यह समझना गलत है कि माँस में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है, इसलिए वह पौष्टिक आहार है। माँस में केवल 7 प्रतिशत प्रोटीन होता है जबकि उसकी मात्रा पनीर में 25 प्रतिशत और सोयाबीन में 40 प्रतिशत तक पाई जाती है। लोहे का अंश माँस में होता तो है पर वह दूध एवं वनस्पतियों में मिलने वाले लोहे की अपेक्षा मात्रा में भी कम है और स्तर में भी घटिया है। शरीर को प्रतिदिन जितने लोहे की आवश्यकता पड़ती है, उसकी पूर्ति के लिए डेढ़ पौंड माँस अथवा साढ़े सात पौंड मछली खानी पड़ेगी। लौह वस्तुतः माँस में नहीं रक्त में होता है। माँस में जितना अंश रक्त का रहा होगा, उसी आधार पर लोहा पाया जायगा, फिर प्राणियों के रक्त से मिला लौह दुष्पाच्य होता है और आसानी से मानव रक्त में नहीं घुलता, जबकि वनस्पतियों में रहने वाला लोहा बड़ी सरलतापूर्वक हमारे शरीर में घुल जाता है।
कैल्शियम माँस में नहीं के बराबर होता है, वह कड़े पुट्ठों में एवं हड्डियों में ही पाया जाता है। कोमल माँस जो आमतौर से खाया जाता है, उसमें एक प्रतिशत से भी कम कैल्शियम है। मछली में वह कुछ अधिक अवश्य होता है पर रोटी से अधिक नहीं।
माँस में रहने वाले खनिज गैस शरीर में जाकर संचित क्षार तत्व को नष्ट करती है। रक्त चाप की वृद्धि एवं मूत्र में एसिड उत्पन्न करती है।
जीवित पशु के तन्तु अत्यन्त कोमल होते हैं किन्तु उसके मरते ही कड़े हो जाते हैं। यह कड़ापन पकने और पचने में भारी पड़ता है। जब माँस सड़ता है तभी वे तन्तु कोमल पड़ते हैं। इसलिए ताजे माँस को कुछ समय हवा में लटका कर रखा जाता है ताकि वह सड़ने लगे और मुलायम हो जाय, सड़न आरम्भ होने के साथ−साथ ही रिकूँ उसमें कई प्रकार के विष उत्पन्न होने लगते हैं और कई घातक कीटाणुओं का जन्म होता है। यह सड़न शरीर में पहुँच कर न जाने कितने प्रकार के उपद्रव खड़े करती है और खाने वाले के स्वास्थ्य को धीरे−धीरे खोखला ही करती जाती है। रक्त चाप और गुर्दे की बीमारियों में आमतौर से डाक्टर माँस खाने को मनाही करते हैं। वे जानते हैं कि जब भले−चंगे आदमी में माँस इस प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न करता है तो रोगग्रस्तों पर और भी अधिक बुरा प्रभाव डालेगा।
वध किये जाते समय जानवर को जिस भयभीत और चीत्कार भरी स्थिति में होकर गुजरना पड़ता है, उसके कारण उनकी अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ तेजी से विष उगलने लगती हैं। उस स्थिति में तेजी से उभरते हुए हारमोन कुछ ही क्षण में समस्त रक्त में घुल जाते हैं और उसका प्रभाव माँस पर भी पड़ता है। यों पिचकारी से निकला हुआ शुद्ध रक्त उतना विषैला नहीं होता, उसे पिया और पचाया भी जा सकता है, किन्तु यदि वधकाल की कातरता में हो कर गुजरे हुए रक्त को पिया जाय तो वह भयंकर विपत्ति खड़ी करेगा। यों वध करने के बाद रक्त का अधिकाँश भाग बाहर बह जाता है फिर भी माँस में जो पतली रक्त नलिकायें रहती हैं, उनमें तो खून बना ही रहता है। माँस में लालिमा इसी की रहती है। अधिक त्रास देकर मारे जाने वाले जानवर का माँस अधिक स्वादिष्ट होता है, इस मान्यता में इतना ही तथ्य है कि उसमें एक अतिरिक्त विष भरा होता है जो अभ्यस्त नशेबाजों को जिस प्रकार कड़ुवापन भी स्वादिष्ट लगता है, उसी प्रकार प्रिय लगने लगता है। यह स्वाद निश्चित रूप से हानि को अधिक गहरी हानि बनाता चला जाता है।
पशुवृत्ति और पशु प्रकृति का प्रभाव माँस में जुड़ा रहना स्वाभाविक है। माँसाहारी हिंस्र पशुओं में जो क्रूरता पाई जाती है, उसे माँसाहार का प्रत्यक्ष परिणाम ही कह सकते हैं। मनुष्य भी इस दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता। उसके स्वभाव में आसुरी तत्व बढ़ते ही जायेंगे। उनकी प्रतिक्रिया शरीर, मन, परिवार और समाज पर अवांछनीय स्तर की ही पड़ेगी।
माँस महंगा है, दुष्पाच्य है, काटे हुए पशुओं में से अधिकाँश के रुग्ण होने से उनकी बीमारियाँ खाने वालों में घुस पड़ने का खतरा है। इतने पर भी पौष्टिकता के नाम पर जिस प्रोटीन का माँस में बाहुल्य बताया जाता है, वह भी इतना घटिया है कि उससे सोयाबीन जैसे अन्न कहीं अधिक अच्छे सिद्ध होते हैं। ‘गुनाह बेलज्जत’ इसे कहते हैं। प्राणिवध का क्रूर कर्म साथ ही स्वास्थ्य का विनाश। कई बार लगता है कि कहीं बर्बरता को जीवित रखने के लिए ही तो मांसाहारी प्रवृत्ति को जीवित नहीं रखा जा रहा है।