परावलम्बन छोड़ें आत्मावलंबन अपनायें

February 1974

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प्रगति के पथ पर चलते हुए यदि दूसरों का सहयोग मिल सकता है तो उसे प्राप्त करने में हर्ज नहीं। सहयोग दिया जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार लेना भी चाहिए। पर इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारी मूलभूत आवश्यकता हमें स्वयं ही पूरी करनी पड़ती हैं दूसरों के सहयोग से तो थोड़ा ही सहारा मिलता है।

अपनी आँखें न हों तो दूसरों द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रकाश-उपकरण अथवा सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं। अपना पेट खराब हो जाय तो दूसरों द्वारा प्रस्तुत सुन्दर व्यञ्जन कब स्वादिष्ट लगेंगे? कान बहरे हो जाये तो किसी के सदुपदेश अथवा गीत-वाद्य अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न कर सकेंगे। विक्षिप्त मस्तिष्क के स्नेही स्वजन भी पशुवत् आचरण करते प्रतीत होते हैं। अपनी विकृतियाँ समस्त संसार के सुखद साधनों को दुख-दारिद्रय से भरकर रख देती हैं। दूसरों का सहयोग भी ऐसी दशा में अवरुद्ध हो जाता है। यदि वह मिले भी तो उससे लाभ उठा सकने की स्थिति नहीं रहती।

वाह्य सहयोग को आकर्षित करने और उससे समुचित लाभ उठाने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि अपनी निज की मनःस्थिति सही और सन्तुलित हों। इसलिए प्रथम महत्व दूसरों का नहीं रहता, अपना ही होता हैं। दूसरों के सहयोग की आशा करने में उससे लाभ उठाने की बात सोचने से पूर्व आत्म-निरीक्षण किया जाना चाहिए कि हम सहयोग के अधिकारी भी हैं, या नहीं? कुपात्र तक पहुंचने के बाद भी विभूतियाँ बेकार हो जाती हैं। पत्थर की चट्टान जल-प्रवाह में पड़ी रहने पर भी भीतर से सूखी ही निकलती हैं। मात्र बाहरी सहयोग से न किसी का कुछ काम चल सकता है और न भला हो सकता है।

दूसरों का सहारा तकने की अपेक्षा हमें अपना सहारा तकना चाहिए। क्योंकि वे सभी साधन अपने भीतर प्रचुर मात्रा में भरे पड़े हैं, जो सुव्यवस्था और प्रगति के लिए आवश्यक हैं। यदि सूझ-बूझ की वस्तुस्थिति समझ सकने योग्य यथार्थवादी बनाने की साधना जारी रखी जाय तो सबसे उत्तम परामर्श-दाता सिद्ध हो सकती है। मस्तिष्क में वह क्षमता मौजूद है, जिसे थोड़ा-सा सहारा देकर उच्चकोटि के विद्वान् अथवा बुद्धिमान कहलाने का अवसर मिल जाय। हाथों की संरचना अद्भुत है, यदि उन्हें सही रीति से उपयुक्त काम करने के लिए सधाया जा सके तो वे अपने कर्तृत्व से संसार को चमत्कृत कर सकते हैं। मनुष्य का पसीना इतना बहुमूल्य खाद है, जिसे लगाकर हीरे-मोतियों की फसल उगाई जा सकती है।

शरीर-विज्ञान और मनोविज्ञान के ज्ञाता आश्चर्यचकित हैं कि विशाल ब्रह्माण्ड की तरह ही इस छोटे से मानव-पिण्ड में भी एक से एक बढ़कर कैसी अद्भुत क्षमताओं को किसी कलाकार ने किस कारीगरी के साथ सँजोया हैं? कोशिकाओं और ऊतकों की क्षमताओं और हलचलों को देखकर लगता है कि जादुई-देवदूतों की सत्ता प्रत्येक जीवाणु में ठूँस-ठूँस कर भर दी गई हैं। कायिक-क्रियाकलाप और मानसिक-चिन्तन-तन्त्र किस जटिल संरचना और किस संचरण, सन्तुलन का प्रदर्शन करता है। उसे देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता हैं।

पिण्ड की आन्तरिक संरचना जैसी अद्भुत है, उससे हो सकने की भरी पड़ी है। मनोबल का यदि सही दिशा में प्रयोग हो सके तो फिर कठिनाई नहीं रह जायगा।

अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था ही है, जो हमें दीन-हीन और लुँज-पुँज बनाये रखती है। दूसरों का सहारा इसलिए तकना पड़ता है कि हम अपने को न तो पहचान सके और न अपनी क्षमताओं को सही दिशा में, सही रीति से प्रयुक्त करने की कुशलता प्राप्त कर सके। शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद ने ही हमें इस गई-गुजरी स्थिति में रखा है कि आत्म-विश्वास करते न बन पड़े और दूसरों का सहारा ताकना पड़े। यदि आत्मावलम्बन की ओर मुड़ पड़ें तो फिर परावलम्बन की कोई आवश्यकता ही प्रतीत न होगी


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