अपनों से अपनी बात - वाणी सत्र के बाद—लेखनी सत्र

February 1974

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शान्ति कुँज सप्तसरोवर हरिद्वार में 20 जनवरी से लेकर 20 मई तक वरिष्ठ और कनिष्ठ वानप्रस्थों के प्रशिक्षण सत्र चलेगा। देश−देशान्तरों में मानवी धर्म और कर्त्तव्य का जागरण करने के लिए—भावनात्मक नवनिर्माण के लिए ऐसे सुयोग्य व्यक्तित्वों की भारी आवश्यकता थी जो अपने ज्ञान, प्रयास एवं चरित्र से लोकमानस को प्रभावित परिवर्तित करने में समर्थ हो सकें। ऐसे भावनाशील व्यक्तित्वों की कमी नहीं थी पर उन्हें समुचित मार्ग दर्शन एवं कार्यक्षेत्र न मिलने के कारण वें मन मसोस कर बैठ जाते थे। वानप्रस्थ सत्र उस अभाव की पूर्ति करेंगे। आशा की जानी चाहिए कि प्रशिक्षित वानप्रस्थ देश−विदेशों के कोने−कोने में जाकर बुद्धकालीन धर्म−चक्र प्रवर्तन की, पूरा करना है और उसके लिए समय निर्धारण मथुरा से पत्र व्यवहार करके निश्चित करना है। बहुतों ने कर भी लिए है। जिनने नहीं किये हैं वे जल्दी ही उस व्यवस्था को अन्तिम रूप से निश्चित करने जा रहें हैं।

हरिद्वार से प्रतिशत वानप्रस्थ इन शिविरों का संचालन करेंगे। साथ ही तीर्थयात्रा की जहाँ व्यवस्था बनेगी, वहाँ उस प्रकार का भी प्रयत्न करेंगे। पाक्षिक युग−निर्माण योजना में इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक चर्चा पिछले अंकों में छाती रही है, जिसके आधार पर पन्द्रह दिवसीय शिविरों पूरी रूप−रेखा भली प्रकार समझा दी गई है। इतना ही महत्वपूर्ण ‘तीर्थयात्रा’ कार्यक्रम भी है। कम से कम पाँच और अधिक से अधिक दस धर्मप्रचारकों की टोली धर्म−विजय की परम्परा को पुनर्जीवित करने की एक ऐतिहासिक पुनरावृत्ति प्रस्तुत करेंगे।

पूरा समय देने वाले वरिष्ठ और थोड़ा समय देने वाले कनिष्ठ वानप्रस्थों को प्राप्त करने के उपरान्त विभिन्न कार्यक्षेत्रों में प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्य करने के लिए भेज दिया जायगा। युग−निर्माण शाखा संगठनों ने अपने−अपने यहाँ पन्द्रह−पन्द्रह दिन के नवनिर्माण शिविर चलाने की तैयारियाँ कर ली है। जहाँ अभी निश्चय नहीं हुए हैं वहाँ इसी महीने वह व्यवस्था पूरी कर ली जाने की आशा है, प्रायः सभी समर्थ शाखायें इस वर्ष पन्द्रह दिन के शिविर चलाने की तैयार कर रही है। अप्रैल,मई,जून यह तीन महीने इसी प्रयोजन के लिए निश्चित हैं। हर शाखा को इन्हीं महीनों में अपना शिविर महीने पन्द्रह दिन का कार्यक्रम बनाकर चलें। एक रात्रि को एक गाँव में रहें। वहाँ प्रचार, प्रवचन, यज्ञादि सम्पन्न करे, दूसरे दिन दूसरे गाँव में ठहरे। एक मार्ग से जाकर दूसरे मार्ग से लौटें। इस प्रकार वह धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए सम्पन्न हुई तीर्थयात्रा वही प्रयोजन पूरा करेगी जो भगवान् बुद्ध द्वारा संचालित ‘धर्म विजय’ अभिमान के लिए उनकी मंडली द्वारा किया जाता था। इन प्रयासों के आशातीत सत्परिणाम हम अगले दिनों अपनी आँखों के सामने प्रस्तुत होने की प्रतीक्षा कर सकते हैं।

