अन्तर्जगत का देवासुर संग्राम-अनिर्णीत ही न चलता रहे

January 1978

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समय आ गया जबकि हमें लिप्सा और श्रद्धा में से एक को वरण करने के लिए सुनिश्चित फैसला कर लेना चाहिए। अन्तर्जगत में देवासुर संग्राम चिरकाल से चलता आ रहा है। अब कोई ऐसा दैवी अवतरण होना चाहिए, जिससे इस अन्तर्द्वन्द्व के कारण उत्पन्न महाविनाश का अन्त हो सके।

हमारे भीतर दो प्रबल तत्व बैठे है। एक देवता दूसरा असुर। इस संसार का सृजन ही अन्धकार और प्रकाश के पतन और उत्थान के, दुःख और सुख के तत्वों से हुआ। एक से जूझने और दूसरे को अपनाने के लिए जो प्रयत्न करना पड़ता है उसी के सहारे चेतना और गतिशीलता निखरती है। प्रगति के पथ पर यही दो चरण बढ़ाते हुए लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव होता है। इस जड़ चेतन के-तम और सत के-दैत्य और देव के सृजन में सृष्टा का जो भी प्रयोजन रहा हो-स्थिति वही है। मनुष्य के सामने श्रेय और प्रेय के दो मार्ग सदा से खुले रहे हैं। अपने भाग्य का निर्माता वह इसी कारण कहा गया है कि इन दोनों में से एक का चयन करके वह अपने लिए उत्थान और पतन का पथ प्रशस्त कर सकता है।

मानवी बुद्धि की परीक्षा उसकी दूरदर्शिता और अदूरदर्शिता की कसौटी पर कसी जाती है। एक तात्कालिक प्रलोभन और सदा के लिए विनाश का मार्ग है। दूसरा वह है जिसमें प्रथम कठिनाइयाँ स्वीकार करनी पड़ती हैं, बाद में चिरस्थायी सुख शांति की व्यवस्था बनती है। जाल में फँसने वाले पक्षी और काँटे में गला फँसाने वाली मछली जैसे जीव अदूरदर्शिता अपनाते हैं। तत्काल के सरल और प्रचुर दीखने वाले प्रलोभन के लिए इतने आतुर हो जाते हैं कि दुष्परिणामों की बात सोच ही नहीं सकते। चासनी को देखकर टूट पड़ने वाली मक्खी की भी यही दुर्गति होती है। उपभोग की आतुरता में लोग अपना पैसा, स्वास्थ्य, सम्मान, सन्तोष और भविष्य बुरी तरह बिगाड़ते हैं। उन्हें यह दिखाई ही नहीं पड़ता कि सदुद्देश्य अपनाकर श्रेष्ठता की दिशा में चलने वाले आरम्भ में तो कुछ घाटा उठाते दीखते हैं, किन्तु अन्ततः प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं।

किसान, व्यापारी, विद्यार्थी, श्रमिक, शिल्पी, कलाकार आदि सभी को उन बुद्धिमानों की श्रेणी में गिना जा सकता है जो आरम्भ में असुविधा उठाते और अन्ततः अपना भविष्य उज्ज्वल बनाते हैं। जीवन-सौभाग्य को सार्थक बनाने वाले दूरदर्शी महामानवों में प्रत्येक को सदुद्देश्य के लिए संकल्प और साहस करने की प्रखरता अपनानी पड़ी है। इससे कम में न किसी ने अपना लोक बनाया है और न परलोक।

