ब्रह्माण्डव्यापी तथ्य जिनका जीवन में भी स्थान है

February 1974

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हम क्रमशः विकसित हो रहे हैं—आगे बढ़ रहे हैं, यह एक तथ्य है। आदिम काल के वनवासी मनुष्य ने सभ्यता के वर्तमान चरण तक पहुँचने की लम्बी यात्रा में अपनी अग्रगामी चेष्टा को प्रखर रखा है। चेतना कीर अदम्य इच्छा आगे बढ़ने की—प्रगति करने की है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ रही जीव आकाँक्षा अपने लक्ष्य की ओर चलते हुए विकास-क्रम और अग्र-गमन के उत्साह का ही अवलम्बन ग्रहण करेगी। यह विकास-प्रक्रिया न के वल मानवी-चेतना में काम करती हैं, वरन् ब्रह्माण्ड-विस्तार के रूप में भी वह क्रम चल रहा है।

ज्योति भौतिकी की महत्वपूर्ण खोजों से यह स्पष्ट हो चला है कि ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है। समस्त आकाश-गंगाऐं, समस्त सौर-मण्डल और ग्रह-नक्षत्र क्रमशः अपना आकाशीय-क्षेत्र आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं। कहा जाता है कि अरबों वर्ष पूर्व सृष्टि के अंतराल में ‘घनीभूत’ पदार्थ के मध्य एक भयंकर विस्फोट हुआ था। उसी के छिटके कर ग्रह-नक्षत्र बने और वह छिटकना तब से लेकर अब तक क्रमशः आगे ही बढ़ता चला जा रहा है। सभी आकाश-गंगाऐं एक दूसरे से दूर हटती जा रही हैं और यही हाल सौर-मण्डलों का है। शून्य आकाश के उन्मुक्त क्षेत्र की विशालता इतनी बड़ी है कि अभी करोड़ों-अरबों वर्षों तक यह दौड़ ऐसे ही चलती रह सकती है,पर कभी न कभी इसका भी अन्त होगा और गोलाई की गति के अनुसार यह धावमान पदार्थ अंततः अपने मूल उद्गम पर जाकर इकट्ठा हो जायगा। उसी स्थिति को महाप्रलय कहा जा सकेगा। उसी स्थिति को महाप्रलय कहा जा सकेगा।

ब्रह्माण्ड-व्यापी आकाश को समझने-समझाने की दृष्टि से चार क्षेत्रों में बाँटा जा सकता हैं —

प्रथम क्षेत्र में हमारी धरती, उसका वायुमण्डल, चुम्बकीय-क्षेत्र है। ऊपरी वायुमंडल का अधिक भाग आवेशित परमाणुओं, अणुओं और इलेक्ट्रानों से बना हुआ है। आकाश के इस क्षेत्र में पदार्थ के अस्तित्व का पता आसानी से चल जाता है।

दूसरा क्षेत्र है—सौर-मण्डल के ग्रहों के बीच में फैला हुआ भाग। यह क्षेत्र सूर्य के बाहरी परि-मण्डल (कोरोना) से निरन्तर निकलने वाली पतली और फैलने वाली गैस से भरा हुआ है। इसे ‘प्लाज्मा’ या सौर वायु कहते हैं। इसी कारण पुच्छल-तारों की पूँछें सदा सूर्य से विपरीत दिशा में रहती हैं। यही हवा पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र को भी पूँछ की शकल का ‘पुच्छल-तारा’ बना देती है।

तीसरा क्षेत्र है—पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी से प्रायः 50 गुना—सौर-मण्डल से आगे हमारी आकाश-गंगा में जुड़े तारों के बीच का आकाश भाग। यहाँ भी तारों के बीच के भाग में पदार्थ के उदासीन और आवेशित कणों से बनी हुई पतली गैस है।

चौथा क्षेत्र वह आकाश है—जिसमें हमारी आकाश गंगा जैसी अन्य अगणित आकाश-गंगाऐं और उनसे सम्बद्ध असंख्य चित्र-विचित्र ग्रह-नक्षत्र भरे पड़े हैं।

