शिवलिंग प्रतिमा की प्रबल प्रेरणा

February 1974

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ब्रह्म एक है। उस एक को ही विद्वानों ने अनेक रूपों में वर्णित तथा चित्रित किया है। देवताओं की आकृति−प्रकृति, आयुध, वाहन आदि अनेकानेक प्रकार के दृष्टिगोचर होते है और लगता है, इतना ही नहीं वे परंपरा विरोधी एवं प्रतिस्पर्धी भी हैं। इस प्रकार की मान्यता सर्वथा भ्रामक है। तथ्य यह है कि परब्रह्म की विविध शक्ति यों को अलग−अलग नाम रूप देकर उन्हें साधकों की रुचि के अनुरूप विनिर्मित किया गया है। साधना में ध्यान का स्थान प्रमुख है। ध्यान के लिए आकृति चाहिए। निराकार ब्रह्म को इसी प्रयोजन के लिए साकार रूप में प्रस्तुत किया गया है। नामों और रूपों की भिन्नता वाला देव प्रकरण साधकों की सुविधा भर के लिए है उससे एक ब्रह्म की सत्ता को चुनौती नहीं दी जाती और न बहु−देव बाद को उससे प्रतिपादन होता है।

“साधकानाँ हितार्थाय ब्रह्मणो रूप कल्पना।”

साधकों का साधना प्रयोजन पूरा करने के लिए भगवान के रूप की कल्पना गढ़ी गई।

देवताओं की आकृति−प्रकृति में साधकों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण शिक्षाएँ तथा प्रेरणाएँ प्रस्तुत की गई हैं ताकि ध्यान धारणा का प्रयोजन पूरा करते हुए साधक उस देव आकृति के सहारे अपने लिए उपयुक्त प्रकाश एवं प्रेरणा भी प्राप्त करता रह सके।

उदाहरण के लिए भगवान शंकर की प्रतिमा पर विचार करें तो प्रतीत होगा कि अलंकार रूप से ऐसे अगणित तथ्य उस आकृति में जोड़े गये हैं जिन पर ध्यान देने वाला शिव उपासक निरन्तर आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ता रह सकता है। कहना न होगा कि उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य में ही उपासना और साधना के सारे रहस्य सन्निहित हैं और उन्हें अपनाने वाला सच्चे अर्थों में ईश्वर भक्त एवं सिद्ध पुरुष बन सकता है।

शिवलिंग शैव मन्दिरों में सर्वत्र स्थापित है। वैष्णव सम्प्रदाय में उसे शालिग्राम के रूप में माना गया है। दोनों ही लिंग, हस्त, पाद चक्षु, कर्णदि विहीन−स्त्री−पुरुषादि भेद विनियुक्त और विशेष भाव विनियुक्त है। उपासना−ग्रन्थों में इन दोनों ही ब्रह्म लिंगों के लिए लगभग समान विशेषणों का प्रयोग हुआ है। शिर, वक्ष, हस्तपादादि विहीन−चक्षु, कर्णदि सर्वेन्द्रिय विवर्जित, निर्विशेष दण्डाकृति के रूप में उन्हें मान्यता दी गई है।

यह शिवलिंग या शालिग्राम गोलाकार ब्रह्माँड का प्रतीक है। यह समस्त संसार ही ब्रह्म है। यह गोल पाषाण से बनी शिवलिंग प्रतिमा का संकेत है। विश्व−सेवा ही शिव अथवा विष्णु की सच्ची भक्ति है। लोकमंगल के लिए किये गये प्रयासों में उपासना का सारा तत्व−ज्ञान भरा पड़ा है।

भगवान शिव के मस्तक में से गंगा का प्रवाहित होना उत्कृष्ट विचार धारा का प्रवाह संकेत है। ललाट पर चन्द्रमा का धारण शान्ति और सन्तुलन से मनःसंस्थान को भरे रहने की बात को इंगित करना है। तीसरा नेत्र विवेक का नेत्र है। सामान्य मनुष्य चर्म चक्षुओं से तात्कालिक लाभ ही देखते हैं और आज की क्षणिक लिप्सा के लिए भविष्य को अन्धकारमय बनाते हैं। तीसरा विवेक नेत्र दूरगामी परिणामों को देखता है और उपलब्ध भविष्य की सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए वर्तमान की रीति−नीति निर्धारित करता है। शिव भक्ति करने के पीछे यह प्रेरणा है कि हमारे मस्तिष्क में से ज्ञान गंगा प्रवाहित होती रहे। परिस्थितियाँ उद्विग्न एवं असन्तुलित न करें। चन्द्रमा जैसा धवल और प्रकाशपूर्ण हमारा दृष्टिकोण हो। हम दूरदर्शी बनें और तीसरे नेत्र से वह देखें जो सर्व साधारण को दिखाई नहीं पड़ता। भविष्य निर्माण हमारा लक्ष्य हो उसके लिए आज की सुख−सुविधा छोड़ कर यदि तपस्वी, संयमी और परमार्थी रीति−नीति अपनानी पड़े तो संकोच न करें। शिवजी ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म किया था। विवेक दृष्टि के जागरण पर कुविचार सहज ही नष्ट हो सकता है। इस तथ्य को कोई भी विचारशील व्यक्ति अपने जीवन−क्रम में घटित कर सकता है।