इसी संदर्भ में एक और भी महत्वपूर्ण पक्ष है—लेखनी। वाणी की तरह उसकी भी आनी उपयोगिता है। वानप्रस्थों को प्रायः वाणी के द्वारा ही वन जागरण का शंख फूंकना पड़ेगा और रचनात्मक गतिविधियों को अग्र गामी बनाना पड़ेगा। सो उचित भी है और आवश्यक भी। प्रत्यक्ष जन–संपर्क की अपनी उपयोगिता है। उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी और नहीं ही की भी गई है। पर दूसरा ‘लेखनी’ पक्ष भी इससे कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस आधार को भी आवश्यक बल एवं प्रोत्साहन मिले की आवश्यकता है।

अब तक युग−निर्माण अभियान के सम्बन्ध में जो कलम चलती रही है, वह प्रायः एक ही व्यक्ति की है। दूसरों से भी इस सम्बन्ध में कुछ कराया गया है और कुछ सिखाया गया है पर वह योगदान नगण्य ही रहा है। आन्दोलन के बढ़ते हुए चरण यह माँग करते हैं कि वाणी की तरह ही शक्ति शाली लेखनी को भी युग−परिवर्तन के मोर्चे पर अड़ा कर खड़ा कर दिया जाय। प्रस्तुत पत्र पत्रिकाओं में अपने मिशन की विचार–धारा को लिखते−छपते रहने के काम में अनेकों लेखक जुटे रह सकते हैं। भारत की चौदह मान्य−भाषायें है, सभी में ढेरों पत्रिकायें निकलती हैं। अब तक युग−निर्माण अभियान की चर्चा पत्रों में भी पत्रिकाओं में छपती हैं। हिन्दी के अन्य पत्रों में भी इस महान अभियान की विचारधारा छपनी चाहिए और अन्य भाषाओं में भी उसका अधिकाधिक प्रचार प्रकाशन होना चाहिए। यदि भारत के 7 हजार पत्र−पत्रिकाओं में यह विचारधारा छपने लगे तो जितना जागरण अब तक हुआ है उसकी अपेक्षा सहज ही कई गुना हो सकता है।

इसके अतिरिक्त नव−जागृति का साहित्य प्रकाशित होने की भी आवश्यकता है। इसे अपने देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि भावनात्मक नव−निर्माण कर सकने योग्य साहित्य का नितान्त अभाव है। पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों की तलाशी ली जाय तो उनमें वैसा कूड़ा−करकट ही भरा पड़ा मिलेगा, जिससे पाठकों के दिमाग में गन्दगी की ही बढ़ोतरी हो सकती है। चूंकि प्रकाशकों का स्वार्थ भ्रष्ट लोक रुचि को प्रोत्साहन देने वाली लोकप्रिय पुस्तकें छापने से ही पूरा होता है। उन्हें बिक्री और लाभ से मतलब है। “जो माँगा जायगा सो प्रस्तुत किया जायेगा।” यह नीति है। यह माँग हितकर है या अहितकर इससे उन्हें कुछ मतलब नहीं। जो साहित्य लिखा, छापा और बेचा जा रहा है, उससे पाठकों का कितना हित और कितना अहित होता है, इसका कभी विचार किया जाय तो पता चलेगा कि हम ज्ञान−देवता के मन्दिर में अज्ञान के असुर की ही पूजा−अर्चा कर रहे हैं। इस विकृत विडम्बना के दुष्परिणाम भी सामने हैं। हमारा भावनात्मक स्तर दिन−दिन पतनोन्मुख होता जा रहा है। इस पतन में अशिक्षित वर्ग की अपेक्षा शिक्षित वर्ग और भी आगे है। अशिक्षित कम घाटे में इसलिए रहते है कि उन्हें विकृत साहित्य से अपने मस्तिष्क को विकृत करने का अभिशाप वहन नहीं करना पड़ता।