इस विशाल महा आकाश के सम्बन्ध में जितनी कुछ जानकारी अब तक मिली है उसका परिचय विशाल-काय दुर्बीनों, रेडियो टैलिस्कोपों’ किरणों में उपलब्ध विकिरणों, ध्रुव-क्षेत्रों में उपलब्ध आवेशित कणों ध्रुवीय-प्रकाश आदि के साधनों का बड़ा योगदान है। उड़न राकेटों और अन्तरिक्ष यानों ने भी इस आकाश-ज्ञान में अभिवृद्धि की है।

इस समस्त जानकारी के आधार पर यह तथ्य स्पष्ट है कि जन्म से लेकर प्रौढ़ता पर्यन्त हर पदार्थ में विकासक्रम जारी रहता है। अभी अपना ब्रह्माण्ड किशोरावस्था पार करके प्रौढ़ता की आयु में प्रवेश कर रहा है। इसलिए अधिकाँश ग्रह-नक्षत्र अपना आयतन फुला रहे हैं, अपनी कक्षाएँ चौड़ी कर रहे हैं और एक दूसरे से छिटक कर अनन्त आकाश में अविसात की ओर द्रुतगति से दौड़े जा रहे हैं, इसे हम सृष्टि का विकास-विस्तार या प्रगति कह सकते हैं।

एक से अनेक बनने की ब्रह्म-इच्छा ने हिरण्यगर्भ का विस्फोट किया और उससे अगणित आकाश-गंगाओं, महातारकों, सौर-मण्डलों, ग्रह-उपग्रहों, उल्का और धूमकेतुओं का विशाल-काय परिवार अस्तित्व में आया। जन्म के बाद विकास ही दूसरा चरण है, तो हम देखते हैं कि ब्रह्माण्ड में विकास के चरण द्रुतगति से आगे बढ़ रहे हैं। अधिकाँश ग्रह-नक्षत्रों की गति-विधियाँ इन दिनों इसी स्तर की है। हमें अपनी गति-विधियों को विकासोन्मुख, प्रगतिशील रखते हुए प्रकृति की प्रेरणा का अनुगमन करना चाहिए।

ग्रहों की स्थिति का बारीकी से अध्ययन करने पर अनेकों सृष्टि-नियम ऐसे दृष्टिगोचर होते हैं, जो क्या जड़, क्या चेतन सभी पर समान रूप से लागू होते हैं। अपनी पृथ्वी की अगणित विशेषताओं में से एक यह है कि उसकी ऊपरी परत में शीतलता और हल्कापन पर्याप्त मात्रा में है इसी कारण उस पर जीवों की उत्पत्ति से लेकर शोभा-सुषुमा तक का सौंदर्य विकसित हुआ है। जीवन पर भी यह नियम लागू होता हैं। यदि हलके-फुलके दृष्टिकोण को लेकर जिया जायगा, संग्रहशीलता और अनियन्त्रित-महत्वाकाँक्षाओं के भार से बचा जायगा तो मनुष्य न केवल सुखी रहेगा, वरन् प्रगति भी करेगा। पर जिनने अपने को भारी बोझों से लाद, जकड़ लिया है, उन्हें पग-पग पर जिन्दगी दूभर लगेगी और निरन्तर रोष, असन्तोष की स्थिति से अपने को घिरा पावेंगे। पृथ्वी के भीतरी परतों में गर्मी भी अधिक है और भारीपन का दबाव भी बढ़ा-चढ़ा हैं। अतएव वहाँ किसी सुन्दर और सुव्यवस्थित वस्तु का अस्तित्व नहीं बन पाता। सब कुछ आग्नेय-द्रव के रूप में हैं। भूकम्पों द्वारा समय-समय पर पृथ्वी की इस आन्तरिक स्थिति का परिचय भी मिलता रहता है।