वृक्ष बनने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए बीज को गलने का पुरुषार्थ दिखाना ही चाहिए। जो इतना साहस नहीं कर पाता वह दाना कुछ दिन यथावत् रखा भर रहता है पीछे प्रकृति की प्रक्रिया उसे सड़ा घुनाकर समाप्त कर देती है। आतुरतापूर्वक बीज सस्ते मोल में उन्नति करने के लिए आतुर होता है तो सीलन में बैठकर अपना थोड़ा-सा फुलाव भर कर लेता है, पर उस सस्ती प्रगति का दुष्परिणाम और भी जल्दी सामने आता है। सीलन में फूला हुआ बीज अपना अस्तित्व और भी जल्दी गँवा बैठता है। दूरदर्शी बीज उत्साहपूर्वक गलते और वृक्ष की तरह विशाल बनते हैं। उनकी जड़ों को धरती माता खुराक होती है और इंद्र देवता सींचने का अयाचित अनुग्रह बरसाते हैं। जो बीज गलने में हानि और बचने में लाभ देखते रहे उन्हें उनकी कृपणता तुच्छता के गर्त में ही गिराये रहती है, वे प्रगति की किसी भी दिशा में रंच मात्र भी आगे बढ़ नहीं पाते।

दोनों ही मार्ग हर विवेकशील के आगे खुले पड़े हैं। एक प्रेय का दूसरा श्रेय का। एक स्वार्थ का दूसरा परमार्थ का। एक मूर्खता का दूसरा दूरदर्शिता का। एक पतन का दूसरा उत्थान का। इन दोनों में से एक का चयन करने की चुनौती हर जागृत आत्मा के सामने खुली पड़ी रहती है। दोनों ओर लाभ दीखते हैं और हानि भी। मन भ्रमता भटकता रहता है। कभी एक को अपनाने की बात सोचता है, कभी दूसरे को। कभी एक पकड़ता है कभी दूसरे को। कभी एक को छोड़ता है कभी दूसरे को। इस असमंजस भरी मनःस्थिति को ही देवासुर संग्राम कहा गया है। इसी को अंतर्द्वंद्व कहते हैं। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी तब तक कोई चैन से न बैठ सकेगा । अन्तर्जगत में चलते रहने वाले इस महाभारत के कारण चीत्कार और हाहाकार छाया रहता है। इस स्थिति के रहते किसी को और कुछ भले ही मिल जाय शान्ति एवं सन्तोष के दर्शन हो ही नहीं सकेंगे।

इस देवासुर संग्राम का अन्त सामान्य बुद्धि के सहारे नहीं हो सकता। क्योंकि दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी सामर्थ्य और विशेषता के कारण पूर्ण प्रबल हैं। इनमें से किसी की क्षमता कम नहीं, कोई हारने वाला नहीं। कलह अनन्त काल तक चलता रहेगा। कभी एक हारेगा, कभी दूसरा। कभी एक की जीत होगी, कभी दूसरे की। विग्रह का अन्त भगवान का अवतार ही करता है। पौराणिक गाथाओं में इसी प्रसंग के अनेक उपाख्यान हैं। देवासुर संग्रामों के अन्त तभी होते रहे हैं, जब भगवान की शक्ति ने किसी किसी रूप में प्रकट होकर अपना चमत्कार दिखाया है। इन कथानकों में एक ही तथ्य स्पष्ट है कि श्रेय और प्रेय की खींचतान का अन्त ऋतम्भरा, प्रज्ञा दूरदर्शी विवेकशीलता सदुद्देश्य के लिए साहस कर सकने वाली प्रखरता के आधार पर ही होता है। जब तक अन्तरात्मा की धरती पर इस रूप में भगवान का अवतार न होगा तब तक अन्तर्द्वन्द्व से भरी अशान्ति मनःस्थिति में मात्र विक्षोभ ही उभरते रहेंगे। शांति और सन्तोष का अनुभव एक क्षण के लिए भी न हो सकेगा।

