मानसिक रोगों का प्रेमोपचार

January 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विश्व विख्यात मनःशास्त्री टामस मैलोन ने पागलपन के कारण ढूँढ़ने वाले अनेक शोध संस्थानों का मार्गदर्शन किया है और उन्हें परीक्षणों के आधार पर किसी उपयुक्त निष्कर्षों तक पहुँचाने में सहायता की है। उनके अनुसन्धानों के निष्कर्षों में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह पाया है कि ‘मनुष्य दूसरों का प्यार पाना चाहता है, पर वह उसे मिल नहीं पाता। इस अभाव से उसके अन्तःक्षेत्र की गहरी परतों में निराशाजन्य उदासी छा जाती है। फलतः उसका चिन्तन प्रवाह अपना सीधा रास्ता छोड़कर भटकावों में फँस जाता है। प्यार पाने की असफलता का कारण सम्भव है उस व्यक्ति के अपने ही दोष दुर्गुणों में रहा हो, पर इससे क्या उसकी आकाँक्षा तो अतृप्त ही रह गई। वह यह समीक्षा कहाँ कर पाता है कि दोष अपना है या पराया। भोजन किसी भी कारण न मिले, पेट का विक्षोभ तो हर हालत में रहेगा ही। इसी प्रकार प्यार के अभाव में मनुष्य अपना मानसिक सन्तुलन धीरे-धीरे खोता चला जाता है और एक दिन स्थिति वह आ जाती है जिसमें उसे विक्षिप्त एवं अर्ध-विक्षिप्त के रूप में पाया जाता है।

जो पूर्ण विक्षिप्त हो चुके हैं उनकी बात दूसरी है, पर जो दूसरों के मन और व्यवहार का अन्तर समझने में किसी सीमा तक समर्थ हैं उनके रोग को साध्य माना जा सकता है। अधिक से अधिक यह समझा जा सकता है कि उपचार कष्ट साध्य है, पर असाध्य तो नहीं ही कहना चाहिए। ऐसे रोगियों का उपयुक्त उपचार यह है कि उन्हें उपेक्षा के वातावरण से निकाल कर स्नेह सद्भाव का अनुभव करने दिया जाय, जिनसे उसका वास्ता पड़ता है वे सभी उसे प्यार और सम्मान प्रदान करें। वैसा न करें जैसा कि आमतौर से पागलों के साथ किया जाता है। अटपटे-पन पर खीज आना स्वाभाविक है, पर हितैषियों को यह मानकर चलना चाहिए कि रोगी आखिर रोगी है और उसके अटपटे व्यवहार जान-बूझकर की गई उद्धतता नहीं वरन् चिन्तक तन्त्र के गड़बड़ा जाने की विवशता भर है। ऐसी दशा में वह तिरस्कार एवं प्रताड़ना का नहीं, दया और दुलार का अधिकारी है।

प्यार की प्यास मानवी चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। पदार्थों के संग्रह इन्द्रियों की रसानुभूति के उपरान्त तीसरी भूख स्नेह की है जो व्यवहार में सम्मान के रूप में देखी जाती है। यश कामना उसी का रूप है। प्रतिष्ठा प्राप्त करते समय मनुष्य सोचता है कि यह सम्मानकर्ताओं द्वारा दिया गया स्नेह सद्भाव है। यों होता यह भ्रम ही है किन्तु असली न मिलने पर नकली से भी बहुत करके काम चलाते रहा जाता है। स्नेह के साथ सम्मान रहेगा किन्तु सम्मान का प्रदर्शन सदा स्नेह युक्त ही हो यह आवश्यक नहीं। उसमें छद्म भी घुला रह सकता है। सम्मान और यश के लिए लालायित प्रायः सभी पाये जाते हैं और उसके लिए समय, श्रम एवं धन भी खर्च करते हैं। यश लालसा के पीछे वस्तुतः प्यार को उपलब्ध करने की आकाँक्षा ही काम करती है। लोग बड़प्पन के प्रदर्शन में उसे खरीदने की विडम्बना रचते रहते हैं।

पानी की प्यास से गला सूखता है और भूख से पेट उठता है। प्यार के अभाव में आदमी थकता ही नहीं टूटता भी है। एकाकीपन यों अन्य प्राणियों को भी सहन नहीं, पर मनुष्य के लिए तो वह न ढोया जा सकने वाला भार है वह साथ रहना ही नहीं चाहता ऐसे साथी भी चाहता है जो उसके अन्तस् को छूने, गुदगुदाने खड़ा रखने और उठाने में सहायता कर सकें। प्यार का अभाव अखरता तो धैर्यवानों को भी है, पर हलकापन तो उसके कारण उखड़ ही जाता है। प्रायः आन्तरिक उखड़ापन ही पगलाने की व्यथा बनकर सामने आता है। यों पागलपन के इसके अतिरिक्त भी और कितने ही कारण होते हैं।

