जैसा खाये अन्न- वैसा बने मन

January 1978

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मस्तिष्कीय विकास की न्यूनाधिकता में उसकी प्राकृतिक संरचना की बात कहकर प्रकारान्तर से भाग्यवाद और विधि विधान का ऐसा समर्थन करते हैं जिसे बदलना मनुष्य के बस की बात नहीं है।

दूसरा कारण शिक्षा की कमीवेशी को कहा जाता है। संगति और वातावरण को भी इसमें सहायक या बाधक माना जाता है। यह सभी कारण अपने स्थान पर बहुत हद तक सही भी होते हैं, पर इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण और गाँठ बाँध रखने योग्य बात है कि मस्तिष्क शरीर का एक अवयव भर है भले ही उसकी उपयोगिता और कार्यक्षमता कुछ भी क्यों न हो? अन्य अवयवों पर आहार और व्यायाम का असर पड़ता है। उनकी कमजोरी दूर करने में इन दोनों ही उपायों का प्रयोग किया जाता है। औषधियाँ आहार ही तो हैं। अन्य उपचारों को व्यायाम वर्ग में सम्मिलित किया जा सकता है। अब अन्य अवयवों की अविकसित या विकृत स्थिति को उपचारों द्वारा सुधारा जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि मस्तिष्कीय दुर्बलता का समाधान न हो सके।

पुरानी कहावत है- ‘जैसा खाये अन्न-वैसा बने मन’ इस उक्ति को किंवदंती मानने का कोई कारण नहीं। आये दिन हम इसे तथ्य रूप में देखते हैं। आहार से रक्त माँस ही नहीं मन भी बनता है और उसका प्रभाव मानसिक कार्यक्षमता के विकास पर भी पड़ता है। चाय, काफी आदि गरम उत्तेजक पदार्थ मन पर उत्साहपूर्वक प्रभाव डालते हैं। गर्मी में शरीर ही नहीं मन भी संतप्त होता है। शीतल पेय पीने पर मुँह एवं पेट में ही ठण्डक नहीं लगती, वरन् मन भी शान्त होता है। क्रोध से उद्विग्न व्यक्ति को ठण्डे पेय पीने पर अपने आवेश में घटोत्तरी अनुभव होती है। आहार का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसे उष्ण और शीतल पेय लेकर तत्काल अनुभव किया जा सकता है।

इस सन्दर्भ में नशे अपना विलक्षण ही चमत्कार दिखाते हैं। गाँजा, भाँग, चरस, अफीम, शराब आदि के सेवन करने पर मस्तिष्क की स्थिति जैसी कुछ हो जाती है उससे भारी आश्चर्य होता है। मनुष्य एक प्रकार से अपने स्तर को ही भूल जाता है और लोक-व्यवहार की सामान्य क्रिया प्रक्रिया तक लड़खड़ा जाती है। उद्धत अनर्गल सम्भाषण और आचरण करते देखकर यह अनुमान लगता है कि कम से कम कुछ समय के लिए तो नशेबाज की स्थिति लगभग पागल जैसी ही हो जाती है। नशे के आवेश में लोग दूसरों पर आक्रमण करते और अपनी दुर्गति बनाते देखे जाते हैं। युद्ध मोर्चे पर जाने वाले प्रायः शराब का आश्रय लेकर अपने में आक्रामक आवेश उत्पन्न करते हैं। क्रूर कर्म कर्ता भी अपनी सहृदयता एवं विवेकशीलता दबाने के लिए नशे अथवा अन्य उत्तेजक पदार्थ सेवन करते हैं। यह आहार का हानिकार पक्ष हुआ। इसी का दूसरा पक्ष प्रतिपादन यह है कि सात्विक आहार से बुद्धि सतोगुणी होती है। इतना ही नहीं ऐसे भी खाद्य पदार्थ हैं जो मस्तिष्कीय कार्यक्षमता का सम्वर्धन भी करते हैं। बुद्धि कौशल, मनोबल, दूरदर्शिता, यथार्थ चिन्तन, सूझबूझ एवं सही निर्णय लेने जैसी अनेक मानसिक क्षमताओं के विकास में ऐसे खाद्य पदार्थों की सहायता ली जा सकती है जिनमें मानसिक परिपोषण के उपयुक्त रासायनिक पदार्थों की उपयोगी मात्रा मौजूद है।