श्मशान में निवास, चिताभस्म का शरीर पर लेपन, मुण्डमाला धारण का प्रयोजन, मृत्यु का स्वागत एवं सहगमन है। जन्म और मरण दोनों ही जीवन संकट के दो पहिये हैं। जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। जो आज जन्मा है, उसे कल मरना ही पड़ेगा। यदि इस तथ्य को भली भाँति हृदयंगम किया जा सके तो प्रत्येक साँस को बहुमूल्य सम्पदा समझ कर उसके सदुपयोग की आतुरता एवं सतर्क ता बनी रह सकती है। कुकर्म और कू मार्ग से बचा जा सकता और मिथ्या अहंकार से छुटकारा मिल सकता है। मृत्यु का स्मरण जितना गहरा रहेगा, उतने ही जीवन को सफल बनाने वाले−पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने वाले प्रयास तीव्र होंगे। आलस्य और प्रमाद के लिए गुंजाइश नहीं रहेगी। मृत्यु को शिर पर खड़ी देख कर आवश्यक काम निपटाने की जल्दी होना स्वाभाविक है। विचार करने पर जीवन लक्ष्य की पूर्ति—आत्म−कल्याण की साधना ही जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता समझी जा सकती है।

भूत−प्रेतों की सेना साथ रहने का अलंकार भी इसी दृष्टि से है कि मरणोपरान्त भगवान से ही पाला पड़ेगा। शिव, भूतों−प्रेतों को—पतित, दुखी और असमर्थों को भी साथ लेकर चलते हैं। शिव भक्त की उदारता भी पिछड़े और पतित लोगों को स्नेह देने एवं ऊपर उठाने की होनी चाहिए।

शिव द्वारा विष को कंठ में धारण करने का अर्थ है अवाँछनीयता को न तो पचाना और न उगलना वरन् ऐसे स्थल पर दबा देना जहाँ से अपने ऊपर तथा दूसरों पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। जीवन में कितने ही अवाँछनीय व्यक्ति तथा घटना क्रम ऐसे आते हैं। जिनकी प्रतिक्रिया को यदि पेट में रखे रहें तो घृणा, द्वेष से अपना नाश होता है और यदि प्रतिशोधात्मक उग्र रूप धारण किया जाय तो सुधार के साथ नया विग्रह उत्पन्न होता है। ऐसी दशा में उबलते दूध की तरह न उगलते ही बनता है न पीते ही। शिव ने मध्यवर्ती मार्ग अपनाया और उसे अधर में लटका दिया, कंठ में भर लिया। विश्व पर छाई विषाक्त विभीषिकाओं को अपने ऊपर ओढ़ कर सज्जन स्वयं तो कष्ट उठाते और कुरूप बनते हैं पर लोकहित को ध्यान में रखते हुए उन्हें ऐसी विपत्ति ओढ़ने में भी हिचक नहीं होती।

इस रहस्य का और अधिक स्पष्टीकरण भगवान शिव न स्वयं किया है। शिव पुराण में क था आती है कि समुद्र मंथन से उत्पन्न विष पीकर जब भगवान एकान्त गुफा में चले गये तो देवता उनके इस प्रबल पुरुषार्थ की प्रशंसा करने पहुँचे। स्तुति सुन कर शिव ने कहा—स्थूल विष को पचा कर मैंने कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया। वास्तविक प्रशंसा का पात्र तो वह है जो संसार सागर के मंथन से उत्पन्न अनेकानेक विषों को पचा जाता है। और उनसे अप्रभावित बना रहता है।

