क्रूरता को सौजन्य जीत सकता है

February 1974

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आक्रमण उतना हानिकारक नहीं जितना उसका आतंक। हिंसा उतनी विघातक नहीं होती, जितनी भय ग्रस्तता। यदि साहस का सम्बल साथ लेकर चला जाय तो वह जटिल स्थिति भी सामान्य जैसी बन जाती है, जिसकी कि चर्चा सुनते ही डरपोक मनुष्यों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आदिवासी, वनवासी घने जंगलों में एक−एक झोंपड़ी अलग−अलग बना कर रहते हैं। उन जंगलों में हिस्र व्याघ्र भरे पड़े होते हैं। किन्तु इन वनवासियों पर उनका कोई आतंक नहीं होता। रात को गहरी नींद सोते हैं। दिन में आहार की तलाश के लिए उन्हीं झाड़ियों को ढूँढ़ते रहते हैं, जिनमें कि इन हिंस्र पशुओं को धराशायी करता है, जब कि उनके परिवार में मुद्दतोवाद ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं, जिनमें किसी सिंह, व्याघ्र ने आदिवासी की जान ली हो।

अफ्रीका के रायल नेशनल पार्क, सारंगेटो नेशनल पार्क, लकमनी आराने पार्क, क्वीन एलजावेथ नेशनल पार्क जैसे सुविस्तृत बन बिहार बनाये गये हैं। जिन्हें देखने के लिए दुनियाँ भर के लोग जाते हैं। इनमें वन्य पशु स्वच्छन्दता और सुविधापूर्वक घूमने और अपना प्राकृतिक जीवन जीते हैं। इनमें सिंहों की संख्या भी काफी है। वे स्वच्छन्द घूमते हैं, साथ ही जहाँ वे रहते हैं, वहीं जेबरा, जिराफ, हिरन आदि भी निर्भयता पूर्वक विचरण करते हैं। वे सिंहों को देख कर सतर्क तो ही जाते हैं पर न तो भागते हैं और न चरना छोड़ते हैं। मिलजुलकर आक्रमण का मुकाबिला करते हैं और कोई चपेट में आ भी जाय तो मौत और जिन्दगी के मिले−जुले क्रम के बीच निर्भयतापूर्वक रहते हुए उन्हें कोई संकोच नहीं होता।

अफ्रीका मसार्क जाति के बनवासी प्राय उन्हीं क्षेत्रों में रहते हैं, जिनमें सिंहो का बाहुल्य है। न केवल वे स्वयं रहते हैं वरन् अपने पालतू पशुओं को भी रखते हैं। भूखे और भरे पेट सिंहों की स्थिति को वे भली प्रकार जानते हैं और तदनुसार अपनी सुरक्षात्मक व्यवस्था को भी ठीक कर लेते हैं। मौत और जिन्दगी ने जिस तरह आपस में समझौता किया हुआ है। उसी तरह बनवासी और हिंस्र पशु भी अपने ढरे से अपना समय गुजारते हैं। भय और आतंकको वे ताक पर उठाकर रख देते हैं।

सरकस के साहसी प्रशिक्षक, किस प्रकार जानवरों को सघाते और उनसे तरह−तरह के खेल कराते हैं यह सभी को विदित है। हिंस्र पशुओं को पालने और उन्हें सामान्य पशुओं की तरह रहने के लिए अभ्यस्त करने में अधिक सफलता मिलती जा रही है। ऐसे एक नहीं अनेक प्रयोग सामने आते रहते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि हिंसात्मक प्रकृ ति को बदल कर उसे सौम्य स्तर का बनाया जा सकता है।

भेड़िये प्राकृतिक हिंस्र जन्तुओं की बिरादरी में अधिक खूंखार माने जाते हैं। छोटा सो खोटा वाली उक्ति भेड़ियों पर अधिक सही रूप से लागू होती है। उसकी क्रूरता ही नहीं, दुष्टता भी अपने ढंग की अनोखी होती है। इसलिए चिड़िया घरों के पशु−पालकों से लेकर—जंगल में रहने वाले किसानों से लेकर शिकारियों तक को इनके बारे में बड़ी सतर्कता बरतनी पड़ती है। वे कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। हिंस्र पशु विशेषज्ञ विलियम वायरन मोवरी ने लिखा है—भेड़िया पालने की बात किसी को नहीं सोचनी चाहिए। बचपन में भेड़िया पालतू रह सकता है, पर बड़ा होने पर वह दुष्ट आक्रमणकारी बन कर अपने पालनकर्ता की ही खबर ले सकता है।