मस्तिष्कीय विकास में ऐसे खाद्य पदार्थों का बड़ा योगदान रहता है जो सात्विक प्रकृति के और सुपाच्य माने जाते हैं। गरिष्ठ, चटपटे, तले भुने, शकर की अनावश्यक मात्रा वाले मसाले डालकर सुगन्धित और रंग डालकर आकर्षक बनाये गये पदार्थ सात्विक प्रकृति के नहीं होते। उनमें उत्तेजना भरी रहती है और वह प्रायः तामसिक स्तर के होते हैं। ऐसे पदार्थों का सेवन अपच रक्त विकार जैसी विकृतियाँ उत्पन्न करता है और फिर उनसे तरह-तरह की बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। स्वाद के लिए गरिष्ठ और उत्तेजक पदार्थों को खाने से न केवल सामान्य स्वास्थ्य को वरन् मस्तिष्कीय कोमलता एवं सक्षमता को भी हानि पहुँचती है।

मस्तिष्क को बल देने वाले सात्विक खाद्य पदार्थों की सूची माँगने की आवश्यकता नहीं है। बिना भूने, उबाले अपने प्राकृतिक रूप, रस, गन्ध और स्वाद से हमारी तृप्ति करते हैं उन्हें अपने शरीर रचना के हिसाब से अनुकूल एवं प्राकृतिक कहा जा सकता है। ऐसे आहार पर निर्भर रहने वाले अध्यात्मवेत्ता अपनी बौद्धिक और आत्मिक विशेषता बनाये और बढ़ाते रहते हैं।

कुछ विशेष पदार्थ ऐसे भी है जो सामान्य भोजन की तरह तो नहीं औषधियों के- अतिरिक्त परिपोषणों के रूम में लिए जा सकते हैं। इनमें कई उपयोगी जड़ी-बूटियों की गणना होती आई है। आयुर्वेद में गोरखमुण्डी, शतावरी, बच, शंखपुष्पी, ब्राह्मी आदि का उल्लेख बुद्धि वर्धक पदार्थों के रूप में हुआ है।

ऑल इण्डिया मेडिकल इन्स्टीट्यूट के शोधकर्त्ताओं ने स्मरण शक्ति बढ़ाने के सम्बन्ध में प्रख्यात ब्राह्मी बूटी पर शोध की है। हर्मेपोनिन मोनिएसा नाप से जानी जाने वाली इन वनस्पति का सत्व इन्जेक्शन द्वारा कुत्तों के मस्तिष्क में पहुँचाया गया तो उससे ‘हिपोकैम्पस’ क्रिया में अपेक्षाकृत अधिक तेजी पाई गई। इस तेजी से यह सिद्ध होता है कि मस्तिष्क ने अपना काम अधिक फुर्ती और अधिक मुस्तैदी से करना आरम्भ कर दिया।

शरीर के सभी क्षेत्र परिपुष्ट और सुविकसित रहते हैं या नहीं, इसमें बहुत कुछ वहाँ के रासायनिक सन्तुलन पर निर्भर है। मस्तिष्क के सम्बन्ध में तो यह बात और भी अधिक सही है। उसमें रासायनिक पदार्थों की मात्रा का सन्तुलन बिगड़ने लगे तो न केवल बुद्धिमत्ता में ही कमी आती है वरन् सनक, आतुरता, अधीरता, उथलापन, दीर्घसूत्रता जैसे कितने ही मन्द मस्तिष्क रोग आ घेरते हैं। ऐसे लोगों को विक्षिप्त तो नहीं कह सकते किन्तु अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित तो कहा ही जायगा। मस्तिष्क में जिन रसायनों की उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है उनमें एक ‘यूरिक ऐसिड’ भी है। रक्त में इसकी मात्रा बढ़ जाय तो जोड़ों की जकड़न, गठिया जैसी शिकायतें बढ़ जाती है किन्तु उसकी कमी पड़ना भी कम हानिकारक नहीं है। सन्तुलन की दृष्टि से रक्त में 2 मिलीग्राम प्रतिशत ही यूरिक ऐसिड होना आवश्यक है। गठिया की आशंका तो तब होती है जब यह मात्रा 9 मिलीग्राम प्रतिशत तक जा पहुँचती है।

