एकांगी प्रगति- कानी कुबड़ी लंगड़ी लूली

January 1978

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पुराना अर्थ शास्त्र, समाज शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, नीति शास्त्र यहाँ तक कि धर्म शास्त्र भी प्रगति की गंगा में बहते-बहते कुछ से कुछ हो गया है। टूट-टूटकर नदी में गिरते रहने वाला पाषाण खण्ड जल धारा के थपेड़े, खाते-खाते, गोल-मटोल शालिग्राम या शिवलिंग बन जाते हैं। इस क्रमिक प्रवाह में पड़कर अनगढ़ को सुगढ़ कुरूप को सुन्दर, अस्त-व्यस्त को व्यवस्थित होना चाहिए था, किन्तु वैसा हो नहीं सका। प्रगति एकाँगी रह गई उसमें समृद्धि का लक्ष्य तो ठीक तरह की नहीं आवश्यकता से अधिक भी समझ लिया गया, किन्तु आन्तरिक विभूतियों की भी कुछ आवश्यकता है, यह नहीं समझा गया। परिवर्तन अच्छी चीज है। अभावों की परिधि तोड़कर हम सम्पन्नता उपलब्ध करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। यदि यह विकास अध्यात्म और दर्शन के क्षेत्र में इतना हो सका होता कि उसे व्यवहार में स्थान मिल सकता तो हमारा विकास एवं परिवर्तन सच्चे अर्थों में सार्थक हो जाता।

शताब्दियाँ आगे बढ़ रही हैं। मान्यताओं की दृष्टि से भी हम पिछली शताब्दी से भी आगे हैं। यह प्रश्न दूसरा है कि उसमें दूरदर्शिता भी सम्मिलित है या नहीं। अब एडमन स्मिथ पुराने पड़ गये। इन दिनों कांस और मार्क्स को मान्यता मिल रही है। अब जेन सिस, विशप, विलयर फोर्म की निवृत्ति दे दी गई, उनके स्थान पर डार्विन और हक्सले को नियुक्ति हुई है। अब त्रिकालदर्शी योगियों के स्थान पर न्यूटन और आइन्स्टीन को सत्य के अधिक निकटवर्ती स्वीकार किया गया है। अब हम अन्तरिक्ष युग में रह रहे हैं, अन्तरिक्ष में परियों के उड़नखटोले से विदा लें चुके अब अंतर्ग्रही उड़ानें पूरी करने वाले यानों के ढाँचे खड़े किये जा रहे हैं। राकेटों की एक बड़ी सेना तो अभी भी अपने आकाश में निर्वाध उड़ानें उड़ रही हैं।

अपने विकास क्रम में हम कहीं मौलिक गलती छोड़ रहे हैं। भाले से शिकार करने के स्थान पर हमारे पास दूर मारक राकेट और अणुबम मौजूद हैं। शरीर के अंगों की काट-छाँट और मरम्मत करने की कला, कपड़ों की सिलाई स्तर पर आ गई है। विज्ञान के सुख-सुविधा के असीम साधनों ने मनुष्य को लाभान्वित किया है इतने पर भी हत्याएं और आत्म हत्याएं क्यों बढ़ती जा रही हैं। पुलिस और न्यायालयों के विशालकाय ढाँचे खड़े होने पर भी मनुष्य अपने को असुरक्षित क्यों अनुभव करता है? समाज की संगठनात्मक संरचना में उभार आने पर भी मनुष्य अपने को एकाकी, उपेक्षित और असहाय क्यों अनुभव करता है? मस्तिष्कीय विद्या का असाधारण विकास हुआ है। खोपड़े के भीतर की समस्त गतिविधियों की जानकारी देने वाली विशिष्ट एक्सरे प्रक्रिया इलेक्ट्रो-एन-सेफेलोग्राफी ने जब कि मनःविश्लेषण के असाधारण आधार खड़े कर दिए हैं तो मनुष्य अपनी दृष्टि से ओझल और दूसरों की दृष्टि में विस्मृत होता क्योँ चला जा रहा है? मानसिक उपचार विज्ञान साइकोफार मेकालाजी ने जब आदमी की अकल दुरुस्त कर देने का दावा किया है तो मनुष्य उलझनों के जाल-जंजाल में अधिकाधिक कड़े शिकंजों में कसता क्यों चला जा रहा है? ब्रेन वाशिंग के लिए अब उत्पीड़न अथवा प्रचार की जरूरत नहीं रह गई। वह कार्य खोपड़ी पर इलेक्ट्रॉनिक केप पहना देने से उसमें लगे कपड़ों की ड्राइक्लीनिंग की तरह साफ कर डालने वाले किरण ब्रुस भली प्रकार कर सकते हैं। इतने पर मूल संकल्पों में अन्तर नहीं आता। नींद की गोलियाँ खाकर झपकी लेने और नशा पीकर गम गलत करने का रिवाज क्यों बढ़ाता जा रहा है? अन्तर्द्वन्द्व तथा प्रकृति प्रतिरोध से उत्पन्न तनाव के कारण मनुष्य अर्ध विक्षिप्त जैसी स्थिति में क्यों रह रहा है?

