मनुष्य की चेतना सत्ता में मूलतः वह क्षमता मौजूद है, जिसके सहारे वह अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का समुचित उपयोग कर सके। यह क्षमता उसने खो दी है। वह प्रसुप्त, विस्मृत एवं उपेक्षित गर्त में पड़ी रहती है। किसी काम नहीं आती। इसके बिना प्रगति रथ किसी भी दिशा में महत्वपूर्ण यात्रा कर नहीं पाता। मात्र जीवन निर्वाह क्रम पूरा होते रहने भर का लाभ उस क्षमता से उठा सकना संभव होता है। यह उस प्रचण्ड क्षमता का एक अत्यन्त स्वल्प अंश है। विपुल रत्न भण्डार के अधिपति को मात्र पेट भरने ओर तन ढंकने जितने साधन उपलब्ध हो सके तो यह उसके लिए दुर्भाग्य की ही बात है। इस स्थिति का अन्त करके स्वसम्पदा का ज्ञान और उपयोग कर सकना आत्म-विज्ञान की सहायता से संभव होता है। योगाभ्यास की टार्च और तपश्चर्या की कुदाली लेकर अपनी इसी पैतृक सम्पदा को उपलब्ध करने का प्रयत्न किया जाता है।
व्यामोह ही भव बंधन है। भव बंधनों में पड़ा हुआ प्राणी कराहता रहता है और हाथ पैर बंधे होने के कारण प्रगति पथ पर बढ़ सकने में असमर्थ रहता है। व्यामोह की माया कहते हैं। माया का अर्थ है नशे जैसी खुमारी जिसमें एक विशेष प्रकार की मस्ती होती है। साथ ही अपनी मूल स्थिति की विस्मृति भी जुड़ी रहती है। संक्षेप में विस्मृति और मस्ती के समन्वय को नशे की पिनक कहा जा सकता है, चेतना की इसी विचित्र स्थिति को माया, मूढ़ता, अविद्या, भव बंधन आदि नामों से पुकारा जाता है।
ऐसी विडम्बना में किस कारण प्राणी बँधता, फंसता है? इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए आत्म दृष्टाओं ने विषय बनी वृत्ति को इसका दोषी बताया है। विषयवती वृत्ति की प्रबलता को बन्धन का मूल कारण बताते हुए महर्षि पातंजलि ने योग दर्शन के कुछ सूत्रों में वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला है।
विषयवती वा प्रवृत्तित्पत्रा मनसः स्थिति निबंधिनि।
-यो.द. 1-35
सत्व पुरुषायोरत्यन्ता संकीणयोः प्रत्यया विशेषोभोगः। परार्थात्स्वार्थ संयमात्पुरुषा ज्ञानम्।
-यो. द. 3-35
ततः प्रतिम श्रावण वेदनादर्शा स्वाद वार्ता जायन्ते।
-यो.द. 3-36
उपरोक्त सूत्रों में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि शारीरिक विषय विकारों में आसक्ति बढ़ जाने से जीवन अपनी मूल स्थिति को भूल जाता है और उन रसास्वादनों में निमग्न होकर भव बंधनों में बंधता है।
लालची मक्खी और चींटी की आसक्ति, आतुरता उसे विपत्ति के बंधनों में जकड़ देती है और प्राण संकट उपस्थित करती है। चासनी को आतुरतापूर्वक निगल जाने के लोभ में यह अबोध प्राणी उस पर बेतरह टूट पड़ते हैं और अपने पंख, पैर उसी में फंसाकर जान गंवाते हैं। मछली के आटे की गोली निगलने और पक्षी के जाल में जा फंसने के पीछे भी वह आतुर आसक्ति ही कारण होती है, जिसके कारण आगा-पीछा सोचने की विवेक बुद्धि को काम कर सकने का अवसर ही नहीं मिलता।
शरीर के साथ जीव का अत्यधिक तादात्म्य बन जाना ही आसक्ति एवं माया है। होना यह चाहिए कि आत्मा और शरीर के साथ स्वामी सेवक का-शिल्पी उपकरण, का भाव बना रहे। जीव समझता रहे कि मेरी स्वतंत्र सत्ता है। शरीर के वाहन, साधन, प्रगति यात्रा की सुविधा भर के लिए मिले हैं। साधन की सुरक्षा उचित है। किन्तु शिल्पी अपने को- अपने सृजन प्रयोजन को भूल कर-उपकरणों में खिलवाड़ करते रहने में सारी सुधि-बुधि खोकर तल्लीन बन जाय तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण ही होगी। तीनों शरीर तीन बंधनों में बंधते हैं। स्थूल शरीर इन्द्रिय लिप्सा में, वासना में। सूक्ष्म शरीर (मस्तिष्क) सम्बन्धियों तथा सम्पदा के व्यामोह में। कारण शरीर-अहंता के आतंक फैलाने वाले उद्धत प्रदर्शनों में। इस प्रकार तीनों शरीर-तीन बंधनों में बंधते हैं और आत्मा उन्हीं में तन्मय रहने की स्थिति में स्वयं ही भव बंधनों में बंध जाती है। यह लिप्सा लालसाएँ इतनी मादक होती हैं कि जीव उन्हें छोड़कर अपने स्वरूप एवं लक्ष्य को ही विस्मृति के गर्त में फेंक देता है। वेणुनाद पर मोहित होने वाले मृग बधिक के हाथों पड़ते हैं। पराग लोलुप भ्रमर कमल में कैद होकर दम घुटने का कष्ट सहता है। दीपक की चमक से आकर्षित पतंगे की जो दुर्गति होती है वह सर्वविदित है। लगभग ऐसी ही स्थिति व्यामोह ग्रसित जीव की भी होती है। उसे इस बात की न तो इच्छा उठती है और न फुरसत होती है कि अपने स्वरूप लक्ष्य को पहचाने। उत्कर्ष के लिए आवश्यक संकल्प शक्ति जगाई जा सकती तो इस महान प्रयोजन के लिए मिली हुई विशिष्ट क्षमताओं को भी खोजा जगाया जा सकता था। किन्तु उसके लिए प्रयत्न कौन करे ? क्यों करे ? जब विषयानन्द की ललक ही मदिरा की तरह नस-नस पर छाई हुई है तो ब्रह्मानन्द की बात कौन सोचे? क्यों सोचे?