डाक्सी रोवोन्यूक्लिक ऐसिड को बुद्धि और स्मृति का संवाहक माना जाता है। इस पदार्थ की बुद्धि स्तरीय विद्युत में परिणत होने की उत्तेजना यूरिक ऐसिड से मिलती है। कनाडा के जीव रसायनवेत्ता कीथ कैनिथ और अर्थर कापले ने मस्तिष्कीय प्रखरता पर यूरिक ऐसिड की न्यूनाधिकता का भारी प्रभाव पड़ता सिद्ध किया है। इसकी मात्रा सन्तुलित कैसे रहती है- न्यून या अधिक होने के खतरों से किस प्रकार बचाव होता है। इसके शोध प्रयास से यह निष्कर्ष निकला है कि व्रेन प्रोटीन मेटाबॉलिज्म क्रिया द्वारा यूरिक ऐसिड उत्पन्न तो पर्याप्त मात्रा में होता है, पर उसका सन्तुलित मात्रा में रखना कुछ विशेष ऐंजाइमों पर निर्भर है। यह ऐंजाइम पशुओं के शरीर में अधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं और उनके मस्तिष्कीय यूरिक ऐसिड को नष्ट करके रख देते हैं। अस्तु उन्हें मूर्ख रहना पड़ता है। किसी प्रकार इन ऐंजाइमों के आघात आक्रमण से पशुओं का मस्तिष्कीय यूरिक ऐसिड नष्ट होने से बचाया जा सके और सन्तुलित मात्रा में रखा जा सके तो वे भी मनुष्यों के समान ही बुद्धिमान हो सकते हैं। मूर्खता एवं मानसिक दुर्बलता के अन्य कारण भी हो सकते हैं, पर उनमें से एक यूरिक ऐसिड की कमी पड़ जाना भी है। भले ही उसका उत्पादन कम होता हो या विरोधी ऐंजाइमों की मार से उसकी मात्रा घट जाती हो।

विज्ञानवेत्ताओं ने कुछ लवण, खनिज, वनस्पति, सत्व एवं प्रोटीन ऐसे ढूँढ़ निकाले हैं, जो मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालते हैं और बुद्धि संवर्धन से स्मरण शक्ति के विकास में आशाजनक योगदान करते हैं। इस संदर्भ के विश्व भर के रसायन शास्त्री अपने-अपने ढंग से शोध प्रयोग चला रहे हैं और शारीरिक बलवर्धक टॉनिकों की तरह मनःशक्ति को विकसित करने वाले सम्वर्धनों के निर्माण का प्रयत्न कर रहे हैं। इन प्रयोग कर्ताओं का विश्वास है कि प्रगति क्रम जिस तरह चल रहा है। उसे देखते हुए अगली पीढ़ी के लोगों को मन्द बुद्धि होने का कलंक शायद अपने ऊपर नहीं ही ओढ़ना पड़ेगा।

मन्द मति मनुष्यों के मस्तिष्कीय पिछड़ेपन का कारण खोजने में ब्रिटेन के मैनचेस्टर मेडीकल स्कूल ने मनुष्यों तथा पशुओं पर लम्बी शोध की है और जो निष्कर्ष निकले हैं उनमें एक बड़ा कारण भोजन के कुपोषण को भी बताया है। शरीर के अन्य अवयवों की तरह मस्तिष्क भी अपने विकास के लिए आवश्यक खाद पानी माँगता है। उसमें कमी रहने पर विकास क्रम रुकता है और पत्र पल्लव मुरझाते हैं। भ्रूणावस्था में शिशु के लिए जिस पोषण की आवश्यकता है यदि यह वहाँ न मिले तो बालक के अन्य अंगों की तरह मस्तिष्क भी दुर्बल बना रहेगा। अन्य अवयवों की दुर्बलता तो छिपी रहती है; पर मस्तिष्कीय पिछड़ापन तो पग-पग पर अपना परिचय देता है।