विचार शैली को प्रभावित करने वाले अब नये आधार और नये आयाम सामने हैं। समय ने बहुत कुछ बदल दिया है। हम अब वहाँ नहीं हैं जहाँ कभी थे। न वे पुरानी समस्याएं रह गईं है और न उन समाधानों से काम चल सकता है। समय ने नई समस्याएं उत्पन्न की हैं और उनके लिए नये समाधानों की आवश्यकता पड़ी है। वन मानुष की शक्ल में मनुष्य का पिछले दस लाख वर्ष से आदमी का अस्तित्व इस धरती पर है; पर उसे आदमी कहलाने योग्य स्थिति प्राप्त हुए एक लाख वर्ष से भी कम समय बीता है। मध्यवर्ती नौ लाख वर्ष की भी कोई निर्वाह पद्धति रही है; पर अब उसका कोई महत्व नहीं रह गया है। प्रगति का क्रम एक लाख वर्ष से चल रहा है उसमें भी हर शताब्दी- हर सभ्यता और हर भौगोलिक स्थिति का प्रभाव व्यक्ति की मनःस्थिति और सामाजिक परिस्थिति पर पड़ता रहा है। तदनुसार तेजी से परिवर्तन होते रहे हैं। धर्म सम्प्रदायों, सभ्यताओं और शासन पद्धतियों के रूप में इन परिवर्तनों की भिन्नता और विचित्रता सहज ही देखी जा सकती है। इन विचित्रताओं के प्रयोग परीक्षण से आदमी तरह-तरह के निष्कर्ष निकालता रहा है और पुरानेपन का आग्रह किए बिना सुधार और परिवर्तनों का सहारा लेकर अपेक्षाकृत अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता रहा है। यही है हमारी प्रगति का इतिहास जिसके सहारे क्रमिक गतिशीलता अपनाकर वहाँ पहुँचे हैं जहाँ आज हैं।

इस प्रगति की व्यंगात्मक आलोचना करते हुए मानव विज्ञानी एडमंड लीच ने एक बार कहा था- ‘आदमी देवताओं जैसा हो गया है।’ उसके इस कथन का अर्थ इतना ही था कि प्रकृति के रहस्यों को बाँधने और नियमों का अतिक्रमण करने से उसने देवताओं की प्रतिद्वन्द्विता ठान ली है। अन्तर इतना भर रह गया कि देवताओं ने अपनी आन्तरिक दिव्यता विकसित करके प्रकृति विजय के लाभ को सबमें वितरित किया। इसके विपरीत आज का प्रगतिशील आदमी इसे अंगूर की शराब बनाकर पी रहा है और अमृत को विष में बदल रहा है। यदि इस प्रगति क्रम में आन्तरिक विकास को भी जुड़ा रखा गया होता तो देवताओं की प्रतिद्वन्द्विता करने वाला मनुष्य धरती पर स्वर्ग का सृजन कर सकने में भी सफल हो गया होता।

हम देवताओं जैसा वैभव तो प्राप्त कर रहे हैं, पर उनके जीवन दर्शन से वंचित रह रहे हैं। अणु सभ्यता के विकास पर गर्व करने की पूरी गुंजाइश है, पर विकरण और प्रदूषण के विष से आत्म रक्षा कर उपाय क्या है यह सूझ नहीं पड़ता।

प्रगति प्रवाह तीव्र होने से नदियों में नौकायन की सहज सुविधा बढ़ती है; पर साथ ही प्रचण्ड भँवरों की संख्या बढ़ जाने से पार होने का प्रयत्न करने वालों के लिए संकट भी गहरा होता जाता है। विकृत प्रकृति का स्वरूप अवगति का रूप धारण कर लेता है। छोटे से बड़े होने के स्थान पर बड़े का छोटा होना भी प्रगति की एक विशेष शाखा कहा जा सकता है। रेंगने वाले प्राणियों के युग में प्रायः सौ फुट लम्बा एक जन्तु था। डिप्लोडोक्स और लगभग 50 टन भारी टायकसार्स जैसे महादैत्य जिन दिनों मस्ती के साथ भूतल पर अपनी विजय पताका फहरा रहे थे उन्हीं दिन अधिक बुद्धिमान और अधिक आक्रामक फासकोलोथेरियन पल रहा था और उसने उन महादैत्यों का वंश नाश करके ही चैन लिया। कौन जाने निकट भविष्य में मनुष्यों की कोई ऐसी विकसित जाति पनप उठे जो आज की समृद्धि की दृष्टि से महादैत्य और दूरदर्शिता की दृष्टि से संज्ञा शून्य नर पशु को निरस्त करके सहृदयता और सम्पन्न सज्जनता को इस भूलोक का संचालन सूत्र थम सकने में सफल हो सके।