अब तक पृथ्वी को अधिक से अधिक 5 मील तक ही खोदा जा सका है, जब कि पृथ्वी के मध्य केन्द्र की गहराई लगभग 4 हजार मील है। अधिक गहराई में क्या हैं—इसकी यत्किं-चित जानकारी भूकम्पों के समय निकलने वाली भूगर्भीय तरंगों से ही प्रतीत होती है।

पृथ्वी की संरचना में आक्सीजन, सिलिकन, अधिनियम, लोहा आदि भारी तत्वों का बाहुल्य है। ब्रह्माण्ड में प्रायः हाइड्रोजन, हीलियम जैसे हलके पदार्थ ही अधिक भरे पड़े हैं, उसमे उनकी मात्रा 80 से 99 प्रतिशत तक है, पर अपनी पृथ्वी में उनकी मात्रा 1।10 प्रतिशत से भी कम है।

पृथ्वी के भीतरी भाग में दबाव बहुत अधिक है। जहाँ धरती का तरल भाग समाप्त होकर कड़ा आवरण शुरू होता है, वहाँ का दबाव प्रायः प्रति वर्ग इञ्च पर लगभग 10 हजार टन है।

यों अहंकारी स्थूल दृष्टि भारी-भरकमपन और उष्णता उग्रता को ही महत्व देगी,पर पृथ्वी की स्थिति ने स्पष्ट कर दिया है कि उसके भीतरी अन्तराल में जहाँ गर्मी और दबाव का बाहुल्य है, वहाँ केवल दाह की भट्टी ही जल रही हैं और उस विक्षोभ की उसांसें भूकम्पों और ज्वालामुखियों के रूप में फूटकर शान्त वातावरण को विषाक्त और विकृत ही करती रहती हैं। इसके विपरीत धरती के ऊपरी वायुमण्डल में जहाँ हलकापन और शीतलता का सन्तुलन हैं, वहीं जीवन, सौंदर्य और सुविधा-साधनों के पनपने का अवसर मिला है। यह तथ्य यदि हम समझ सकें तो अपनी गति-विधियों में उपयोगी परिवर्तन करके सुख-सन्तोष भरी प्रगतिशीलता का रसास्वादन कर सकते हैं।

यों हर किसी को स्वावलम्बी बनने का प्रयत्न करना चाहिए, पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अपने में जो बीज-रूप से विद्यमान क्षमताएँ हैं, उन्हें विकसित करने के लिए बाहर से भी बहुत कुछ सहयोग लेना पड़ता है। यह सारा समाज सहकारिता के सिद्धान्तों से जकड़ा हुआ हैं। हमारा विकास ही नहीं, जीवन भी पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही गतिशील हो रहा है।

ग्रह-नक्षत्रों का अस्तित्व और क्रियाकलाप भी पारस्परिक सहयोग और आदान-प्रदान पर ही चल रहा है। अपनी पृथ्वी को ही लें, वह सूर्य से बहुत कुछ ग्रहण करती, उसके अनुदान से अपना काम चलाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह दूसरे ग्रहों को अपना अनुदान नहीं देती। निश्चित रूप से लेने के साथ, देने का भी अविच्छिन्न तथ्य जुड़ा हुआ है। जो लेता भर रहेगा और देने का नाम न लेगा, वह बेमौत मरेगा। पृथ्वी दूसरे ग्रहों को पर्याप्त अनुदान देती हैं, पर साि ही अपनी विशेषताओं को अक्षुण्ण रखने के लिए सूर्य पर निर्भर भी रहती है।

