ज्ञान ही नहीं मनुष्य को धर्म भी चाहिए।

January 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पदार्थ क्या है ? संसार क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर इन्द्रिय अनुभूति मात्र से नहीं दिया जा सकता, शरीर पंच तत्वों से बना हुआ है इस उपकरण के सहारे पदार्थ का दृश्य रूप ही परिलक्षित होता है। किन्तु सब कुछ इतना ही तो नहीं है। उसके अन्तराल में भी बहुत कुछ है। उसे ‘ज्ञान’ से ही जाना जा सकता है। अदृश्य को देखने वाले उपकरण भी ज्ञान के आधार पर ही बनते हैं और उनसे जो सूचनाएँ मिलती है उनसे कुछ निष्कर्ष निकल सकना ज्ञान के आधार पर ही संभव होता है। मनुष्य की शक्ल एवं शारीरिक संरचना ही सब कुछ नहीं है। मुख्य वस्तु है उसका व्यक्तित्व और उसके जानने, परखने के लिए आँखें पर्याप्त नहीं, उसे ज्ञान के आधार पर ही जाना जा सकता है। पदार्थ के गर्भ में जो आणविक हलचलें होती हैं उन्हें इन्द्रियों ने प्रत्यक्ष दृश्य के रूप में नहीं देखा है। ज्ञान चक्षुओं से उसकी स्थिति का अनुमान लगाया और पीछे उसे प्रमाणित करने के साधनों का निर्माण कर सकना ज्ञान के आधार पर ही संभव हुआ। मंत्र उपकरण तो उस ज्ञान साधना के अकिंचन जैसे उपकरण भर हैं। बिना ज्ञान वाला निष्कर्ष, निकालने वाले के वे उपकरण जो सांकेतिक सूचना देते हैं, उतने से किसी तथ्य का पता नहीं चलता। अन्तरिक्षीय सूचनाएँ संकेत रूप से ही प्राप्त होती हैं। उनकी व्याख्या बुद्धिमत्ता पूर्वक करने के उपरान्त ही उपलब्ध सूचनाओं का कुछ सही अर्थ निकलता है।

आत्मा है या नहीं? इसका उत्तर हाँ और ना में दोनों ही तरह दिया जा सकता है। हाँ, उनके लिए ठीक है जो ज्ञान के आधार पर सूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकने और निष्कर्ष निकाल सकने में समर्थ हैं। ना, उनके लिए जो मात्र इन्द्रियों के सहारे ही चेतन सत्ता का दर्शन करना चाहते हैं। चेतन सूक्ष्म है वह चेतन सत्ता की ज्ञानानुभूति के द्वारा समझा और देखा जा सकता है। किसी की आँखों में से आँसू बहते देखकर आँखें तो इतना ही बता सकती हैं कि भवों के नीचे वाले गड्ढों में से पानी की पतली सी धार बह रही है। उस पानी के पीछे कोई व्यथा वेदना तो नहीं भरी है, यह जान सकना जीवित अन्तःकरण की भाव सम्वेदना के लिए ही संभव है। यदि वह न हो तो फिर आँसू और पसीने में वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे कुछ अधिक अंतर नहीं पाया जा सकता। सूर्य की रोशनी और फूल की शोभा की अनुभूति उन्हीं को हो सकती है जिनकी आँखें सही हों। यदि दृष्टि समाप्त हो जाय तो अपने लिए संसार के सभी दृश्य समाप्त हो जायेंगे। भले ही वे अन्य लोगों के लिए यथावत् बने रहें। दृश्यों की अनुभूति में जितना महत्व पदार्थों के अस्तित्व का है उससे अधिक अपनी दृष्टि का है। यह ज्ञान ही है तो हमें दृश्य या श्रव्य के स्थूल रूप की तुलना में असंख्य गुने रहस्यमय मर्मों से हमें परिचित कराता है।