इस द्विधा, असमंजस का अन्त होने की समस्या जागृत आत्माओं की सबसे बड़ी समस्या है। सुख-सुविधाओं की थोड़ी-सी ओस बूँदें चाटते रहने से अन्तरात्मा की प्यास बुझेगी नहीं। जलते तवे पर लोभ और मोह की पूर्ति की थोड़ी सी सफलता पानी की कुछ बूँदें ही सिद्ध होती रहेंगी। उनके सहारे कुछ समाधान निकलेगा नहीं। उलझन का अन्त स्थायी रूप से हो सके तो ही निश्चित दिशा में निश्चिततापूर्वक निर्धारित गति से चल सकना सम्पन्न हो सकेगा। अन्यथा आगे बढ़ने, पीछे हटने के कुचक्र में फंसे रहने से तो श्रम और समय ही नष्ट होता रहेगा। महत्वपूर्ण निर्णय न हो सके तो महत्वपूर्ण परिणाम भी कैसे हो सकते हैं। समय आ गया कि इस असमंजस भरी अनिश्चित स्थिति का स्थायी समाधान खोज लिया जाय। जीवन सम्पदा का कुछ महत्वपूर्ण उपयोग अंतर्द्वंद्व का हल करने के उपरान्त ही बन पड़ेगा। अस्तु आज की सबसे बड़ी समस्या यही मानी जानी चाहिए कि हम आन्तरिक कलह का स्थायी हल ढूँढ़ें और किसी सुनिश्चित मार्ग पर चलकर कुछ वैसी उपलब्धियाँ प्राप्त करें जिनके लिए यह सुर दुर्लभ सौभाग्य दिया गया है।

दैत्य पक्ष का तर्क है कि प्रत्यक्ष तो उपभोग है। उसका लाभ और आनन्द तत्काल मिलता है। अधिकांश व्यक्ति उसी मार्ग पर चल रहे हैं। साथी स्वजनों का परामर्श और प्रोत्साहन उसी के लिए है। फिर अपने को भी दूसरों की तरह इसी मार्ग पर क्यों नहीं चलते रहना चाहिए? इन्द्रियाँ वासना पूर्ति के लिए लालायित रहती हैं और उपभोग के जितने अवसर मिलते हैं उतनी ही बार प्रसन्न होती हैं। आराम की-सुख साधनों की इच्छा शरीर को हर घड़ी रहती है। विनोद, मनोरंजन में जी रमता है। इनके साधन इकट्ठे करने में लगे रहने का प्रतिफल सुविधाओं को-उपभोग सामग्री को बहुलता के रूप में तत्काल मिलता है फिर इन्हीं के लिए सोचते और करते रहने में क्या हर्ज है? साधन संग्रह से मिलने वाली अमीरी के साथ बड़प्पन भी रहता है। सब चकित एवं प्रभावित होते हैं। सराहना ही नहीं खुशामद भी करते हैं। धन देकर किसी को भी प्रसन्न आकर्षित किया जा सकता है यहाँ तक कि धर्म और भगवान का लाभ भी पैसे के सहारे ही मिल सकता है फिर उसी का अधिकाधिक मात्रा में संचय क्यों न करते रहा जाय? साथ तो कुटुँबी ही रहते हैं। उनकी अनुकूलता और प्रसन्नता पाने के लिए उन्हें सुविधा साधन देना आवश्यक है। फिर वैसा ही क्यों न करते रहा जाय जिसकी कुटुम्बीजन अपेक्षा करते हैं।

यह चिन्तन परामर्श दैत्य वर्ग का है। इसमें तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ बताया जाता है और कहा जाता है कि भविष्य की बातें सोचना व्यर्थ है। भविष्य में क्या होना है इसे कौन जाने? प्रत्यक्ष की उपेक्षा करके परोक्ष की अपेक्षा क्यों की जाय? इन तर्कों से प्रभावित जीवात्मा को लोभ और मोहग्रस्त जीवन जीना पड़ता है। वासना और तृष्णा ही उसकी गतिविधियों पर छाई रहती है। अहंता की पूर्ति इसी में लगती है। लोगों को परामर्श एवं सहयोग इसी के लिए मिलता है। समीपवर्ती वातावरण का प्रभाव भी मनोभूमि पर इसी रूप में अच्छादित रहता है।