इस दुर्गति में पड़े रहने से आज का समय किसी प्रकार कट भी सकता है, पर भविष्य तो अंधकार से ही भरा रहेगा। विवेक की एक किरण भी कभी चमक सके तो उसकी प्रतिक्रिया परिवर्तन के लिए तड़पन उठने के रूप में ही होगी। प्रस्तुत दुर्दशा की विडम्बना और उज्ज्वल भविष्य की संभावना का तुलनात्मक विवेचन करने पर निश्चित रूप से यही उमंग उभरेगी कि परिवर्तन के लिए साहस जुटाया जाय। इसी उभार के द्वारा अध्यात्म जीवन में प्रवेश ओर साधना प्रयोजनों का अवलम्बन आरंभ होता है।
परिवर्तन का प्रथम चरण है, बंधनों का शिथिल करना। आकर्षणों के अवरोधों से विमुख होना। आसक्ति को वैराग्य की मनःस्थिति में बदलना। इसके लिए कई तरह के समय परक उपायों का अवलम्बन करना पड़ता है। साधना रुचि परिवर्तन की प्रवृत्ति को उकसाने से आरंभ होती है। इस संदर्भ में महर्षि पातंजलि का कथन है।
बन्धकारण शैथिल्यात्प्राचार सम्वेदनस्य। चित्तस्य पर शरीरावेशः॥
-योग दर्शन 3-38
बंधनों के कारण ढीले हो जाने पर चित्त की सीमा, परिधि ओर सम्वेदना व्यापक हो जाती है।
मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा। अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतिः॥
-शिव गीता 13।32
अर्थात् - मोक्ष किसी स्थान विशेष में निवास करने की स्थिति नहीं है। न उसके लिए किसी अन्य नगर या लोक में जाना पड़ता है। हृदय के अज्ञानांधकार का समाप्त हो जाना ही मोक्ष है।
मोक्ष में परमात्मा की प्राप्ति होती है। अथवा परमात्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। यह मोक्ष क्या है? भव बंधनों से मुक्ति। भव-बन्धन क्या हैं ? वासना, तृष्णा और अहंता के-काम, लोभ और क्रोध के नागपाश। इनसे बंधा हुआ प्राणी ही माया ग्रसित कहलाता है। यही नारकीय दुर्दशा का दल-दल है। इससे उबरते ही आत्मज्ञान का आलोक और आत्म-दर्शन का आनन्द मिलता है। इस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति परमात्मा का सच्चा सान्निध्य प्राप्त करता है और ज्ञान तथा सामर्थ्य में उसी के समतुल्य बन जाता है।
अथर्ववेद में कहा गया है-
ये पुरुषे ब्रह्मविदुः ते विदुः परमष्ठिनम्।
अर्थात्- जो आत्मा को जान लेता है उसी के लिए परमात्मा का जान लेना भी संभव है। ऋग्वेद में आत्मज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान कहा गया है। ग्रन्थों के पढ़ने से जानकारियाँ बढ़ती हैं आत्मानुभूति से अपने आप को और परम तत्व को जाना जाता है। श्रद्धा विहीन शब्द चर्या का ऊहापोह करते रहने से तो आत्मा की उपलब्धि नहीं होती। एक ऋचा है- “यः तद् न वेद, किम् ऋचा करिष्यति” जो उस आत्म-तत्व को नहीं जान पाया वह मंत्र, पाठ या विवेचन करते रहने भर से क्या पा सकेगा? उपनिषद् वचन है- “ब्रह्म विद् ब्रह्मैव भवति” अर्थात् ब्रह्म वेत्ता ब्रह्म के ही समकक्ष हो जाता है।
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