अगले दिनों साहित्य क्षेत्र में युग−निर्माण योजना को प्रवेश करना ही है, इसके लिए युग−पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशन नई प्रेरक पुस्तकों का निर्माण, सृजनात्मक साहित्य का प्रकाशन, सत्साहित्य का संगठन विक्रय तन्त्र आदि कितने ही महत्वपूर्ण प्रयास अगले दिनों आरम्भ करने होंगे। पचास करोड़ की आबादी के अपने देश और चार सौ करोड़ की आबादी के अपना विश्व को, आज पग−पग पर यह आवश्यकता अनुभव होती है कि मनुष्य को नव−जीवन प्रदान कर सकने वाली चेतना का नया निर्माण होना चाहिए। यह उत्पादन साहित्य के क्षेत्र में ही सम्भव है। साहित्य की विभिन्न धारायें है। उनका सन्तुलित,समन्वित, सुसंगठित, उत्पादन, उत्थापन किया जाय तो कोई कारण नहीं कि विश्व−मानव की विचारणाओं और भावनाओं को परिष्कृत स्तर ऊँचा उठाने के लिए विवश न किया जा सके।

इस दिशा में वही प्रयास करना पड़ेगा जो वाणी द्वारा जन−जागृति उत्पन्न करने के लिए वानप्रस्थ प्रशिक्षण द्वारा उत्पन्न किया गया है। इसी प्रयास के समकक्ष लेखनी पक्ष है। इसके लिए भी वानप्रस्थों जैसी योजना ही क्रियान्वित की जा रही है। अखण्ड−ज्योति परिवार को ही युग−निर्माण अभियान के विभिन्न पक्षों कोक अग्रगामी बनाने का उत्तरदायित्व बहन करना पड़ा है। इसी परिवार में से निकलकर समय−समय पर गायत्री परिवार युग निर्माण परिवार आदि सामने आये हैं। अखण्ड−ज्योति के परिजनों की उत्कृष्ट चेतना और उदात्त सक्रियता ने ही वे कार्य सम्पन्न किये है, जिन्हें देख कर सर्वत्र दांतों तले उँगली दबाई जाती है। मनुष्य जाति को एक से एक बढ़ कर प्रेरक प्रेरणाएँ देने में अखण्ड−ज्योति परिवार के सदस्यों ने जो बढ़−चढ़ कर त्याग, बलिदान भरे आदर्शवादी पुरुषार्थ प्रस्तुत किये है उन्हें मानवी इतिहास में एक अविस्मरणीय घटना माना जाता रहेगी।

लेखनी अभियान आरम्भ करते हुए भी ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार के ही प्रबुद्ध वर्ग को आगे आना पड़ेगा। अपने परिवार में एक से बढ़कर प्रतिमायें भरी पड़ी है। इस मोर्चे को वे आसानी से सम्भाल सकती हैं, आवश्यकता केवल क्रमबद्ध प्रशिक्षण की है। ट्रेनिंग तो हर काम की लेनी पड़ती है। फौज में भर्ती होने वाला व्यक्ति कितना ही साहसी, वयस्क, स्फूर्तिवान एवं देशभक्त क्यों न हो ट्रेनिंग तो उसे भी लेनी पड़ती है अन्यथा उसके इन सद्गुणों का समुचित उपयोग संभव न हो सकेगा। यही बात प्रत्येक सक्रिय कार्य क्षेत्र पर लागू होती है। ज्ञानवान होने से ही कोई व्यक्ति लेखक नहीं बन सकता। यह एक अपनी दिशा है। छपने योग्य सामग्री प्रस्तुत कर सकना, इसे एक अभिनव कला ही कहना चाहिए। खराद किये बिना हीरे की न तो चमक निखरती है और न उसका मूल्य मिलता है। ज्ञान सम्पदा की मात्रा समुचित होना ही पर्याप्त नहीं, सफल लेखक को कुछ ऐसी जानकारियाँ भी प्राप्त करनी पड़ती है जो उस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के संपर्क में जाने से ही सीखी−अपनाई जा सकती हैं।

प्रसन्नता की बात है कि वानप्रस्थ प्रशिक्षण में वाणी विकास का प्रशिक्षण और नियोजन करने का काम इन दिनों गुरुदेव स्वयं सम्भाल रहे हैं। वे ही लेखनी सत्र का भी भार सम्भालेंगे। निश्चय किया गया है कि 25 मई से 25 जून तक का महीना हरिद्वार में लेखनी सत्र चलेगा। उसमें वानप्रस्थों की तरह ही समस्त शिक्षा व्यवस्था चलेगी।

