगाने की बात नहीं सोचनी चाहिए वरन् उसका भी विभाजन करके खाना चाहिए। आवश्यकता के अतिरिक्त कृषि व्यवसाय आदि से जो बचे, उसे संसार में फैली हुई पीड़ा एवं पतन प्रवृत्तियों के निवारण में लगाते रहना चाहिए। दान को नित्य कर्म माना गया है। समता को स्थिर रखने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक अधिक उपार्जन कर्ता स्वेच्छापूर्वक संसार का पिछड़ापन दूर करने के लिए अपनी कमाई का उपयुक्त अंश परमार्थ प्रयोजनों में लगाता रहे। इसी प्रकार उपार्जन कारी प्रतिभा सार्थक बनती है। निन्दा तो उस धन की है जो विलासिता एवं संग्रह के लिए प्रयुक्त होता है। उपार्जन के साथ निर्वाह के अतिरिक्त दान-प्रक्रिया को भी अविच्छिन्न रूप से जोड़कर रखा गया है। कहा है-

अगं स केवलं भुंक्ते यः पत्रत्यात्मकारणात्। यज्ञशिष्टाशनं ह्मैतत् सतामन्नं विधीयते॥

जो अपने लिए ही कमाता और आप ही खाता है, वह पाप ही खाता है। श्रेष्ठ व्यक्ति सत्कर्मों के लिए कमाते हैं और जो बचा रहता है उतना ही खाते हैं।

पशवोऽपि हि जीवन्ति केवलात्मोदरम्भराः। कि कायेन सुगुप्तेन बलिना चिरजीविनः॥

-व्यास स्मृति 4।25

अपना पेट भरना और अपनी मौज करना पशु भी जानते हैं। ऐसे पेट और प्रजनन के लिए जिये जाने वाले पशु जीवन की क्या सार्थकता है?

यावद् भ्रियेत जठर तावत् स्वत्वं हि देहिनाम। अधिक योऽभि मन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति॥

- श्रीमद्भागवत

जितने से मनुष्य का उदर पोषण हो जाये मनुष्य का उतने पर ही अधिकार है जो इससे अधिक की कामना करता है वह चोर है और दण्डनीय है।

य आध्राय चकमानाय पित्वोन्नवात्सन्नफिता योपजग्मुषे। स्थिरमनः कृणुते सेवते पुरोतो चित्समर्डितारं न विदते॥

स इद्भोजो यो ग्रह्व ददात्यन्न- कामाय चरतेकृषाय। अरमस्मै भवति यामदूता उतापरीषु कृणुते सखायम॥

-ऋग्वेद

जो अन्नवान् होता हुआ, अन्न चाहने वालों और गरीबी से पास आये हुए दुखियों के लिए मन कठोर कर लेता है और अपने आप मजे में खाता है, उसे सुख देने वाला मित्र नहीं मिल सकता है।

जो अन्न चाहने वाले दुर्बल याचक को अन्न देता है वही सच्चा भोजन करता है। ऐसे दाता के पास दान करने के लिए पर्याप्त अन्न आता है और कठिन समय में सहायक मित्र उत्पन्न होते हैं।

दान-सहयोग करने वाले को मनुष्य का सहयोग तो प्राप्त होता ही है- ईश्वरीय अनुदान भी मिलते हैं। वेद भगवान् कहते हैं-

न किः परिष्टिर्मघवन मघस्य ते यद्दाश्षे दशस्यसि।

-ऋग्वेद

परमेश्वर दानी व्यक्ति को इतना ऐश्वर्य देता है जिस की कोई सीमा नहीं।

बुद्धिमानों को निर्देश दिया गया है कि वे कृपणों को चतुरता पूर्वक समझाकर किसी प्रकार अनावश्यक संग्रह को श्रेष्ठ कामों में दान करा देने की भूमिका बनाते रहें। वे आनाकानी करें तो भी निराश न हों वरन् धैर्य पूर्वक लगे ही रहें। महर्षि चाणक्य कहते हैं-

अदातारमप्यर्थवन्त मर्थिनो न त्यजन्ति।

-चाणक्य सूत्र

कंजूस धनी से निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए।

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