अन्तरात्मा में अवस्थित देव पक्ष कहता है- ‘सृष्टा ने मनुष्य जीवन की धरोहर किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्रदान की है। सृष्टि के अन्य प्राणियों को जो नहीं दिया गया वह मनुष्य को उपहार के रूप में देना ईश्वर का पक्षपात और अन्याय होता है। वैसा ही नहीं- हो भी नहीं सकता है। जीवन संपदा विम्व-उद्यान को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने में ईश्वर का हाथ बंटाने के लिए मिली है। इसी मार्ग पर चलते हुए मुक्त मनःस्थिति और स्वर्गीय परिस्थितियों का लाभ मिल सकता है। भव-बंधनों से मुक्ति और अपूर्णता से पूर्णता की प्राप्ति का जीवन-लक्ष्य इसी मार्ग पर चलने से मिलेगा। आत्म-संतोष और आत्मशान्ति की दोनों ही महान् उपलब्धियाँ इससे कम में मिलती नहीं और इससे अधिक उसके लिए और कुछ करने की आवश्यकता है नहीं।

देव पक्ष का तर्क है कि तात्कालिक लोभ के आकर्षण में यहाँ माया का छलावा ही फैला हुआ है। यह चूहे को पिंजड़े में फंसा कर उसकी जान लेने जैसी प्रवंचना है। बुद्धिमत्ता और मूर्खता की यह कसौटी है कि वंसरी की आवाज पर मोहित मृग में-कमल पुष्प में बंद होकर हाथी के पेट में जाने वाले भौंरे में और बुद्धिमान मनुष्य में दूरदर्शिता, अदूरदर्शिता का कुछ अन्तर है या नहीं? परीक्षा फीस के लिए घर से मिले पैसों को सिनेमा देखने में खर्च कर डालने वाला विद्यार्थी उस दिन तो बहुत प्रसन्न दीखता है और अपनी चतुरता पर गर्व भी करता है, पर जब परीक्षा में न बैठ सकने, पढ़ाई में पिछड़ जाने, परिवार की प्रताड़ना और साथियों का उपहास सहने का दिन आता है तब पता चलता है कि तात्कालवाद कितना महंगा पड़ता है। नशेबाजों की गणना ऐसे ही अदूरदर्शी लोगों में है जिन्हें तुरन्त का मौज-मजा ही सब कुछ लगता है और उसी कुचक्र में फंस कर अपना पैसा, स्वास्थ्य, सम्मान सब कुछ गंवा बैठते हैं। चोर, जुआरी, लवार भी तत्काल के लाभ को सब कुछ मानते हैं और उस दुर्दिन को नहीं देखते जो कुछ ही समय में तिरस्कार, असहयोग, धिक्कार एवं समाज दण्ड के रूप में सामने आकर खड़ा होने वाला है।

लिप्सा, बिजली की चमक की तरह ही चकाचौंध उत्पन्न करती और क्षण भर में गायब हो जाती हैं। जिह्वा का चटोरपन, अश्लील कामुकता की चमक कुछ मिनट ही रहती है। इसके उपरान्त पेट खराब होने और शरीर खोखला होने का संकट ही चिरस्थायी रूप से गले बंध जाता है। विलासी शृंगारिकता का उद्देश्य दूसरों को आकर्षित करना और अपना बड़प्पन जताना होता है, किन्तु वास्तविक परिणाम इससे ठीक उलटा होता है। छिछोरापन, मनचलापन इससे टपकता है और अप्रामाणिकता की गंध इस सारे विन्यास से आती है। ऐसे लोग किसी की आँखें भले ही लुभा लें। विश्वास किसी का भी नहीं पा सकते। संबंधियों को अनावश्यक सुविधा साधन देते रहने से उसका स्वभाव, व्यक्तित्व और भविष्य बिगड़ता है। उनकी बढ़ी-चढ़ी इच्छाएँ पूरी होने में जब कमी पड़ती है तो तुरन्त आँखें बदल जाती हैं। संचय का धन दूसरे बिलसते हैं और अपने को उसके लिए कोल्हू के बैल जैसी मेहनत, प्राण सुखाने वाली चिन्ता और अनन्त काल तक सहने वाली प्रताड़ना के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता।