इस सत्र में केवल उन्हीं प्रबुद्ध परिजनों को आमन्त्रित किया जा रहा है, जिनकी शिक्षा समुचित है जो विचार किया जा रहा है, जिनकी शिक्षा समुचित है जो विचारशील और अध्ययनशील है। जिन्हें पहले कुछ लिखने का अभ्यास रहा है। ऐसे लोगों के साथ परिश्रम करने से उनकी प्रस्तुत प्रतिभा को आसानी से कम समय में निखारा जा सकेगा और अभीष्ट उद्देश्यों के लिए कुछ करने में जुटाया जा सके। यों नौसिखियों को भी आगे चलकर प्रशिक्षित तो करना पड़ेगा पर अभी प्रारम्भ उन्हीं से करने पर गाड़ी रु क जायगी और तत्काल जो प्रयोजन पूरा करना है वह न हो सकेगा। यह ठीक है कि बचपन से ही जिन्हें फौजी आदमी बनने की शिक्षा दी जाती, वे अधिक सफल सैनिक बनते है पर यह भी ठीक है कि जब मोर्चे पर लड़ने का कार्य रुक हो तो छटे हुए नौजवानों की भर्ती करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। यही नीति उपरोक्त एक महीने के लेखनी सत्र में भी अपनाई जायगी। जिनकी शिक्षा तो पर्याप्त है पर छपने योग्य लेखन का प्रयोजन न पड़ने से वैसा अभ्यास नहीं है, उन्हें अगले सत्रों के लिए एक नोट रखा जायगा। आरम्भिक सत्र तो उनका है जिन्हें पहले सह भी कुछ अभ्यास है और जिन्हें स्वल्प प्रयत्न से तात्कालिक आवश्यकता पूर्ति के लिए उपयुक्त किया जा सकता है।

जो अपने को इसके लिए उपयुक्त समझते हों वे अखंड–ज्योति परिजन 25 मई से 24 जून तक के लेखन सत्र में सम्मिलित होने का आवेदन पत्र भेज सकते हैं। इस आवेदन पत्र में (1) अपना पूरा नाम पता (2) आयु (3) शिक्षा (4)वर्तमान व्यवसाय (5) लेखन सम्बन्धी अब तक का अनुभव (6) विचार–धाराओं के अध्ययन सम्बन्धी अपने पिछले प्रयासों का विवरण लिखना चाहिए। साथ ही साथ ही सौम्य स्वभाव तथा निर्वासन, अनुशासन प्रिय होने का आश्वासन देना चाहिए। उद्दण्ड, मनमर्जी बरतने वाले, कुतर्की, बकवादी, नशेबाजी आदि व्यसनों में रत, अनुशासन की अवज्ञा करने वाले लोग यहाँ नहीं आते। ऐसे लोग कुछ सीखना तो दूर उलटे अपने यहाँ ही बने काम बिगाड़ते हैं।

शान्ति कुञ्ज में निवास, भोजन आदि सम्बन्धी परम्परा आदि से यह रही है और अन्त तक यही रहेगी कि यहाँ आने वाले सभी स्वजन एवं शिक्षार्थी अपने अतिथि हैं। उनसे निवास, भोजन आदि का कोई नियत निर्धारित अनुबन्ध नहीं होता। वे अपने घर−परिवार की तरह आते, रहते, सीखते और चले जाते हैं। इसके लिए उन से कुछ देने लिए नहीं कहा जाता। हाँ, इतनी अपेक्षा अवश्य रखी जाती है कि विचारशील व्यक्ति इस तथ्य को ध्यान में रखेंगे कि शान्ति कुञ्ज का आवश्यक व्यवस्था, खर्च हमें परस्पर मिलजुलकर ही चलाना पड़ता है। कहीं से कोई सेठ साहूकार जैसी आमदनी नहीं है। अनुदारता और कृपणता डडडड यहाँ की गाड़ी ही रुक जायगी।

लेखन सत्र के शिक्षार्थी अपने पत्र जल्दी ही भेज दें। शिक्षण सीमित लोगों का ही हो सकेगा और देर से आवेदन करने वालों को अभी कभी के लिए प्रतीक्षा भी करनी पड़ सकती है।


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