पारिवारिक जीवन में निष्ठा और भावनाएँ जमी रहें!

January 1978

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मनुष्य में से भावनाएँ निकाल दी जायें तो फिर जो शेष बचेगा वह इतना घृणास्पद होगा कि उसे स्पर्श करना तो दूर कोई देखना भी पसंद न करेगा। भाव संवेदनाएं ही हैं जो जीवन को जोड़कर रखती हैं, मनुष्य-मनुष्य के बीच मैत्री कायम रखती है, व्यवस्था बनाये रहती हैं, भावनाओं से रिक्त संसार में और मरघट में कोई अंतर नहीं रह जाता। दूसरी ओर भावनाओं की शीतल छाया उपलब्ध हो तो लोग अभाव की स्थिति में भी आनन्दपूर्वक जीवन जीते हैं, भावनाएं न होतीं तो संसार बिखर गया होता, अब तक कभी का नष्ट-भ्रष्ट हो गया होता है।

खेद है कि मनुष्य जीवन भौतिक आकर्षणों की भयंकर दौड़ में भाव विहीन होता जा रहा है जिससे साधन बढ़ने पर भी निराशा बढ़ रही है, बढ़ते हुए अपराध, तलाक, आत्म-हत्याएँ इस तथ्य के प्रमाण हैं कि मनुष्य का हृदय रस सूखता जा रहा है, यदि इस ओर मनुष्य जाति ने स्वयं ही रचनात्मक दृष्टि न डाली तो एक दिन उसका विनाश ही हो सकता है।

यह मनुष्य के लिए लज्जा की बात है कि उस जैसा विचारशील प्राणी जबकि इन मानवीय गुणों से रिक्त होता जा रहा है तब भी सृष्टि के दूसरे अबोध प्राणियों की भाव-सम्वेदना यथावत अक्षुण्ण है। मनुष्य मर्यादाशील, विचारशील प्राणी होने का दम भरता है, पर टूटते हुए दाम्पत्य संबंध, नष्ट होती पारिवारिक शाँति, उच्छृंखल होती जा रही भावी पीढ़ियाँ और अराजकतापूर्ण सामाजिक संबंध यह बताते हैं कि हमारा जीवन क्रम अशुद्ध होता जा रहा है हम चाहें तो अपने दूसरे भाइयों से सीख कर अपने कदम फिर पीछे लौटा सकते हैं।

‘डिक-डिक’ जाति का हिरन एक पत्नी व्रती होता है। वह सदैव जोड़े में रहता है। अपने जीवन काल में वह कभी किसी अन्य हरिणी के साथ सहवास नहीं करता। शेर और हाथी के बारे में भी ऐसी ही बात होती है। जोड़ा बनाने से पूर्व तो वह पूर्ण सतर्कता बरतते हैं, किन्तु एक बार जोड़ा बना लेने के बाद वे तब तक इस मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते जब तक कि नर या मादा में से किसी एक की मृत्यु न हो जाये। मृत्यु के बाद भी कई ऐसे होते हैं, जो पुनर्विवाह की अपेक्षा विधुर जीवन व्यतीत करते हैं पर उस स्थिति में उनकी संवेदना नष्ट हो जाती है और वे प्रायः बहुत अधिक खूँखार हो जाते हैं। उस स्थिति में भी वे जब कभी अपनी मादा की याद में आँसू टपकाते दीखते हैं तो करुणा उभरे बिना नहीं रहती। तब पता चलता है जीवन का आनन्द भावनाओं में है, पदार्थ में नहीं।

चिम्पैंजिओं की भी पारिवारिक और दाम्पत्य निष्ठा मनुष्य के लिए एक उदाहरण है। यह अपना निवास पेड़ों पर बनाते हैं, जोड़ा बनाने के बाद चिंपैंजी अपने दाम्पत्य जीवन को निष्ठापूर्वक निबाहते हैं और किसी अन्य मादा या नर की ओर वे कभी भी आकृष्ट नहीं होते। नर अपने समस्त परिवार की रक्षा करता है जब वे वृक्ष पर बनाये विश्राम गृह में आराम करते हैं तो वह नीचे बैठकर उनकी पहरेदारी करता है, कर्त्तव्य भावना से ओत-प्रोत चिंपैंजी की तेजस्विता देखते ही बनती है। वस्तुतः अपनी जिम्मेदारियाँ भली प्रकार निभा ली जायें तो इससे बड़ी कोई अन्य साधना नहीं ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ का महामंत्र इसी तथ्य का तो बोध कराता है कि कर्त्तव्यों का पालन मनुष्य संपूर्ण निष्ठा के साथ करे।

