ज्योतिर्विज्ञान का दुर्भाग्यपूर्ण दुरुपयोग

February 1974

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भारतीय ज्योतिष शास्त्र प्राचीनकाल में विशुद्ध रूप से आकाश स्थिति ग्रह नक्षत्रों की स्थिति और गति जानने तक सीमित था। ग्रहों की स्थिति का प्रभाव पृथ्वी के मौसम पर पड़ता है तथा दूसरी प्रकार के सूक्ष्म प्रभाव भी आते रहते हैं। इनसे लाभान्वित होने अथवा हानि से बचने का लाभ उठाया जा सकता है, इसी दृष्टि से इस विज्ञान की गहरी खोज−बीन की गई थी।

प्राचीन ज्योतिर्विज्ञान के वेत्ताओं को यह स्वप्न में भी ध्यान न था कि आगे चलकर इस विज्ञान का उपयोग चतुर लोग फलित ज्योतिष के रूप में करेंगे और लोगों को अन्ध−विश्वास में फँसा कर उनके धन, समय एवं चिन्तन को भारी क्षति पहुँचावेंगे।

प्राचीन आर्ष ज्योतिष ग्रन्थों में आर्य भट्ट द्वारा लिखित ‘आर्य भट्टीय’ और तन्त्र नामक दोनों ग्रन्थों की प्रमाणिकता असंदिग्ध है। बराह मिहिर का पञ्च सिद्धान्तिका ग्रन्थ ही प्राप्य है। ब्रह्म गुप्त की ‘ब्राह्म स्फुट सिद्धान्त’ तथा ‘खंड खाद्यक’ ग्रन्थ भी उपलब्ध है। भाष्कराचार्य का सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ भी खगोल विद्या सम्बन्धी प्राचीन मान्यताओं पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है।

आर्य भट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त पुस्तक नाम से खगोल विद्या का ग्रन्थ है। उसके प्रथम पाद में अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित के सिद्धान्त ही समझाये गये हैं। मात्र तीस श्लोकों में दशमलव, वर्ग, वर्गक्षेत्र, वर्गमूल, घनमूल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल जैसी महत्वपूर्ण विषयों की शिक्षा सूत्र में दी गई है। यदि उन्हीं बातों को विस्तार और उदाहरण सहित लिखा गया होता तो वही एक विशाल ग्रन्थ के रूप में दृष्टिगोचर होता। काल−क्रिया पाद में खगोल का वर्णन है। इस प्रकार उसका अन्तिम 50 श्लोकों का अध्याय ‘गोल पाद’ भी अपने विषय का सुसम्बद्ध प्रतिपादन है।

भारतीय ज्योतिष का प्रमुख ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त है। ‘आर्य भट्ट’ नारदेव और ब्रह्म गुप्त ने इसमें अपने−अपने ढंग से संशोधन परिवर्धन किया है। बारह मिहिर की ‘पञ्च सिद्धान्तिका ‘ में पाँच वर्ष का भी युग माना गया है। इससे प्रतीत होता हैं कि उन दिनों भी आज की ही तरह पंचवर्षीय योजनायें विभिन्न क्षेत्रों में बनाई जाती रहती होंगी। पौलिश, रोमक, वाशिष्ठ, सौर और पितामह नामक पाँच सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन बराह मिहिर ने ही किया था। भाष्कर स्वामी रचित ‘महाभाष्करीय’ भी प्राचीन समय के खगोल ज्ञान पर सुविस्तृत प्रकाश डालता है। इसी प्रकार ‘महासिद्धान्त ग्रन्थ’ भी भारतीय−ज्योतिष का प्रामाणिक ग्रन्थ है। सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ के यन्त्राध्याय में गोल, नाड़ी बलय, याष्टि, शंकुघटी, चक्र, चाप, तुर्यफलक, प्रभृति ऐसे यन्त्रों का वर्णन है, जिसके आधार पर खगोल विद्या की आवश्यक जानकारी को क्रमबद्ध किया जाता था। जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह ने इस संदर्भ में अधिक दिलचस्पी दिखाई उन्होंने जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा की वेधशालायें बनवाई। ‘टालसी के सिनटैविसस’ ग्रन्थ से जयसिंह जी बहुत प्रभावित थे, उन्होंने डलूग वेना की ज्योतिष सारणियाँ, प्लैम स्टीड की हिस्टीरिया, सेलेस्टिस ब्रिटेनिका, पुबिलड की ज्योमिति आदि ग्रन्थों का भी विस्तृत अध्ययन किया था। बेधशालाओं में नाड़ी यन्त्र, वक्र यन्त्र, गोल यन्त्र, दिगेश यन्त्र, दक्षिणोदिग्मित्ति, वृत्त षष्ठाँशक, सम्राट यन्त्र, जय यन्त्र, चक्र यन्त्र आदि कतिपय बड़े उपयोगी यन्त्रों का निर्माण कराया।

नक्षत्र विद्या अपने आप में एक स्वतन्त्र विज्ञान है और उसकी मर्यादा भी। इस आधार को तोड़−मरोड़ कर यह ठग विद्या बहुत पीछे गढ़ी गई कि अमुक नाम वाले, अमुक राशि के व्यक्ति पर अमुक ग्रह−नक्षत्र, अमुक अवधि तक भला या बुरा प्रभाव डालता है। आज कल ज्योतिषी लोग इसी बहाने भोली जनता को तरह−तरह से मुड़ते और भ्रम जंजाल में फँसाते हैं। तेजी−मन्दी, वर्षफल, भविष्य कथन, विवाह का विधि−वर्ग, मुहूर्त, उपचार, शुभ−अशुभ समय, हानि−लाभ जैसे मानवी पुरुषार्थ प्रयत्न एवं विवेक से सम्बन्ध रखने वाली दातों को तब फिर ग्रह−नक्षत्रों से वैज्ञानिक ज्योतिष विद्या का निर्भय उपहास ही कहा जायगा।


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