आवेशग्रस्त मनःस्थिति दुर्बलता की निशानी है

February 1974

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कौन बलवान है और कौन दुर्बल, इसकी परीक्षा करने की कसौटी यह होनी चाहिये कि कौन कितना सहिष्णु है और कौन कितना असहिष्णु है। जो तनिक−सी विपरीतता सामने आते ही उबल पड़ता है या डरने, काँपने लगता है, समझना चाहिये कि यह दुर्बल किस्म का मनुष्य है। अन्तःचेतना की दयनीय स्थिति इससे बढ़ कर और क्या हो सकती है कि उसे हवा के झोंके हलके तिनके की तरह किधर भी उड़ा ले जाँय और वह वैसे किसी झोंके का प्रतिरोध न कर सके।

भारी और वजनदार वस्तुओं का मूल्य और टिकाऊपन इसलिये होता है कि वे अवरोधों को सहन करते हुये अपनी राह पर, अपनी दिशा में ठीक तरह चलती रह सकती हैं। रेलगाड़ी और वायुयान यदि हवा के प्रवाह की दिशा में चलते−उड़ने लगें तो फिर उनमें बैठने वालों का ईश्वर ही रक्षक है।

हर मनुष्य की आकृति एक दूसरे से भिन्न है और प्रकृति भी। हर आदमी की मनःस्थिति एक−सी नहीं होती। उसके सोचने का अपना तरीका होता है और निर्णय करने का अपना ढंग। यह मानसिक स्तर जन्म−जन्मान्तरों के संस्कारों और स्तरों पर निर्भर रहता है। उसमें सुधार−परिवर्तन भी होता है पर आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति दूरदर्शी और विचारशील ही हो। साथ ही यह भी है अनिवार्य नहीं कि मनुष्यों की विचारधारा, रुचि, प्रकृति और मनःस्थिति एक जैसी हो। इस प्रकृति प्रदत्त भिन्नता को हमें ध्यान में रखना होगा और यह मान कर चलना होगा कि समन्वयशीलता और सहिष्णुता की नीति अपना कर यथा सम्भव अधिक से अधिक ताल−मेल बिठा सकने में ही आँशिक सफलता मिल सकती है और उसी कामचलाऊ समझौते के आधार पर जीवन−संकट को गतिशील रखा जा सकता है।

हमारी ही आकृति या प्रकृति के सब लोग बन जाय, यह सोचना बेकार है। हमारा ही नियन्त्रण, अनुशासन या परामर्श परिवार में या पड़ौस में शिरोधार्य किया जाना चाहिये, यह आकांक्षा थोड़े अहंकार का विज्ञापन करती है। हम दूसरे के शुभ−चिन्तक और परामर्श दाता हो सकते हैं और उन्हें श्रेष्ठ पथ पर चलाने के लिये अपनी सूझबूझ के अनुसार भरसक प्रयत्न कर सकते हैं, यह अपनी मर्यादा है। इस मर्यादा में रह कर ही हमारी सज्जनता अक्षुण रह सकती है, इसके आगे बढ़ कर जब हमें दूसरों को बाध्य करने जितना दबाव डालते हैं और आतंकवादी आधारों को अपनाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि यह मनुष्य की मर्यादाओं का उल्लंघन है। आक्रमण को रोकना आत्म−रक्षा की दृष्टि से सही है, पर अपना अनुयायी बनाने के लिये बाध्य करना मानवी अधिकारों के अपहरण के बराबर है।

क्रोध और आवेश का अर्थ यह है कि अपनी ही मर्जी के अनुसार दूसरों को सोचने और करने के लिये हमें बाध्य करना चाहते हैं। अनुशासन के नाम पर हम कोमल भावनाओं का उपयोग करें और शुभ−चिन्तक के अनुरूप सौम्य−परामर्श की शैली अपनायें यही उचित है। सभी मनुष्य हमारे जैसे विचार के नहीं हो सकते हैं और न हर परिस्थिति हमें प्रिय लगने वाली हो सकती है। ऐसी दशा में सहिष्णुता ही अपनानी पड़ती है यदि ताल−मेल न बैठता हो तो उन परिस्थितियों से हट जाने या हटा देने का रास्ता अपनाया जा सकता है, पर निरन्तर टकराव का कोई प्रयोजन नहीं। सुधार यदि अपनी मर्जी जैसा नहीं हो सकता तो इसे दुर्भाग्य मान बैठना और खीजने या असन्तुलित होने लगना व्यर्थ है।

हमें व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों की विपरीतता देखकर आवेश ग्रस्त नहीं होना चाहिये। क्रोध में आना या हताश हो बैठना दोनों ही मनुष्य की आन्तरिक कमजोरी की निशानी हैं। परिस्थितियों से धैर्य और औचित्य के आधार पर निपटा जाना चाहिये और सफलता को अनिवार्य न मान कर अपने प्रयास एवं कर्त्तव्य की सीमा में सन्तोष करना चाहिये।


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