ज्ञान के दो पक्ष हैं एक विचारणा दूसरा सम्वेदना। विचार मस्तिष्क की देन हैं वे बाहर से आते हैं, प्रशिक्षण एवं अनुभव के सहारे। भाव भीतर से उठते हैं, वे अन्तःकरण के उत्पादन हैं। विचारों से जानकारी तो बढ़ती है और बुद्धि में परिपक्वता आती है, पर उनका प्रभाव अन्तस् पर नहीं के बराबर पड़ता है। बहुत पढ़ने और बहुत सुनने से भी आन्तरिक उत्कृष्टता उभरने का कोई निश्चय नहीं। कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके कान सत्संग सुनते-सुनते पक गये और आँखें स्वाध्याय करते-करते थक गईं, फिर भी उनकी मूल प्रवृत्तियों में कुछ विशेष अंतर नहीं आया। लोभ, मोह से उन्हें रत्ती भर भी विरति नहीं हुई। काम, क्रोध के आवेश घटे नहीं। धर्मोपदेशकों में धर्म धारणा और नेताओं में देश भक्ति प्रायः प्रसंग चर्चा की कलाकारिता जितनी ही दिखाई पड़ती है। दूसरों को जिन तर्कों से वे प्रभावित कर लेते हैं उससे अपने आपको प्रभावित नहीं कर पाते। क्योंकि वे बाहर से आये आगन्तुक हैं। अपने गृह सदस्य नहीं। अन्तस् तो भावों का भण्डागार है। वहाँ से निसृत होते हैं और वहीं के चुम्बकत्व से उन्हें बाह्य जगत में से आकर्षित एवं ग्रहण किया जाता है। विचार की गति तर्क और तथ्य के सहारे होती है और वे बढ़ते-बढ़ते विज्ञान का स्वरूप धारण कर लेते हैं। विचार के आधार पर यह संस्कार पदार्थ गुच्छक या गुलदस्ता मात्र है। अथवा विभिन्न प्रकार की तरंग प्रवाह का अन्धड़ क्षेत्र उसे कह सकते हैं। विद्युत चुम्बकीय लहरों से भरा-भूरा समुद्र भर यह संसार रह जाता है। ऐसे ही कुछ नाम और भी उसे दिये जा सकते हैं। मस्तिष्कीय, चेतना-पदार्थ ज्ञान पर अवलम्बित है और वह अपनी सीमा उसी परिधि के अंतर्गत रखती है। यही उसकी मर्यादा है। उसे आगे की ऐसी कोई बात मस्तिष्क के आधार पर नहीं जानी या पाई जा सकती जो हृदय से, अंतस् से संबंधित है।

भाव, सम्वेदना, अन्तस् का उत्पादन है। भावुक व्यक्ति ही दूसरों की व्यथा वेदनाओं को अनुभव कर सकता है। पाषाण हृदय व्यक्ति पर किसी की करुणाजनक स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, पर दूसरों के रुदन और चीत्कार तक की स्थिति-प्रज्ञ की तरह निर्मम होकर देखता रहता है, कई बार तो उनसे विनोद करता और रस लेता भी देखा गया है।

धर्म को सम्वेदना का उद्गम स्त्रोत कह सकते हैं। वह उपदेश नहीं उपचार है जिसके सहारे दिव्य चक्षुओं पर चढ़ी हुई धुन्ध को दूर किया जा सकता है। उस धुन्ध के हटने पर पदार्थ के अन्तराल में संव्याप्त सत्ता को देखा जाता है। उसी के सहारे उस ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना की अनुभूति होती है जिसे विश्वात्मा कहा जाता है और जिसका एक घटक आत्मा है। विचार से पदार्थ के गुण, धर्म, स्वभाव और उपयोग को जाना जाता है, धर्म से आत्मा का साक्षात्कार होता है और जीवन को आत्मा के अनुशासन में चलने के लिए प्रशिक्षित अभ्यस्त किया जाता है।

यों ज्ञान की मोटी परिभाषा जानकारी है। शिक्षा द्वारा उसी का संचय सम्वर्धन होता है। मन की कल्पना शक्ति और बुद्धि भी निर्णय शक्ति के संयुक्त परिणाम को बुद्धि कौशल कहते हैं। सूझ-बूझ, समझदारी, विद्वता और विशेषज्ञता इसी की परिणिति हैं। इतने पर भी सम्वेदना पर इस सारी बुद्धिमत्ता का कोई असर नहीं है। धर्म अग्नि है, जिसका उद्गम आत्मा है। आत्मा के अन्तराल से जो ज्योति प्रस्फुटित होती है, जिसका आलोक अन्तःज्ञान के रूप में देखा जा सकता है। आत्म बोध यही है। इसी का प्रकट होना और आत्म सत्ता के समूचे क्षेत्र को प्रकाशवान कर देना यही आत्म साक्षात्कार है। विचार क्षेत्र शिक्षा कहलाता है, अन्तः सम्वेदनाओं के ऊहापोह को विद्या एवं ब्रह्म विद्या कहते हैं। यह इन्द्रियातीत है इसलिए उसकी अनुभूतियाँ भी अतीन्द्रिय कहलाती है। दया, करुणा, प्रेम, सेवा, उदारता, त्याग, बलिदान, संयम, आत्मानुशासन जैसी दिव्य सम्वेदनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य खुशी-खुशी कष्ट कहते हैं। अपने लाभों का परित्याग करते हैं और भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्षतः घाटा उठाते हैं। आदर्शवादियों के निहित स्वार्थों द्वारा तरह-तरह की हानि पहुँचाई जाती है। उदार व्यवहार में भी वे कुछ त्याग ही करते हैं। देश भक्तों और तपस्वियों को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है और कई बार तो उन्हें प्राणों तक हाथ धोना पड़ता है। बुद्धिमानी का भौतिक मापदण्ड इनमें घाटा ही घाटा देखता है। प्रत्यक्ष लाभ जैसी कोई बात इस मार्ग पर चलने से नहीं मिलती। फिर भी समझदारी की सीमाओं का उल्लंघन करके वे कदम उठाये जाते हैं जिसे व्यवहार बुद्धि अपने भौतिकवादी गणित के सहारे मूर्खता ही सिद्ध करेगी। इतने पर भी सारे तर्कों का उल्लंघन करके कोई आन्तरिक उमंग ऐसी उठती है और उच्चस्तरीय भाव सम्वेदना की भूख बुझाने के लिए त्याग, बलिदान की माँग करती है और अनेक सद्भाव सम्पन्न उसकी पूर्ति भी करते हैं।