देव पक्ष बुद्धि को निरन्तर यही समझाने का प्रयत्न करता है कि इस सुरदुर्लभ सौभाग्य भरे अवसर को जीवन साधना में लगाया जाय और उसका सत्परिणाम वैसा ही पाया जाय जैसा कि प्रातः स्मरणीय-लोकश्रद्धा के भाजन, विश्व के मार्ग-दर्शक महामानव प्राप्त करते रहे हैं। सुख-शान्ति की आकाँक्षा आन्तरिक उत्कृष्टता के सहारे ही पूरी होती है। साधनों की मृग तृष्णा में भटकने से थकान और खीज ही पल्ले पड़ती है। कस्तूरी का मृग चैन तभी पाता है जब वह सुगन्ध का स्त्रोत अपनी नाभि में होने की जानकारी पा लेता है। सच्ची समृद्धि उत्कृष्ट मनःस्थिति है उसी के आधार पर अनुकूल परिस्थितियाँ बनती हैं। यह जान लेने पर साधनों की लालसा और उपभोग की लिप्सा का समाधान होता है अन्यथा वह आग में घी डालते रहने की तरह घटती नहीं बढ़ती ही रहती है।

जागृत आत्माओं के अन्तःकरण में यही देवासुर संग्राम निरन्तर खड़ा रहता है। पेट और प्रजनन तक सीमित रहने वाली पशु-प्रवृत्ति छोटी योनियों की परिस्थिति के अनुरूप है। उन पर शारीरिक प्रवृत्तियाँ ही हावी रहती हैं। मनुष्य की स्थिति उनसे भिन्न है। उसमें अन्तरात्मा नाम का एक नया तत्व जग जाता है। यही देवत्व है। वह निरन्तर ऊँचा उठने की, आगे बढ़ने की, आत्म-गौरव और आत्म-संतोष पाने की चेष्टा करता है। इसी के लिए चेतना को-बुद्धि को अपनी ओर खींचता है। दूसरी ओर तुच्छ योनियों की संचित पशु-प्रवृत्तियाँ अपने स्थान पर अड़ी रहनी चाहती हैं। वे लोभ और मोह की पेट और प्रजनन की सीमा से चेतना को एक कदम आगे नहीं बढ़ने देना चाहतीं! यही है वह सत्प्रवृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों का मल्ल युद्ध जो निरन्तर अन्तःक्षेत्र में देवासुर संगम के रूप में दृष्टिगोचर होता है। नितान्त नर-पशु के सामने कोई समस्या नहीं, वह निकृष्टता के अभ्यस्त दलदल में फंसे हुए कृमि-कीटकों की तरह मनुष्य काया में भी गुजारा कर लेता है। देवत्व की हल्की सी किरणों पर पर्दा डालने, दबाने, कुचलने से उसे बहुत कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। ओछा और घिनौना जीवन वह किसी प्रकार जी लेता है। किन्तु जागृत आत्माओं की स्थिति सर्वथा भिन्न है। जिनका देवत्व एक बार जग गया वह फिर सो नहीं सकता। उसकी माँग, पुकार बढ़ती हो रहेगी। अन्तर में घुसे हुए दानव के साथ उसका मल्ल-युद्ध तीव्र ही होता चला जायेगा। जागृत देवता को दबाने के लिए तमिस्रा के असुर का प्रयास सफल नहीं हो पाता, फिर भी वह हारता नहीं। कम से कम इतना तो किये ही रहता है कि देवत्व अपनाने की आकाँक्षा को सफलीभूत न होने दे, उसके मार्ग में पग-पग पर रोड़े अटकाता रहे।

युग-निर्माण परिवार के प्रत्येक परिजन के अन्तर्जगत में इन दिनों ऐसा ही देवासुर संग्राम प्रचण्ड होता चला जा रहा है। इसे कोई भी दिव्य चक्षु संपन्न व्यक्ति अपनी और अपने साथ वाली जागृत आत्मा की अन्तःस्थिति का पर्यवेक्षण करके सहज ही देख सकता है। बाह्य जीवन के विग्रह, विद्वेष, झंझट कितने कष्ट कारक, कितने चिन्ताजनक, कितने विक्षोभ युक्त होते हैं, इसे हर कोई जानता है। जिनने कभी अन्तर्द्वन्द्व का अनुभव किया है कि इससे अधिक उद्विग्नता एवं अशान्ति और कुछ हो नहीं सकती वे देवासुर संग्राम के दिनों की परिस्थितियों का वर्णन जब पौराणिक उपाख्यानों में पढ़ते हैं तो उसकी रोमाँचकारी भयानकता सामने आ खड़ी होती है। इसी का एक रूप देखना हो तो जाग्रत आत्माओं के अन्तःक्षेत्रों में चलने वाले अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति का अनुमान लगा देना चाहिये।