ब्रिटिश खगोलज्ञ और सुप्रसिद्ध दूरबीन विशेषज्ञ—’सर विलियमहर्शेल’ ने सूर्य की स्थिति का धरती पर होने वाले प्रभावों का गहरा अध्ययन किया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि वनस्पतियों के विकसित और फलित होने से लेकर प्राणियों के शरीर और मनुष्यों के मनःस्तर पर सूर्य-परिवर्तन का असाधारण प्रभाव पड़ता है। इसे देखते हुए यह प्रतीत होता है कि सूर्य से पृथ्वी के न केवल ऋतु-परिवर्तन प्रभावित होते हैं, वरन् प्राणियों का शारीरिक और मानसिक स्तर भी उठता-गिरता है। उजवेक (रूस) के विज्ञानी—’एन. केनीसरिन’ ने सूर्य के धब्बों के साथ पृथ्वी पर दल-दल घटने-बढ़ने की संगति बिठाई है। मास्को के ‘प्रो. शिझेब्स्की’ ने पता लगाया है कि धरती के इतिहास में जब-जब सूर्य में तीव्र प्रतिक्रियायें हुई हैं, तब-तब हैजा, प्लेग, टाइफाइड आदि बीमारियों का संसार में भारी प्रकोप हुआ है। उसका कारण वे बैक्टीरिया जीवाणुओं पर होने वाली सौर-प्रतिक्रिया को मानते हैं। वे सूर्य के प्रभाव में घट-बढ़ होने के कारण मनुष्यों के स्वभाव में हेर-फेर होने की बात भी कहते हैं।

ग्रहों के बीच परस्पर क्या सम्बन्ध हैं? इसका निरूपण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि सभी एक दूसरे के सहयोगी हैं। कौन किस का पिता, पुत्र, भाई, भतीजा आदि है? इसका विश्लेषण करने से कुछ काम नहीं चलता। कौन पुराना, कौन नया, कौन दानी और ऋणी, कौन बड़ा, कौन छोटा—इस झंझट में पड़कर न अहंकार को बढ़ाया जाना चाहिए और न किसी को हीनता का अनुभव कराना चाहिए। अच्छा यही है कि हम पारस्परिक सहकारिता और सहयोग भावना का महत्व समझें और यह मानें कि कोई किसी को एक तरह का सहयोग दे रहा हैं, तो दूसरा उसकी अन्य प्रकार से सहायता कर रहा है।

ग्रह-नक्षत्रों के बीच भी अब इसी मान्यता को प्रधानता दी जा रही है। चन्द्रमा और पृथ्वी के बीच क्या रिश्तेदारी है? इसका विश्लेषण बहुत समय तक किया जाता रहा, पर अब अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि कोई किसी का आश्रित नहीं, सभी का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और इस ब्रह्माण्ड-परिवार में सभी ग्रह-नक्षत्र सहयोगी सदस्य बनकर रह रहे हैं।

चाँद पृथ्वी का भाई है? बेटा है? या दोस्त-मेहमान? यह पता लगाया जाना शेष है।

‘सर जार्जडार्विन’ ने कहा है कि—प्रशान्त-महासागर की जमीन किसी खण्ड-प्रलय के कारण उखड़ पड़ी और उड़कर चाँद बन गई। जहाँ से वह मिट्टी उखड़ी—वहाँ का गड्ढा समुद्र बन गया। यह उखड़ी हुई जमीन आकाश में मंडराने लगी और धरती का चक्कर काटती हुई चन्द्रमा बन गई। इस प्रकार वह पृथ्वी का बेटा हुआ। इसी संदर्भ में यह भी कहा गया है कि जिन दिनों पृथ्वी की सतह लाल अंगारे की तरह तप रही थी, उन दिनों वह घूमती भी तेजी से थी अपनी धुरी पर तब वह एक चक्कर तीन घण्टे में ही लगा लेती थी, सूर्य के आकर्षण का तब दबाव अधिक था और आये दिन गरम लावे के ज्वार-भाटे जैसे भूकम्प आते थे। उन्हीं दिनों कई विशाल-काय उल्कायें धरती से टकराई और कई समुद्र तथा झील-सरोवर बन गये।

फ्रेंच वैज्ञानिक बुफो ने चन्द्रमा को धरती का भाई माना है। वे कहते हैं—सारे ग्रह-उपग्रह एक ही समय एक ही साथ बने हैं। आरम्भ में अकेला सूर्य था कहीं से एक और विशाल-काय सूर्य आया और हमारे सूर्य से टकरा गया। टकराव से दोनों का बहुत बड़ा हिस्सा धूल बनकर अन्तरिक्ष में उड़ने लगा और जब वह डडडड हुआ तो उसी से सौर-मण्डल के ग्रह और उपग्रह बन गये।