जंगली बत्तखें भी पारिवारिक निष्ठा से ओत-प्रोत होती हैं अपनी जाति के अतिरिक्त यह बतखों की 40 लगभग जातियों में से किसी से भी संबंध नहीं बनातीं। जापानी मैण्डेरिन इनके बहुत अधिक समीप होती हैं किन्तु जीव शास्त्रियों के अनेक प्रयत्नों से भी उसने उससे मिलने से इंकार कर दिया।

दाम्पत्य निष्ठा की तरह जीवों में नर-मादा का पारस्परिक प्यार भी भावपूर्ण होता है, जंगली भैंसे, हिरण, बारहसिंगे तथा साँभर भी अपनी मादा के सींगों से सींग रगड़ कर अपनी प्रेम भावना प्रदर्शित करते हैं। सिंह-सिंहनी को अपना पराक्रम दिखाकर आकर्षित करता है तो हाथी को अपनी सूँड उठाकर अपनी प्रेम भावना का परिचय देना पड़ता है। कुछ पक्षी तथा जीव जन्तु सुरीले राग और आवाज से अपनी विरह व्यथा व्यक्त करते और प्रणय-याचना करते हैं। कुछ जीवों में नेत्रों से अभिव्यक्ति कर अपने प्रेम का परिचय देने का प्रचलन होता है, पर प्रेम की स्वाभाविक अभिव्यक्ति प्रत्येक जीव में होती है। अतएव इसे एक सनातन तत्व के रूप में उसकी पवित्रता बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए। प्रेम प्रदर्शन की वस्तु नहीं वह आत्मा का भूषण है। अतएव वह जागृत किसी के भी प्रति हो पर प्रयास उसके सार्वभौमिक रूप की अनुभूति का ही हो तभी सार्थकता है।

अपने साम्राज्य में अन्य सजातीय की उपस्थिति बर्दाश्त न करने वाला उल्लू भी दाम्पत्य-निष्ठा का एक अनोखा उदाहरण है। एक बार जोड़ा बना लेने के बाद वे गृहस्थ जीवन का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं। मादा को 30 से 35 दिन तक अंडे सेने में लगते हैं इस अवधि में नर अपनी मादा के लिए स्वयं भोजन जुटाता है और उसकी रक्षा करता है। उल्लू के बच्चे जब तक उड़ना और शिकार करना नहीं सीख पाते तब तक वे प्रौढ़ न हों, उन्हें यह माता-पिता ही आश्रय देते और परवरिश करते हैं।

धनेश पक्षी को तो और भी अधिक कष्टपूर्ण साधना करनी पड़ती है। अंडे सेने के लिए आवश्यक ताप तथा मादा की सुरक्षा के लिए वह जिस खोल में रहती है नर उसका मुँह बिल्कुल बंद कर देता है, उतना ही खुला रखता है जिससे चोंच भर बाहर निकल सके। बस इसी से नर अपनी मादा को खिलाता-पिलाता रहता है।

पत्नी के बाद सेवा के सबसे बड़े अधिकारी अपने बच्चे होते हैं। जिन्हें जन्म दिया है उन्हें अच्छी तरह स्नेह वात्सल्य देकर पोषण प्रदान करना भी एक प्रकार की समाज सेवा ही है। इस कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। जबकि दूसरे जीव अपने दायित्व हँसी-खुशी निबाहते हैं तब मनुष्य ही इधर से मुँह मोड़े यह उचित नहीं।

