सन 30 की मन्दी में इंग्लैण्ड की एक पुरानी मिल घाटे में चली गई। स्टॉक का मूल्य कम रह गया और बिक्री घट गई। फलतः स्थिति यहाँ तक पहुँची कि मिल को बन्द करने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहा। मालिक और मजदूरों में मुद्दतों का स्नेह सम्बन्ध चला आता था। वस्तुस्थिति की सूचना देने के लिए एक दिन मालिक ने सब मजदूरों को बुलाया और कहा- घाटा अब इतना बढ़ गया है कि मिल अब दिवालिया घोषित होने जा रही है। हमारी और आपकी लम्बी मित्रता का अन्त होने में अब एक सप्ताह से अधिक का समय नहीं रह गया।
मजदूर भारी मन से वापिस चले गये। दूसरे दिन वे आये तो सभी ने अपने कामों पर जाने की अपेक्षा वे मालिक के दफ्तर पर लाइन लगाकर खड़े हो गये। उनमें से प्रत्येक एक-एक करके दफ्तर में घुसा और अपनी-अपनी पास-बुकों के साथ चुकती पावती की रसीद मालिक की मेज पर रखता चला गया । उन्होंने कहा- “जो हमारे पास जमा पूँजी है उसे आप निकाल दें। उसे घाटे की पूर्ति में लगा दें और मिल को चालू करने का प्रयत्न करें। यदि मिल और आप डूबने जा रहे हैं तो हम कम से कम अपनी जमा पूँजी तो साथ में डुबा ही सकते हैं।
हजारों पास बुक साथ लेकर मालिक बैंक गया। बैंक आगे से नया उधार देने से स्पष्ट मना कर चुका था। इतनी सारी पास बुकों को देखकर बैंक के व्यवस्थापक अचकचाये और कुछ विचारने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जिस मिल के कर्मचारियों और मालिकों में इतना घनिष्ठ सहयोग है उसका भविष्य बुरा नहीं हो सकता। सह लोग बुरे दिनों से किसी प्रकार मिल जुलकर निपट ही लेंगे। यह सोचकर उन्होंने मिल को फिर से उधार देने का फैसला कर लिया। फलतः मिल चालू रही और संकट के दिन टल गये।
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