जेरम हैलयुथ को कुत्ते पालने का शौक था। उनने अलास्किन जाति के शिकारी कुत्ते पाल रखे थे। उनकी पत्नी एलन ही नहीं—बच्चे भी इन्हें पालने में रुचि लेते थे।

हैलयुथ का मस्तिष्क बहुत समय यह सोचने में लगा रहा कि प्यार की जंजीर में जब इन खूँखार कुत्तों को बाँधा जा सकता है तो लगभग उसी जाति से मिलते−जुलते भेड़िये क्यों नहीं पल सकते? इस प्रश्न का समाधान उनने भेड़िया पाल कर ही प्राप्त करने का निश्चय किया।

भेड़िये का बच्चा प्राप्त करने के लिए उन्होंने टकोसा चिड़ियाघर से संपर्क स्थापित किया और वहाँ के अधिकारियों से मिल कर यह सफलता प्राप्त करली कि अगले दिनों जब मादा प्रसव करेगी, तब एक बच्चा उन्हें मिल जायगा। नियत समय पर एक बच्चा उन्हें मिल भी गया। नाम रखा गया ‘कु नू’।

यह नवजात शिशु मात्र छै इंच की थी। पालना एक समस्या थी, फिर भी उसे जीवित रखने में सफलता प्राप्त कर ली गई। हैलयुथ की पत्नी और उनकी चारों बच्चियों ने इस नये अतिथि के पालन में उत्साहपूर्वक सहायता की और वह पल भी गया। ‘कुनू’ नर नहीं मादा थी।

कुत्तों के साथ उसकी दोस्ती हो गई। खासतौर से डेरियन कुतिया के साथ तो उसकी इतनी घनिष्टता हो गई मानों वे दोनों माँ−बेटी ही हैं। यह जन्म के समय छै इंच की थी पर एक वर्ष में बढ़ कर 5 फुट लम्बी और 75 पौंड भारी हो गई। एक वक्त में वह प्रायः डेढ़ पौंड खाना खाती।

बड़े होने पर उसमें भेड़ियों की दुष्टता के कुछ लक्षण उभरे तो पर पालक ने पूरी सतर्कता से काम लिया और प्रकृति प्रदत्त क्रूरता भुलाने एवं अन्य कुत्तों की तरह के लिए लगातार शिक्षा दी। उसे वैसा ही वातावरण दिया जैसा कि अन्य पालतू कुत्तों को उपलब्ध था। फलतः वह उन्हीं के साथ घुल गई और कुत्तों की बिरादरी में पूरी तरह सम्मिलित हो कर उन्हीं के आचरण करने लगी।

दुष्टता की किम्बदन्तियों को ‘कुनू’ ने झुठला दिया और एक नये तथ्य का प्रतिपादन किया कि भेड़िये दूसरे हिंस्र जानवरों की तुलना में अधिक स्नेहिल होते हैं। उसे प्यार करने की प्रकृति भी जन्मजात रूप से ही मिली थी। भेड़िये एक दूसरे के मुँह में मुँह डालकर प्यार करते हैं। कुनू का वास्ता मनुष्यों से पड़ता था सो वह उनकी बाँहों तथा पैरों को मुँह में रख कर चूमने जैसा आचरण करती। घर की बच्चियाँ इसकी प्रतीक्षा करती रहती थीं कि कुनू उसे कब और कितनी देर चूमेगी, उन्हें इसमें बड़ा आनन्द आता। कभी−कभी कुनू की चूमने की आकांक्षा इतनी तीव्र होती कि घर आने वाले आगन्तुकों के साथ भी वह उसी खेल को खेलती। आगन्तुक पहले तो घबराता पर पीछे जब प्रतीत होता कि खूंखार भेड़िये भी इतने स्नेहिल हो सकते हैं तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहता।