इस प्रकार पगलाने वालों का सबसे बड़ा दोष यह होता है कि वे प्यार की प्रकृति को नहीं जानते और यह नहीं समझ पाते कि यह अपने भीतर से निकलने वाली आभा भर है जो जहाँ भी पड़ती है वहाँ दूसरे स्थानों की अपेक्षा अधिक चमक उत्पन्न करती और आकर्षक लगती है। अपना प्यार ही दूसरों में प्रतिबिंबित होता है। यदि उसमें कमी हो तो दूसरोँ का वास्तविक सद्भाव भी ठीक तरह समझ सकना सम्भव न हो सकेगा। इसके विपरीत अपनी प्रगाढ़ आत्मीयता होने पर साथियों का सामान्य शिष्टाचार भी गहरे दुलार की अनुभूति करता रहता है। बल्ब स्वयं जलता है और अपने क्षेत्र को प्रकाशवान करता है। व्यक्ति का अपना प्यार ही है जो विकसित होने पर दूसरों में प्रेम प्रतिदान मिलने के रूप में विदित होता रहता है।

जो इस तथ्य को समझते हैं वे पगलाने से बचे रहते हैं। चपेट में आते हैं तो अपना उपचार आप कर लेते हैं। दूसरों की प्रतीक्षा न करके अपनी ओर से सद्भाव बढ़ाते हैं और उसे साथियों में, सम्पर्क क्षेत्र में उसका प्रतिबिंब देखते हैं। मानसिक अवसाद का यह अति सरल किन्तु अत्यन्त कारगर स्वसंचालित उपचार है, पर दुर्भाग्य यह है कि इस तथ्य को कोई-कोई ही समझ पाते हैं और अपनी और न देखकर स्नेह, सद्व्यवहार एवं सम्मान के लिए दूसरों का मुँह ताकते रहते हैं। न मिलने पर खीजते और दूसरों पर ही कृपणता, कृतघ्नता आदि का दोष लगाते हैं। सहयोग के अभाव में साँसारिक कामों में हानि पड़ने की बात सर्वविदित है। आन्तरिक सद्भावों की उपलब्धि भी उससे भी बड़ी आवश्यकता है। इतने बड़े उपार्जन का यही सरल उपाय है कि अपनी ओर से प्यार का प्रकाश फेंककर दूसरों को प्रिय पात्र बना लिया जाय और अपने ही प्रेम प्रकाश का आलोक समीपवर्ती क्षेत्र में छाया देखा जाय।

मानसोपचार की कठिनाई यह होती है कि वह पगलाये हुए रोगियों को यह दार्शनिक तथ्य समझा सकने में सफल नहीं हो पाते, समझने में तथाकथित समझदार भी असफल रहते हैं। मानसिक रोगी पहले तो अपनी विपन्नता ही स्वीकार नहीं करता, करता भी है तो उसे दूसरों की परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुई मानता है। जब तथ्य को स्वीकार ही नहीं किया गया तो उसके परिवर्तन के लिए बताया गया उपाय भी किस तरह गले उतरेगा। कदाचित ही कोई मनोरोग चिकित्सक अपने रोगियों को यह समझा सकने में सफल हो पाते होंगे कि उन्हें अपने भीतर आशा का, उल्लास का, प्रेम का स्रोत उभारना चाहिए और अपने सूखे मनःक्षेत्र को हरा-भरा कर लेना चाहिए। कितना दुर्भाग्य है कि दो वयस्क मस्तिष्क लाख प्रयत्न करने पर भी उस तथ्य को समझने और समझाने में सफल नहीं होते, जिन पर कि उनकी प्रसन्नता और सफलता निर्भर है।

जो हो, उपचार तो करना ही ठहरा। ऐसी दशा में एक ही उपाय शेष रह जाता है कि विक्षिप्तता एवं अर्ध विक्षिप्तता के रोगी से सहानुभूति रखने वाले सभी लोग अपना व्यवहार बदल लें। स्नेह, सहयोग और सम्मान का प्रदर्शन करें। आत्मीयजन होने के नाते यदि ऐसा सहज स्वाभाविक रूप से बन पड़े तो उसका अधिक प्रभाव पड़ेगा, पर यदि भीतर से वैसी उमंग न उठती हो तो भी प्रेम प्रदर्शन को कारगर उपचार मानकर उसके लिए आवश्यक प्रयास किया जाना चाहिए।

मानसोपचार में औषधियों का- विद्युत प्रयोगों का तथा अन्यान्य क्रिया-प्रक्रियाओं का भी महत्व है, पर उन सबके संयुक्त परिणाम में भी अधिक लाभदायक यह होता है कि पगलाये रोगी को स्नेह दुलार के वातावरण में रहने का अनुभव होने लगे। उद्धत मनोरोगियों की आक्रामक गतिविधियों पर नियन्त्रण करने एवं सामान्य शिष्टाचार खो बैठने पर प्रतिबन्धित भी किया जाता है और वैसा करने से उसे क्या हानि उठानी पड़ेगी इसका अनुभव भी कराना चाहिए। अन्यथा उद्धत आचरण बढ़ता ही जायगा। इतने पर भी यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि मानसिक रोगों के रूप में जीवन की नाव में जो पानी घुसता है उसके प्रवेश द्वार को प्यार के अभाव की अनुभूति ही कहा जा सकता है। अवसाद को उत्साह में बदल देना ही मानसिक रोगों की कारगर चिकित्सा है। इसमें प्रेमोपचार को जितनी सफलता मिलती है उतनी और किसी प्रयोग को नहीं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118