उपरोक्त शोध संस्थान के दो प्रमुख अन्वेषक डार्विंग और सेन्डस् इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जिस प्रकार आस्थाओं की मजबूती के लिए आहार में कैल्शियम और आयरन की समुचित मात्रा रहनी चाहिए उसी प्रकार मस्तिष्क का पोषण करने वाले प्रोटीनों की मात्रा तब तक तो मिलती ही रहनी चाहिए जब तक कि बीस वर्ष की आयु पूरी नहीं हो जाती। इस आयु तक पहुँचते-पहुँचते मनुष्य में बौद्धिक परिपक्वता का बड़ा अंश पूरा हो चुका होता है।

एवोट रासायनिक प्रयोगशाला के शोधकर्ता प्रो0 ग्लास्की ने पेमोलीन नामन रसायन खोजा है। अभी इसका प्रयोग चूहों पर चल रहा है। अब तक के निष्कर्ष में जिन चूहों को यह टानिक दिया गया वे साथियों की तुलना में अधिक बुद्धिमान बन रहे हैं। डॉक्टर जेम्समेकाफ द्वारा इस संदर्भ में की गई रासायनिक खोजें भी मस्तिष्क विज्ञानियों के क्षेत्र में दिलचस्पी के साथ चर्चा का विषय बन रही हैं। जेम होफइन के द्वारा प्रतिपादित रसायन और पशु वर्ग पर परीक्षण के उपरान्त मनुष्यों पर प्रयुक्त हो रहे हैं। उन्हें निरापद और लाभदायक बताया गया है। न्यूयार्क के आइन्स्टाइन कालेज ने ठीक उलटी खोज की है वे तीव्र बुद्धि वालों को मन्द बुद्धि बनाने में भी आशाजनक प्रगति कर रहे हैं उनका कथन है कि सदा सर्वदा बुद्धि-वृद्धि ही आवश्यक नहीं। अपराधी प्रकृति के लोगों को मन्द मति बनाया जा सके तो वे अपेक्षाकृत अधिक शाँति से रह सकेंगे और दूसरों को कम त्रास दे सकेंगे। विद्रोही प्रकृति के लोगों को इस उपचार से शाँत, सज्जन नागरिक बनाया जा सकेगा।

ऐसे शोध प्रयत्नों में अमेरिका सबसे आगे माना जाता है। वहाँ लास एन्जेल्म कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय ने रिबामिनोल नामक योगिक को स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए उपयोगी पोषक घोषित किया है। इसी विश्व विद्यालय के मनोविज्ञानी प्रोफेसर डेविड क्रेस ने इस शोध के संदर्भ में एक खतरे की भी चेतावनी दी है कि इस सेवन से दुष्ट प्रकृति के लोग अपने कुकर्मों में अधिक कुशल और दुस्साहसी होकर अपने तथा समाज के लिए विपत्ति भी खड़ी कर सकते हैं। अस्तु इन योगिकों का उत्पादन सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध नहीं रहना चाहिए। उसका उत्पादन वितरण ही नहीं सामने सेवन करने का अधिकार उच्चस्तरीय विवेकशील लोगों के हाथों में सुरक्षित रहना चाहिए।

मस्तिष्कीय कार्यक्षमता का विकास एवं चिन्तन में आदर्शवादी उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए स्वाध्याय, सत्संग, अनुभव सम्पादन प्रशिक्षण आदि प्रयत्नों की तरह ही एक अति महत्वपूर्ण उपाय यह है कि आहार ऐसा लिया जाय जिसमें न केवल जल्दी पचने की वरन् सतोगुणी प्रकृति की सूक्ष्म विशेषताएँ भी विद्यमान हों। आहार का निर्धारण करते समय यदि स्वाद को प्रधानता देने के स्थान पर आहार में सन्निहित सतोगुणी विशेषता को ध्यान में रखा जाय तो निश्चय ही इससे मानसिक विकास में असाधारण सहायता मिल सकती है। कहना न होगा कि जीवन की प्रगति और सार्थकता का अवलम्बन मस्तिष्क की दिशा धारा पर निर्भर है और उसको सही रखने के लिए उपयुक्त आहार का महत्व समझने और खाद्य के चयन में सतर्कता बरतने की आवश्यकता होगी।

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