अहमदाबाद के प्राणी संग्रहालय की अफसर ज्योतिवेन मेहता ने व्यक्ति गत रूप से आक्रमणकारी पशुओं में दिलचस्पी ली है और उन्हें अधिक मृदुल, वफादार एवं सहयोगी बनाने में सफलता प्राप्त की है। उनका कहना है—आत्म−विश्वास, निर्भयता, प्रेम एवं सहानुभूति की समुचित मात्रा यदि अपने पास हो तो हिंस्र जन्तुओं को आसानी से मृदुल एवं वफादार बनाया जा सकता है।

ज्योतिवेन ने एक बाघ का बच्चा ‘राजू’ बड़े लाड़−प्यार से पाला, वह उनसे बहुत घुलमिल गया। जंजीर में पकड़ कर वे उसे खुले हुए सार्वजनिक पार्क में घुमाने भी ले जाती थीं। दो वर्ष का होने तक उसका व्यवहार बहुत ही सज्जनतापूर्ण रहा। वे उसे गोदी में उठा कर अकसर खिलाती थीं, एक बार भारतीय चित्र वृत्त विभाग के द्वारा डाक्यूमेन्टरी फिल्म ली जानी थी, जिसमें वे बाघ को गोदी लेकर चित्र खिंचवाती। यह शूटिंग खुले में हो रहा था। दर्शकों की भीड़ बहुत थी। अचानक बाघ भड़क उठा और उनकी जाँघ में ही दाँत गढ़ा दिया, खून से लथपथ होते हुए भी उन्होंने राजू को गोद में लेकर तस्वीर तो खिंचवाई पर वे इस तथ्य को और भी अधिक गहराई से समझने लगी कि हिंस्र पशुओं की स्नेहशीलता को ही नहीं उनकी तुनक मिजाजी को भी ध्यान में रखा जाय।

पशुओं, में बुद्धिमत्ता की एक मात्रा मानी जाती है, इसलिए यह सोचा जा सकता है कि पालतू पशुओं की तरह हिंस्र पशुओं को भी अथक परिश्रम करके सधाया या सुधारा जा सकता है। पर सर्प जैसे कीड़ा को क्या कहा जाय, जिसमें समझदारी का नाम भी नहीं होता। दुनियाँ में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने सर्पों के न केवल विष दन्त चुभोने की क्रूर प्रकृति को बदला है वरन् उन्हें कलात्मक नृत्य सिखा कर दर्शकों को मुग्ध करने जैसे कठिन कार्य के लिए प्रशिक्षित किया है।

इंग्लैंड की सर्प सुन्दरी सान्या के सर्प नृत्यों की इन दिनों यूरोप और अमेरिका में धूम है और जहाँ भी उसके प्रदर्शन होते हैं, दर्शकों को जगह मिलना कठिन हो जाता है।

यह महिला आरम्भ में साधारण नर्तकी थी, पीछे उसने सर्पों को अपना सहचर बनाने का निश्चय किया। अजगर−कोबरा, तथा दूसरी विषधर जातियों के सर्प पाले। उनकी प्रकृति समझी, दोस्ती बढ़ाई और स्थिति यहाँ तक उत्पन्न कर ली कि वे उसके साथ−साथ रंगमंच पर घंटों नृत्य कर सके। जब यह नाचती है तो वे पालतू विषधर मात्र उपकरण नहीं बने रहते वरन् नृत्य की ताल और मुद्रा का ध्यान रखते हुए स्वयं भी नृत्य निरत अभिनेता होने का परिचय देते हैं। दर्शक यह देख कर मुग्ध हो जाते हैं कि नृत्य में सर्प भी किस प्रकार सहभागीदारी का आश्चर्यजनक एवं नपा तुला पार्ट अदा करते हैं।

सर्प सुन्दरी सान्या ने जहाँ अपने सर्प नृत्यों से विपुल सम्पत्ति एवं ख्याति अर्जित की है, वहाँ इस तथ्य का भी प्रतिपादन किया है कि क्रोधी और पुष्ट समझा जाने वाला यह विषधर स्नेह सौजन्य की कोमल रज्जु में बँधने के लिए किस तरह स्वेच्छापूर्वक तैयार हो जाता है।

हमें देर−सबेर में इस निष्कर्ष पर पहुँचना ही होगा कि अनगढ़ क्रूरता को सदाशयता पूर्ण सत्प्रयत्नों से बदला और सुधारा जा सकता है। इसमें कितना श्रम और समय लगेगा, कितने साहस और धैर्य का परिचय देना पड़ेगा, यह बात दूसरी है।


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