प्रगति पथ पर चलते हुए हमें कुछ क्षण रुक कर यह सोचना होगा कि इतना अधिक परिश्रम और प्रबल पुरुषार्थ करते हुए भी हम सुख-शांति से पीछे क्यों हटते जा रहे हैं। इसका कारण हमारी लंगड़ी दौड़ है। समृद्धि पर ध्यान रखा जाय और सद्गुणों की विभूतियों की अपेक्षा की जाय तो उस काने, कुबड़े अन्धे, पंगे विकास से काम चलेगा नहीं।

नव युग की माँग है कि आत्मिक विकास के महत्व को भी समझा जाय और नीति नियमों के पालन पर भी समुचित ध्यान दिया जाय। इसके लिए प्रस्तुत वातावरण उससे मौजूद है। मानवी अन्तरात्मा अपने उत्कर्ष के लिए आतुरतापूर्वक माँग करती है। उसे सुना जा सके तो परिपोषण के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया जा सके तो समग्र प्रगति की सम्भावना के मूर्तिमान होने में कोई कठिनाई नहीं है।

हम नव युग के एक कोने में नई नैतिकता को उगते और बढ़ते देख सकते हैं। वह नर्सरी की एक क्यारी में बोई जाने वाली पौध की तरह थोड़ी ही क्यों न हो, पर उसका उदय अभिवर्धन निश्चित रूप से हो रहा है। यही अगले दिनों विश्व उद्यान को सुविकसित सौन्दर्य से शोभायमान करेगी। यह उत्पादन चिर नवीन दीखते हुए भी वस्तुतः चिर प्राचीन है। उसे मानवी संस्कृति या सनातन सभ्यता कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है।

अन्तरिक्ष यात्रियों को अब प्राचीन योगियों की भाँति अविचल धैर्य, आत्म नियन्त्रण, एक आसन, एकान्त, अल्पाहार, मौन, ध्यान, सतत जागरूकता, लक्ष्य के प्रति अडिग निष्ठा, सन्तों जैसी ईमानदारी अपने स्वभाव का अंग बनाने के लिए सतत अभ्यास करना होता है और उसमें पारंगत सिद्धि प्राप्त करनी पड़ती है। जिस प्रकार की तन्मय एकाग्रता के मध्य योग साधना की रहस्यमय विद्याएं और सिद्धियाँ खोज निकाली गई थी, उससे कम मनोयोग प्रकृति की अद्भुत क्षमताओं का पता चलाने और मानवी उपयोग में लाने के प्रयत्नों में भी नहीं लगा है। अणु के अन्तराल की रहस्यमय परतों पर से पर्दा उठाना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि आत्मा पर चढ़े हुए कषाय-कल्मषों को हटाने में योगियों को कराना पड़ा है।

दार्शनिक हक्सले ने समय की प्रगति-समीक्षा करते हुए अपनी पुस्तक “ब्रेव न्यू वर्ल्ड” में अपने समय को बहादुरों का- कर्मवीरों का- युग कहकर उल्लेख किया है। विज्ञान सहित हर क्षेत्र में अपनी पीढ़ी के प्रबल पुरुषार्थ की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं यदि भौतिक प्रगति पर नैतिकता का अंकुश न लगाया गया तो यह प्रगतिशील अत्युत्साह ही हमें ऐसी दुर्गति में फँसा देगा जिससे उबर सकना अत्यन्त कष्ट साध्य होगा। उनने अपनी एक दूसरी पुस्तक ‘दि पैकिनियल फिलॉसफी’ में भाव भरी किन्तु गम्भीर भाषा में लिखा है- एक विश्वात्मा इस चराचर जगत में संव्याप्त है उसका दर्शन करके ही मनुष्यता कृत कृत्य हो सकेगी।

उस उज्ज्वल भविष्य की आशा प्रतीक्षा करते रहने से काम नहीं चलेगा। आवश्यकता इस बात की है कि जिस पुरुषार्थ के साथ भौतिक प्रगति के लिए प्रबल प्रयत्न हो रहे हैं, उसी तत्परता के साथ नैतिक और साँस्कृतिक सुसम्पन्नता से मानव जाति को अलंकृत किया जाय। इस सर्वांगपूर्ण प्रगति का आधार बनते ही हम उस वातावरण में रहने लगेंगे जिसे स्वर्गीय और मानवी गरिमा के अनुरूप कहा जा सके।


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