यह सम्वेदना ही अग्नि है। जब वह आदर्शों को अपनाये रहने की परिपक्वावस्था में होती है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। अपने लिए कल्याणकारी कर्तव्य यही है। इसका सुनिश्चित निर्धारण विश्वास कहलाता है। श्रद्धा को भवानी की और विश्वास को शंकर की उपमा दी गई है और कहा गया है कि इन्हीं दोनों की सहायता से अन्तरात्मा में ओत-प्रोत परमात्मा का दिव्य दर्शन होता है। आदर्शवादी सम्वेदनाओं की यह समूची परिधि धर्म क्षेत्र के नाम से जानी जाती है। इसी की उमंगें कर्म क्षेत्र पर छाई रहती हैं। आस्थाओं की प्रेरणा से विचार तंत्र को दिशा मिलती है और विचारों की कर्म के रूप में परिणिति होती है। इसी क्षेत्र में जब प्रखरता आती है तो अतीन्द्रिय ज्ञान जागृत होता है और दूर दर्शन, दूर श्रवण, प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन, भावी सम्भावनाएं जैसी वे जानकारियाँ मिलती हैं जो सामान्य इन्द्रिय क्षमता की पकड़ से बाहर हैं।

अन्तः संस्थान के शान्त, सुस्थिर एवं परिष्कृत करने की विधि व्यवस्था का नाम योग है। योगाभ्यास में जिस समाधि की चर्चा की जाती है वह मस्तिष्क की घुड़ दौड़ शान्त करके अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं को उभारने की प्रक्रिया है। चित्त वृत्तियों का निरोध इसी को कहा गया है। यह स्थिति प्राप्त होने पर अपने अस्तित्व में आत्मा की उपस्थिति अनुभव होती है और उसके अनुशासन को स्वीकार करने की सहज स्वीकृति जागृत होती है। आत्मसमर्पण के क्षण इन्हीं भावनाओं से भरे होते हैं। दिव्यत्व में अन्तःकरण का सराबोर हो जाना इतना आनन्द युक्त होता है कि उसे ईश्वर दर्शन के संबंध में किये गये समस्त वर्णन यथार्थता के रूप में अनुभव होते हैं।

धर्म को भीरुता से जोड़ा जाता है, जीवन संघर्ष से कतराने वाले धर्माडम्बरों में उलझे रहते हैं यह कहा जाता है, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। यह साहसी शूर वीरों का मार्ग है। मन और अन्तःकरण का संघर्ष स्पष्ट है। मन सुविधाओं में रमता है और अन्तःकरण को वे भाव सम्वेदनाएं चाहिए जो उत्कृष्टता अपनाने के मूल्य पर ही उपलब्ध होती है। लोक प्रवाह और अपने संचित संस्कार मनोकामनाओं की पूर्ति की दिशा में खींचते और मनमानी करने के लिए उकसाते हैं इसके ठीक विपरीत वह क्षेत्र है जिसे आत्मा की पुकार कहते हैं। यहाँ सब कुछ दूसरे ही तरह का है। यहाँ वैभव बेचकर संतोष खरीदा जाता है। इतना बड़ा सौदा करना जुआरी द्वारा अपना सर्वस्व ऐसी बाजी पर लगा देने जैसा है जिसमें प्रत्यक्षतः घाटा ही घाटा है। ऐसा बड़ा कदम उठाना सती शूरमाओं जैसा दुस्साहस है जिसमें प्रत्यक्ष का उत्सर्ग करके परोक्ष के उपलब्ध होने का सुनिश्चित विश्वास आवेश की तरह अन्तराल के कण-कण में छाया होता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने में केवल साहसी शूरवीर ही सफल होते हैं। भावनाओं के परिपोषण में कामनाओं की बलि चढ़ा देना जिनसे बन पड़ता है वस्तुतः वे ही धर्मात्मा हैं। कहा जाता है कि- धार्मिकता स्वर्ग के लालचियों और नरक से भयभीत लोगों को छिपाये रहने वाली माँद भर है, पर बात ऐसी है नहीं। कुछ उथले धर्माडम्बरियों या धर्म भीरुओं के लिए यह बात भले ही लागू होती हो, पर वस्तुतः धर्म एक सत्साहस और प्रबल पुरुषार्थ है जिसमें अन्तरात्मा को सर्वोपरि माना जाता है और उत्कृष्टता भरी भाव सम्वेदनाओं के समर्थन की सुख-सुविधाओं से लेकर स्वजनों को रुष्ट करने तक का ऐसा साहस प्रदर्शित किया जाता है जिसे अलौकिक एवं असाधारण कहा जा सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles