धर्म—आदर्शवादिता और एकता का प्रतीक बने!

February 1974

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एक पन्थ का साधू या पुरोहित—दूसरे सम्प्रदाय वालों को अमान्य होता है। क्योंकि उस धार्मिकता का आधार वाह्य-परिचर्याओं के साथ हुआ था। वस्त्रों का रंग, वेष, तिलक, छाप और अमुक पैगम्बर अथवा पुस्तक की दुहाई देने वाले, मान्य परम्पराओं का परिपोषण करने वाले लोग ही अन्ध-श्रद्धालु जनता में मान्यता प्राप्त करते हैं। यह धर्म की अन्ध-परम्परा हुई। दुर्भाग्य से इसी का प्रचलन बहुत है। फिर भी सार्वभौम-धर्मतत्व को सर्वथा विस्मृत नहीं कर दिया गया है, उसकी सर्वत्र अवज्ञा, अवहेलना नहीं है। विचारशील लोग सोचते हैं, जब धरती-आसमान एक हैं, एक ही सर्दी-गर्मी सबको प्रभावित करती है। हवा और पानी का एक ही तत्व सबका पोषण करता है और मनु की समस्त सन्तानें एक ही मनुष्य एवं मानव नाम से पुकारी जाती हैं तो फिर समस्त विश्व का एक ही धर्म क्यों नहीं हो सकता? जब विज्ञान की मान्यताऐं सर्वत्र एक ही रूप में मानी जाती हैं तो फिर ज्ञान को भी अविछिन्न क्यों नहीं रहना चाहिए? धर्म-तत्व में देश और जाति के कारण अन्तर क्यों आना चाहिए? जब प्रेम, सत्य, संयम, औदार्य जैसे सद्गुण और क्रोध, छल, आलस्य आदि दुर्गुण सर्वत्र एक ही कसौटी पर कस कर भले और बुरे घोषित किये जाते हैं तो धर्म की अन्यान्य मान्यताऐं क्यों ऐसी नहीं होनी चाहिए? जिन्हें मानवी-विवेक, बिना किसी हिचकिचाहट के अंगीकार कर सके?

यह कैसी विडम्बना है कि मोक्ष उन्मुक्त अन्तः स्थिति का—समर्थन करने वाले धर्म ही किस प्रकार एक सम्प्रदाय के लोगों को दूसरे सम्प्रदाय के लोगों के साथ एकता स्थापित करने में दीवारें खड़ी करते हैं। अपने और दूसरे पक्षधरों के बीच असमानता ही नहीं, अन्याय करने का भी प्रोत्साहन करते हैं। छोटी-छोटी मान्यताओं, परम्पराओं एवं कृपा-कृत्यों के कारण प्रस्तुत मतभेदों को उभार कर वे भयंकर विग्रह उत्पन्न करते हैं और धर्मयुद्ध के—जिहाद के नाम पर उन कुकृत्यों का सृजन करते हैं, जिन्हें देखकर ‘अधर्म’ भी स्तब्ध रह जाय। वह धार्मिकता कैसी—जो मानवी सद्गुणों को बढ़ाने की अपनी मूल प्रकृति को छोड़कर मतान्तरवाद के सहारे अमानवी कृत्यों और दुष्कर्मों को बढ़ावा देने लगे?

संप्रदाय युक्त धर्म ही मान्य-धर्म हो सकता है। सम्प्रदायों को धर्म मान बैठने से ही सारी गड़बड़ी उत्पन्न होती हैं। धर्म शब्द के साथ जो सहज श्रद्धा और शाश्वत समर्थन जुड़ा हुआ है, उसका शोषण सम्प्रदायवादी करते हैं और जब मतान्तरवादी दुराग्रहों पर अंकुश किया जाता है तो ‘धर्म खतरे मैं है’—के नारे लगाकर भावुक जनता की भावनाऐं भड़कती हैं। सम्प्रदायों को भोजन-वस्त्र की रुचि भिन्नता की तरह वैयक्तिक क अभिरुचि का विषय माना जा सकता है। उसके लिए छूट दी जा सकती है, किन्तु धर्म के सर्वोच्च सिंहासन पर उसे नहीं बिठाया जा सकता। इसकी पात्रता तो उनमें तब उत्पन्न होगी जब समस्त सम्प्रदाय मिलकर एक विश्व सम्प्रदाय अथवा मानव-पन्थ का रूप धारण करेंगे। जब तक वे एक दूसरे के रक्त -पिपासु बने हुए हैं—अपने को सही और दूसरों को गलत सिद्ध करने पर अड़े हुए हैं, तब तक ‘धर्म’ शब्द को अपने साथ जोड़ने की चेष्टा अनधिकार पूर्वक कर रहे ही कहे जायेंगे। एकांगी दृष्टिकोण—पक्षपात का दुराग्रह धर्म कैसे हो सकता है? विवेक और औचित्य को यदि आधार माना जाय तो प्रायः सभी सम्प्रदाय बालों को अपने-अपने पन्थों में से ढेरों कूड़ा-करकट बुहारना पड़ेगा। एक समय की उपयोगिता दूसरे समय में अनुपयोगिता बनती रहती है। यह दृष्टि रखकर यदि सफाई पर निकला जाय तो हर सम्प्रदाय में ऐसा बहुत कुछ है, जिसकी अब कोई जरूरत नहीं रही। इसी प्रकार यदि दोष-दर्शन हटाकर गुण-ग्राहक दृष्टि को विकसित किया जाय तो अन्य सम्प्रदायों में ऐसा बहुत कुछ मिलेगा, जिसे अपने धर्म में मिला लेने से उसकी हेठी नहीं होगी। वरन् सर्वांग पूर्णता में ही अभिवृद्धि होगी।

धर्म-शासन का क्षेत्र निहित स्वार्थों का केन्द्र बना तो भिन्नतावादी प्रवृत्ति पनपीं, और राज्य तथा धर्म को अलग करने के आन्दोलन चले। योरोप में कई शताब्दियों तक इसी आधार पर गृहयुद्ध की स्थिति बनी रही। रोमन कैथोलिक चर्ध के विरुद्ध प्रोटेस्टेंट खड़े हुए। मार्टिन लूथर के नेतृत्व में प्रचण्ड आन्दोलन उठा। अन्ततः धर्म और शासन की पृथकता स्वीकार कर लेने पर समझौता हुआ। अब योरोप के प्रायः सभी राज्य, धर्म निरपेक्ष है।

एकता को अनेकता में बखेर कर हमने पाया कम, खोया बहुत। प्राचीन काल में एक ईश्वर था और एक धर्म। पृथकतावादी निहित स्वार्थों ने अपना लाभ इसमें देखा कि उनका एक विशेष सम्प्रदाय बने और उसके अनुयायी अन्यायों से पृथक होकर एक विशेष वर्ग बनाये और दूसरों से लड़ें। उनका व्यक्ति गत वर्चस्व इसी में बनता था। प्रतिभाशाली अग्रगामी जन-समाज को अपने पीछे घसीट ले चलने में सदा से ही बहुत कुछ सफल होते रहे हैं। अस्तु पृथकतावाद पनपता गया। अनेक सम्प्रदाय, अनेक देवता, अनेक ग्रन्थ, अनेक विधि-निषेध गढ़े गये और विलगाव की जड़े मजबूत होती चली गई। इससे केवल पुरोहित वर्ग का स्वार्थ सधा। बाकी सब लोग भ्रान्तियों के जंजाल में फँसकर अपना समय, धन और विवेक गँवाकर घाटे में ही रहते रहे।

विवेक की माँग कि इस अनेकता को घटाया और मिटाया जाय। एक धर्म एक ईश्वर एक दर्शन,एक आचार एक जाति की भावात्मक-एकता स्थापित की जाय और उसका व्यावहारिक स्वरूप —एक राष्ट्र में, एक भाषा में विकसित किया जाय। पृथकता के लिए आग्रह बनाये रखकर हम हर दृष्टि से घाटे में ही रहेंगे।

प्राचीन काल में धर्म और शासन एक था। बाद में एक दूसरे के पूरक होकर रहते रहे। यही स्थिति पुनः स्थापित करनी पड़ेगी। धर्म के हाथ में शासन रहना चाहिए और शासन को धर्म की प्रतिष्ठापना एवं सुरक्षा का उत्तरदायित्व निबाहना चाहिए। राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानने की भारतीय मान्यता के पीछे धर्म और शासन का समन्वयात्मक संचालन का ही दृष्टिकोण रहा है। पूर्वकाल में राजा और धर्माचार्य की भूमिका एक ही व्यक्ति निवाहता था। धर्म-व्यवस्था और शासन का सूत्र संचालन एक ही व्यक्ति करे, इसमें उन दिनों सुविधा समझी गई। मुस्लिम-इतिहासकारों ने बादशाहों को—”जिले अल्लाह” (ईश्वर का प्रतीक) लिखा है। डेनमार्क की माताऐं अपने नवजात बच्चों का स्पर्श राजा से कराने के लिए ले जाती थीं और किसान अपना अनाज तब खाते थे—जब राजा उसे छूकर ‘निर्दोष’ बना देता था। इनका विश्वास था कि—इस प्रकार के स्पर्श से कल्याण होता है। ब्रिटेन में यह मान्यता बहुत समय तक बनी रही कि रोग-मुक्ति के लिए—राजा का स्पर्श चमत्कारी उपचार है। तिब्बत में प्रमुख मठाधीश ‘लामा’ को अवतार माना जाता रहा है। धर्माचार्य और शासनकर्ता की दोनों ही भूमिका उन्होंने निबाही हैं।

योरोप में एक समय ईसाई धर्म के लिए भावुक-मान्यता थी, तब ‘रोमन कैथोलिक चर्च’ इसाइयों की सर्वोच्च संस्था थी। राजाओं पर तथा जन-साधारण पर उसका समान प्रभाव था। तेरहवीं शताब्दी में आठवें पोप बोनीफेस ने चर्च को सर्व शक्ति मान घोषित कर दिया था। ब्रिटेन, फ्राँस आदि देशों के शासक पोप के अधीन माने जाते थे।

धर्म और शासन को पृथक इसलिए होना पड़ा कि उसमें पृथकतावादी-दुराग्रहों ने अड्डा जमा लिया। यदि धर्म केवल भावनात्मक-एकता, चरित्र-निष्ठा और लोककल्याण की सत्प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करे—व्यक्ति और समाज की उत्कृष्टता बढ़ाने में सहायता करे तो कोई कारण नहीं कि उसे सर्वमान्य सम्मान पुनः प्रदान न किया जा सके।

धर्म में मानवी-चेतना को आस्थाओं के साथ बाँधने की क्षमता है। व्यक्ति को सुव्यवस्थित और समाज को समुन्नत बनाने की दृष्टि से यह क्षमता का अत्यधिक महत्व है। उसे यदि अपने यथार्थ स्वरूप में रहने दिया जाय और चिन्तन तथा कर्तृत्व को परिष्कृत बनाने के लिए दूर-दर्शिता के साथ प्रयुक्त किया जाय तो निस्सन्देह सर्वतोमुखी प्रगति और सुख-शान्ति के अभिवर्धन में धर्म की महती भूमिका हो सकती है। आज की विकृत दुर्दशा की कीचड़ से धर्म को निकाल कर उसे आदर्शवादी उत्कृष्टता के साथ जोड़ना—मानवी हित-साधना की दृष्टि से अतीव आवश्यक कार्य माना जाना चाहिए।


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