शिव के कंठ में, भुजाओं में, कन्धे पर सर्प लिपटे हुए हैं। वे सर्पों से प्रभावित नहीं होते वे उन्हें काटते नहीं वरन् उनके संपर्क में आकर सर्प ही अपनी विषैली प्रकृति छोड़ देते हैं और स्नेह का बदला सौजन्य में देते हैं। शिव साधक की जीवन नीति यही होती है, वह विषैले सर्पों से भी द्वेष नहीं करता—उन्हें भी गले लगाता है। उनके शरीर को मारने की अपेक्षा प्रकृति को बदल देता है। यही दृष्टिकोण द्वेष, दुर्भाग्य के निराकरण का स्थायी हल है। द्वेष और दमन की आतंकवादी नीति भी कभी−कभी अपनानी पड़ सकती है पर वह स्थाई हल नहीं है। चिन्तन विजय तो स्नेहासिक्त सद्भावनाओं की ही होती है। शिव शरीर पर सर्पों के लिपटे रहने के पीछे यही प्रतिपादन है।

शिव के प्रिय आहार में एक सम्मिलित है—माँग। भंग अर्थात् विच्छेद−विनाश। माया और जीव की एकता को भंग अज्ञान आवरण का भंग, संकीर्ण स्वार्थपरता का भंग, कषाय−कल्मषों का भंग। यही है शिव का रुचिर आहार। जहाँ शिव की कृपा होगी वहाँ अन्धकार भरी निशा भंग हो रही होगी और कल्याणकारक अरुणोदय का पुण्य दर्शन मिल रहा होगा।

शिव को पशु−पति कहा गया है। पशुत्व की परिधि में आने वाली दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करना पशुपति का काम है। नर पशु के रूप में रह रहा जीव जब कल्याण कर्ता शिव की शरण में जाता है तो सहज ही पशुता का निराकरण हो जाता है और क्रमशः मनुष्यत्व और देवत्व विकसित होने लगता है।

शिव का वाहन है—वृषभ। वृषभ को धर्म का प्रतीक माना गया है। पुराणों में इस वृषभ के चार पैर बताये गये हैं (1) सत्य (2)प्रेम (3) विवेक (4)संयम। धर्म रूप वृषभ इन्हीं के सहारे खड़ा होता और चलता है। शिव का वाहन यह धर्म वृषभ ही है। सौम्य किन्तु पराक्रमी सत्ता का प्रतीक यह बैल है जिस पर सवार होकर शिव का अवतार होता है।

महामृत्युँजय मन्त्र में शिव को त्र्यम्बक और सुगन्धि पुष्टि वर्धकम् कहा गया है। अम्बक अर्थात् त्रिवर्ग। संयम विवेक दान को त्रिवर्ग कहते हैं। ज्ञान,कर्म और भक्ति भी त्र्यम्बक है। इस त्रिवर्ग कहते हैं। इस त्रिवर्ग को अपना कर मनुष्य का व्यक्तित्व प्रत्येक दृष्टि से परिपुष्ट व परिपक्व होता है। उसकी समर्थता और सम्पन्नता बढ़ती है। साथ ही श्रद्धा, सम्मान भरा सहयोग उपलब्ध करने वाली यशस्वी उपलब्धियाँ भी करतलगत होती हैं। यही सुगन्ध हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का प्रतिफल यश और बल के रूप में प्राप्त होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। इसी रहस्य का उद्घाटन महामृत्युञ्जय मन्त्र में विस्तार पूर्वक किया गया है।

शिव प्रतिमा के किसी भी पक्ष पर विचार करें, उसमें आत्मा को ऊँचा उठाने वाला प्रेरक प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा है। शिव भक्ति के साथ−साथ शिव प्रेरणाओं को व्यावहारिक जीवन में स्थान देने की तत्परता बरत जाय तो निस्संदेह हमारा वही कल्याण हो सकता है जिसका शिव एवं शंकर नाम के अर्थ में संकेत है।

शिव प्रतिमा की तरह ही अन्य देवताओं की आकृति, प्रकृति, वाहन, आयुध परिधान में भी ऐसे ही मार्मिक रहस्य छिपे पड़े हैं। जिनका थोड़ा सा प्रकाश भी हमारा आध्यात्मिक काया−कल्प कर सकता है। देव भक्ति के साथ−साथ हमें उन्हीं प्रेरणाओं को ग्रहण करना चाहिए। बहुदेववाद के जंगल में न फँस कर हम यदि देव प्रतिमाओं के माध्यम से उपयोगी प्रेरणाएँ ग्रहण कर सकें तो देव परिवार की संरचना का शास्त्र प्रयोजन सही रूप से पूरा हो सकता है।


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