मनुष्य और पशु दोनों में ही मातृत्व भावना समान रूप से पाई जाती है। हिरण, गाय, नील गाय आमतौर पर सीधे जानवर होते हैं। किंतु इनके बच्चों को किसी प्रकार का खतरा हो तो उनकी रक्षा के लिए यह कुछ हिंसक हो उठते हैं। बिल्ली के लिए एक कहावत है- वह अपने बच्चों को सात घर घुमाती है। जीव शास्त्रियों ने अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि उसे अपनी संतान की असुरक्षा का भय सताता रहता है इसीलिए वह सुरक्षित स्थान की खोज करती रहती है। बच्चों को अपनी गोद में ही सुलाती है। कुतिया के बच्चों को कोई उठा ले जाये तो वह उदास होकर डोलती है। वह अपने बच्चों को किन्हीं सुरक्षित हाथों में देखती है तो उसे बहुत कृतज्ञ और कातर दृष्टि से देखती है मानों उसे अपनी निर्धनता और उन हाथों में बच्चे के उज्ज्वल भविष्य का ज्ञान हो।

सारस अपने अंडे इतने सुरक्षित, पानी से घिरे हुए, किसी नन्हे टापू पर उन दिनों देती है जब बाढ़ की कतई आशंका न हो वहाँ भी यदि कभी कोई लड़के या जंगली जानवर पहुँच जाते हैं तो उन्हें लहू-लुहान करके छोड़ते हैं। सारस कभी भी अपने अंडों या बच्चों को अकेला नहीं छोड़ते। एक भोजन की तलाश में जाता है तो दूसरा उनके पास रहता है।

कौवे और सर्प जैसे क्रूर जीव भी अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक भावनाशील होते हैं। कौवे के अण्डों या बच्चों से कोई छेड़खानी करे तो समूचा काक सम्प्रदाय उन पर टूट पड़ता है। सर्प अपने बच्चों को अपनी कुँडली में रखता है उस अवस्था में उसके भोजन का प्रबंध नर करता है। इस प्रकार वे अपनी सन्तति सहिष्णुता का परिचय देते हैं। छछून्दर गर्भ धारण के बाद से ही भावी शिशु के लिए खाद्य संग्रह प्रारंभ कर देती है ताकि प्रसव के बाद जब तक बच्चे भली प्रकार चलने फिरने न लगें तब तक वह उनकी पहरेदारी कर सके।

इस संबंध में सबसे अधिक सुचारु व्यवस्था हाथियों में होती है वे न केवल बच्चे की अपितु समूचा-कबीला गर्भिणी हथिनी को एक घेरे में रखकर उसकी सुरक्षा का प्रबंध करते हैं यदि उस पर कोई आक्रमण करे तो हाथी इतने अधिक खूंखार हो उठते हैं कि सारे जंगल को उजाड़ कर रख देते हैं।

हिन्द महासागर की कुछ मछलियाँ तो अपने अंडों को जो हजारों की संख्या में एक छत्ते के आकार में होते हैं तब तक अपने ही साथ तैराती घूमती हैं जब तक बच्चे न निकल आयें और वे स्वयं चलने फिरने न लगें। एरियस तथा तिलपिया मछलियाँ तो अण्डों को अपने मुँह में सेतीं और उनके आत्म निर्भर होने तक अपने ही साथ रखती हैं। तिलपिया की थोड़ी भी आशंका हो तो वह फिर अपने बच्चों को मुँह में छिपाकर उनकी रक्षा करती हैं। कुत्ते, बिल्ली जिस सावधानी से अपने बच्चों को मुँह में दबाकर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती हैं यह उससे भी अनूठा उदाहरण है। चूहों के दाँत बड़े तेज होते हैं। किन्तु अपने बच्चों को उठाते समय उन्हें कहीं भी कतई खरोंच नहीं आती, वे इस कोमलता से उन्हें उठाते हैं।

मछलियाँ पानी में रहने वाली जीव हैं, पर गौराई जाति की मछलियाँ एक विशेष प्रकार की घास से अपना घोंसला बनाती और उसी में बच्चे पालती हैं, यही नहीं उन्हें चिड़ियों की तरह बड़े होने तक स्वयं ही खिलाती पिलाती भी हैं। सील मछलियाँ अपने बच्चों की परवरिश के लिए अपने शरीर से खुराक की पहले ही प्रचुर मात्रा एकत्र कर लेती हैं और उन्हें वे 5 सप्ताह तक उसी के बल पर किनारे पड़ी सेती रहती हैं इस अवधि में वे पूर्ण उपवास करती हैं।