खगोलज्ञ लाटलास वाईज स्नैकर, जेरार्डकुइपर, फ्रन्डहाइल आदि विद्वानों का कथन है कि समस्त आकाश-गंगाऐं, तारक, सौर-मण्डल और उपग्रह, सृष्टि के आदि में प्रथम विस्फोट के छितराव से फैली हुई धूलि से बने हैं। वे आकर्षण-विकर्षण की धाराओं से परस्पर बँधे जरूर हैं और अपनी धुरी और कक्षा की भ्रमणशीलता भी परस्पर सम्बन्धों के आधार पर स्थिर किये हुए हैं—फिर भी कोई किसी से उत्पन्न नहीं हुआ। सभी ग्रह-उपग्रहों का जन्म स्वतन्त्र रूप से हुआ है और उनका मूल कारण आदि पदार्थ ‘हिरण्यगर्भ’ का विस्फोट ही था। इस प्रकार सभी ग्रह एक दूसरे के मित्र, पड़ौसी मात्र हैं। यही बात पृथ्वी और चन्द्रमा के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

ब्रह्माण्ड-परिवार के सदस्य—ग्रह-नक्षत्र जहाँ विकास की दिशा में बढ़ रहे हैं, वहीं उनमें वृद्धता, मरण और पतन का क्रम भी अपने ढंग से चल रहा है। उसे देखते हुए यह सम्भावना स्पष्ट है कि इस विशाल ब्रह्माण्ड को भी एक दिन मरण के मुख में जाना पड़ेगा। तारक और आकाश-गंगाऐं स्वाभाविक वृद्धता के शिकार होकर मृत्यु के ग्रास होते रहे हैं और आगे होते रहेंगे। जब समस्त ब्रह्माण्ड बूढ़ा हो जायगा तो महाकाल उसे भी अपनी कराल दाढ़ों से चबाकर रख देगा। जन्म के बाद विकास, विकास के बाद मरण का सिद्धान्त तो ब्रह्माण्ड को भी लपेट में लिये बिना छोड़ने वाला नहीं है।

अपनी आकाश-गंगा की शक्ति जिस तेजी से क्षीण हो रही है, उसे देखते हुए वैज्ञानिक उससे सम्बद्ध सौरमण्डलों के अवसान की आशंका करने लगे हैं। मेरीलेण्ड विश्वविद्यालय की खगोल शाखा ने बताया है कि वह दिन निकट आता चला जा रहा है, जब अपनी आकाशगंगा के साथ जुड़े हुए ग्रह उससे छिटक कर दूर चले जायेंगे और अनन्त अन्तरिक्ष में स्वतन्त्र रूप से विचरण करने लगेंगे। इसका प्रभाव सौर-परिवार पर ही नहीं, ग्रहों के साथ भ्रमण करने वाले उपग्रहों पर भी पड़ेगा और एक विश्रृंखल अराजकता की ऐसी बाढ़ आवेगी कि सर्वत्र एकाकीपन दृष्टिगोचर होने लगेगा। पर अन्तर्ग्रहीय आदान-प्रदान की शृंखला टूट जाने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि हर नक्षत्र विविधताओं के कारण बनी हुई विशेषताओं और सुन्दरताओं को खोकर—अपने-स्वरूप की तुच्छताओं से सीमाबद्ध, अपंग और कुरूप स्तर का दिखाई पड़ेगा।

यहाँ सब कुछ जन्मता, बढ़ता और मरता है। ब्रह्माण्ड भी। मनुष्य यदि इस तथ्य को समझे तो उसे अपना मरण भी स्मरण रहे—साथ ही यह सोचने का अवसर भी मिले कि इस बहुमूल्य मानव-जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग क्या और कैसे किया जाना चाहिए?


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