एक ओर ईश्वर अपनी भुजाएं पसारे गोदी में चढ़ाने का-छाती से लगाने का आह्वान करता है। दूसरी ओर लोभ और मोह के बंधन हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी की तरह बंधे हैं। स्वार्थान्धता की अहंता कमर में पड़े रस्सों की तरह जकड़े बैठी है। पीछे लौटे, जहाँ के तहाँ रुके रहें, या आगे बढ़ें? यह तीन प्रश्न ऐसे हैं जो अपना समाधान आज ही चाहते हैं। अनिर्णीत स्थिति का असमंजस जागृत आत्माओं के लिये क्रमशः असह्य ही बनता जाता है। समय आ गया कि इस महती सामयिक समस्या का कोई समाधान खोज ही लिया जाय। उपेक्षा करते रहने से समय बीतता जायेगा और यह सुरदुर्लभ अवसर सदा के लिए हाथ से चला जायेगा, जो आज सही रीति से समाधान बन जाने पर अभी भी उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकता है। जो बीत गया वह बहुत था। पर जो शेष रहा है वह भी इतना है कि उसकी बर्बादी यदि रोकी जा सके, जीवनक्रम की वर्तमान दिशाधारा बदली जा सके तो बचे हुए दिनों में भी स्वयं पार होने और दूसरों को अपनी नाव में बिठाकर पार कर सकने की परिस्थिति बन सकती है।

जागृत आत्माएं अपने को फिर मूर्छित कर सकने में सफल न हो सकेंगी। शरीर बढ़ जाने पर फिर शिशु शरीर पा सकना या छोटे कपड़े पहन कर गुजारा कर सकना संभव नहीं। असुरता को देर तक सहन करना और देवत्व को देर तक टकराना न तो उनके लिए संभव है और न शोभनीय। इससे आत्मा की परमात्मा की और युग धर्म की अवमानना ही होती रहेगी। ओछा जीवन जीते रहने पर भी चैन से रहा नहीं जा सकेगा।

अच्छा है ईश्वर को अपने अन्तःकरण के आँगन में क्रीड़ा करने का अवसर दें। देवत्व का समर्थन करें, ऐसा विवेकपूर्ण निर्णय करें जिसके आधार पर जागृत आत्माओं में दबे मानवों जैसी जीवन नीति निर्धारित को जा सके। यह निर्धारण ही पर्याप्त नहीं इसे कार्यान्वित करने के लिए सत्संकल्प और उत्साह भी चाहिए। इसी उमंग भरे उपहार को व्यक्तिगत जीवन में ईश्वर का अवतरण कहा जा सकता है।

औसत भारतीय के स्तर का सादा निर्वाह-परिवार को सुसंस्कारी ओर स्वावलंबी बना देने का उत्तरदायित्व यदि पर्याप्त माना जाय-तो लोभ और मोह की फाँसी से मुक्ति मिल सकती है। जो संचय मौजूद है, उसी से जीवन की शेष अवधि का निर्वाह भली प्रकार हो सकता है। घर के समर्थ लोगों को पारिवारिक उत्तरदायित्व हस्तान्तरित करने में बहुत अधिक कठिनाई नहीं होती। कारणवश अनुपस्थिति या असमर्थता हो जाने पर भी परिवार व्यवस्था में प्रायः अन्तर नहीं आता और खाँचा इधर-उधर हिल-डुल कर किसी प्रकार फिट ही हो जाता है। वस्तुतः ऐसा कभी विचार ही नहीं किया गया कि युग धर्म को पूरा करने के लिए हमारे कंधों पर कुछ विशेष उत्तरदायित्व है। कभी ऐसी योजना बनाई ही नहीं गई कि संचय और उपभोग और व्यामोह को शिथिल कर देने पर भी किस प्रकार वह सारा काम यथावत् चलता रह सकता है, जिसे प्रमादवश अपने ऊपर पहाड़ रखा होने की तरह अनिवार्य मान लिया गया है और जिसके सामने विवश असहाय की तरह सिर झुका दिया गया हैं। यदि ऐसा न होता तो थोड़ा या अधिक समय और साधनों का अनुदान युग साधना के लिए लगाते रहने में व्यस्त या निर्धन व्यक्ति को भी कठिनाई अनुभव न होती।