मादा गैंडा अपने बच्चे की सदैव अपने आँखों के सामने रखती हैं। वह कभी दायें-बायें होना चाहे तो वह उसे धौल मारकर अनुशासन में रहने को विवश करती है। शूश भी अपने बच्चों का पालन करते समय उन्हें अनुशासन सिखाती है। वह जब चलती है तो अपने एक बच्चे को अपनी पूंछ पकड़ा कर अनुगमन करने की प्रेरणा देती है शेष बच्चे क्रमशः एक दूसरे की पूंछ पकड़ कर पंक्तिबद्ध रेल के डिब्बों की तरह चलते हैं।

आरेजूटन और गिबन बंदर तथा चिंपैंजी पेट या पीठ पर लादे, बच्चों को बड़े होने तक घुमाते हैं। कई बार बच्चे मर जाते हैं तो भी ये मातृत्व पीड़ा वश कई-कई दिनों तक उनकी लाश को ही छाती से चिपकाये घूमते रहते हैं। ओपोसम बोमनेट के कंगारू की तरह की पेट में थैली होती है ये बच्चों को उसी में रखकर पालते हैं कहीं रुकने पर वे इन्हें बाहर निकाल कर सिखाते समझाते भी हैं, केवल लाड़ वश पेट में लगाये रहें तो इसमें कर्त्तव्य पालन कहाँ हुआ। ये उन्हें शिकार करना, खेलना, कूदना भी सिखाते रहते हैं।

वेल्स द्वीप से एक बार नाम क्रम आदि के निर्देश पट्ट पैरों में बाँधकर कुछ जल कपोतों को विमान से ले जाकर अन्य देशों में छोड़ दिया गया। इनमें एक कपोती भी थी जिसने हाल में ही दो बच्चों का प्रसव दिया था, उसे ले जाकर वेनिस में छोड़ा गया, जबकि अन्य जल कपोत 5-6 माह पीछे लौटे, कपोती 930 मील की समीप से दूरी 15 दिन में ही तय कर वापस बच्चों के पास लौट आई जिनके संतान नहीं थी वे अटलांटिक और जिब्राल्टर होते हुए 3700 मील की यात्रा आनन्दपूर्वक भ्रमण करते हुए लौटे इससे यह पता चलता है कि कर्त्तव्य पालन की मूल प्रेरणा सम्वेदनाओं से प्रस्फुटित होती है। सच्चे और ईमानदार व्यक्ति की पहचान करनी हो तो उसकी सम्वेदना टटोलना होगी। सम्वेदना का अर्थ ही है अपने से छोटों के प्रति करुणा, दया और उदारता की भावनाएँ रखना उनकी कष्ट कठिनाई में सहायक होना।

शेर जैसे खूँखार जीव में मातृ सुलभ वात्सल्य प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। सुरक्षा की दृष्टि से शेरनी को कई बार एक स्थान से दूसरी घाटी तक मीलों लंबा स्थान बदलना पड़ता है तब शेरनी एक-एक बच्चे को गर्दन में बड़ी नरमी से पकड़ कर दूसरे स्थान पर पहुँचाती है यह कार्य वह प्रायः रात में करती है।

चुहिया जैसा तुच्छ प्राणी भी ममता से ओत-प्रोत है उसके दाँत अत्यधिक पैने होते हैं तो भी वह उन्हें उठाते समय इतना भावुक होती है कि उन्हें खरोंच भी नहीं आती।

अन्य जीवों में इस तरह की सम्वेदना मिले और मनुष्य उनसे शून्य रहे यह परमात्मा के अनुग्रह का अपमान है। हमें अपनी भावनाएँ परिवार और बच्चों तक ही सीमित न रखकर समस्त मानव जाति तक फैलावें और सब के कल्याण की बात सोचनी चाहिए तभी मानव जीवन की सफलता और सार्थकता है।

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