भक्ति मार्ग और प्रेम योग

January 1978

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भक्ति मार्ग की गरिमा सर्वोपरि है क्योंकि वह भाव सम्वेदनाओं की उच्च स्थिति है, यह उच्च भावनाएँ तभी उत्पन्न होती हैं जब चेतना अधिक परिष्कृत स्थिति में जा पहुँचती है इससे निम्न परिस्थिति में छोटे स्तर ही सक्रिय हो पाते हैं। कृमि कीटकों में मात्र शरीरगत सक्रियता ही देखने में आती है। पशु-पक्षियों में ज्ञान का उदय होते देखा जा सकता है। भावनाएँ तो उनमें से कुछेक में ही सीमित मात्रा में पाई जाती हैं। वे सहचरत्व एवं प्रजनन प्रभाव से प्रभावित रहती हैं। नर का मादा के प्रति और मादा का नवजात शिशुओं तक एक सभा तक प्यार रहता है। मनुष्य शरीर में भी यह विकास स्तर इसी क्रम से उभरता है। वनमानुषों में कर्म की प्रधानता रहती है उनमें ज्ञान, विवेक, स्वल्प मात्रा में होता है। कुछ और विकसित समझे जाने वाले लोग शिक्षित, चतुर, बहुज्ञ व्यवहार कुशल तो होते हैं, पर उनमें करुणा-ममता उदारता जैसी भाव-संवेदनाएँ तथा सदुद्देश्यों में श्रद्धा, निष्ठा जैसे उत्कृष्टताएं स्वल्प मात्रा में ही देखी जाती हैं। इनका विकास आत्मिक प्रगति की ऊँची कक्षा में पहुँचने पर होता है। इसलिए सामान्य लोगों को कर्म प्रधान पार्थिव पूजा, परिक्रमा, तीर्थ यात्रा, व्रत, मौन, जप, कीर्तन जैसी क्रिया उपासनाएं बताई जाती हैं। ज्ञान भूमिका में पहुँचने पर स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, ध्यान, धारणा जैसी चिन्तन प्रधान साधनाओं में नियोजित किया जाता है। सबसे ऊँची स्थिति भाव सम्वेदनाओं के उभार उल्लास की है। इसी में भक्तियोग बन पड़ता है। आत्मवत् सर्व भूतेषु-वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता इसी आत्म विश्वास की स्थिति में हृदयंगम हो पाती है। सब हमारे-हम सबके की उच्च मनोभूमि बन पड़ने पर मनुष्य साधु-ब्राह्मण, परिव्राजक, लोकसेवी की तरह आचरण करता है उसका ‘अहम्’ विस्तृत होते-होते ‘त्वम्’ बन जाता है। यह समर्पण-विसर्जन अद्वैत, तत्व दर्शन के रूप में अन्तःचेतना पर आच्छादित होता है तो मनुष्य ऋषि कल्प बन जाता है, ऐसे लोगों को पृथ्वी के देवता कहते हैं। अन्तःस्थिति के अनुरूप उनमें देवोपम सामर्थ्य भी होती है।

आत्मिक प्रगति की उच्च भूमिका में आनन्द की प्राप्ति होती है। उसके पहले ज्ञानजन्य सन्तुष्टि और कर्मजन्य समृद्धि पुष्टि भर का सुख संतोष मिल पाता है। उच्च आत्मिक भूमिका में पहुँचे हुए व्यक्ति को उच्च-स्तरीय भाव संवेदनाओं से पुलकित पाया जाता है। इसे भक्ति कहते हैं। भक्ति भगवान की, की जाती है। प्रेम का आरंभ, आरोपण श्रेष्ठता के समुच्चय भगवान में श्रद्धा के रूप में किया जाता है। इस व्यायामशाला में परिपुष्ट हुई सबलता जन समूह के मध्य अपना चमत्कार दिखाती है। उसके प्रेम अनुदान का प्रसाद पाकर असंख्य व्यक्ति ऊँचे उठते- पार होते और धन्य बनते हैं।

परमात्मा क्या है? उसकी अनुभूति मनुष्य को किस रूप में होती है। इसका रहस्योद्घाटन करते हुए ऋचा में कहा गया है- ‘रसो वै सः। रसं ह्येवाय लब्ध्वानन्दी भवति। स एवरसानाँ रस तमः। अर्थात् वह परमात्मा ‘रस’ है। उस रस का पान कर आनन्द से ओत-प्रोत बना जाता है। वह रसों में सर्वोत्तम रस है।

उपनिषद्कार भगवान को मधु ब्रह्म कहते हैं - ‘मधु क्षरति तद् ब्रह्म’ अर्थात् जिसमें मधुरता टपकती है वह ब्रह्म है। ऋग्वेद में उसे ‘मधु क्षरन्ति सिन्धवः।’ मधुरता बरसाने वाला समुद्र कहा है। इस मधुरता की पराकाष्ठा स्वीटेस्ट लव’ एवं सुपर मैस्ट डी लाइट’ जैसे नाम भी दिये गये हैं। ईसा के शब्दों में ‘गौड इज लव’- प्रेम ही परमेश्वर है। सन्त इमर्सन के शब्दों में ‘दि एसेन्स आफ गौड इज लव’- परमात्मा का सार तत्व प्रेम है। संत ब्रौनिका की अनुभूति है- ‘व्हियर प्लेजर दियर इज गौड’ उल्लास वहीं है जहाँ परमात्मा है।

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