पूरा समय समाज सेवा के लिए दे सकने की बात भी यदि जागृत आत्माएं सोचने लगें तो उनमें से आधे लोग अभी भी, आज की स्थिति में भी नव-निर्माण के सृजन सैनिकों की पंक्ति में दिन-रात जुटे रहने वाले कर्मवीरों की अग्रिम पंक्ति में खड़े हो सकते हैं। पिछले दिनों 100 ऐसे ही जीवन दानियों की माँग की गई थी। उस पुकार पर दर्जनों ने तैयारियाँ आरम्भ कर दी हैं। जो उनके पास था उसे बैंक में जमा करके ब्याज से अपना खर्च चलाने की व्यवस्था बना चुके हैं। परिवारों को हरिद्वार ले आये हैं। दिन-रात काम में जुटे हैं। पारिवारिक खर्च में यदि थोड़ी-बहुत कमी किसी को पड़ती है उसकी पूर्ति मिशन से कर दी जाती है। यह पूरा समय देने वालों की बात हुई। अपना सामान्य कामकाज करते हुए भी समीपवर्ती क्षेत्रों में बहुत कुछ किया जा सकता है। जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व अभी शेष हैं वे शरीर और आत्मा दोनों के हित साधन की समन्वयात्मक योजना बनाकर चल सकते हैं। रास्ते हजार निकल सकते हैं। देवत्व के परिपोषण के लिए कुछ कर सकना हर किसी के लिए संभव हो सकता है। प्रश्न दानव को दुत्कारने और देव को शिरोधार्य करने का साहस जुटाने भर का है। जागृत आत्माओं के निर्णय निर्धारण इसी स्तर के हो सकें, समय ने ऐसी ही अपेक्षा की है।

जागृत आत्माएं अपने आन्तरिक देवासुर संग्राम को देखें और उसके समाधान के लिए सद्विवेक से, सत्साहस से, भगवान का आह्वान करें। यदि ऐसा हो सके तो इसी देव परिवार की असंख्य प्रतिभाएं युग देवता के चरणों में अपनी छोटी या बड़ी भाव-भरी आत्माहुति प्रस्तुत कर सकती है। पतन और पीड़ा के गर्त में पड़ी हुई मानवता ने इसी की आर्त पुकार की है। महाकाल ने इसी की माँग की है। जागृत आत्माओं में से हर एक की असाधारण भूमिका इस संदर्भ में हो सकती है। कठिनाई एक ही है। लोभ और मोह के रूप में अन्तर्ज्योति को ग्रस लेने वाले राहु-केतु के ग्रहण से किस प्रकार मुक्ति पाई जाय। जो इस देवासुर संग्राम में देव पक्ष का समर्थन करेंगे उन्हीं के लिए देव-मानवों की तरह युगपरिवर्तन की बेला में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकना संभव होगा। जागृत आत्माएं इस संदर्भ में अधिक गंभीर चिन्तन और अधिक प्रखर साहस अपनायें, जिससे जितना अनुदान बन पड़े वह उसके लिए अधिक से अधिक प्रयास करे। यही अपने युग की सबसे बड़ी माँग और यही अन्तरात्मा की सबसे बड़ी पुकार है। बसन्त पर्व इसी नव-जागरण का विशेष संदेश लेकर आ रहा है। इसे सुनना और शिरोधार्य करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।


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