साधना विज्ञान में ध्यानयोग को प्रमुखता दी गई है। बिखरी शक्ति यों का केन्द्रीकरण एकाग्रता से होता है। आतिशी शीशे की सहायता से फैली हुई सूर्य किरणों को जब एक के न्द्र बिन्दु पर इकट्ठी कर देते हैं, तो वहाँ आग जलने लगती है। मस्तिष्कीय ऊर्जा के बिखराव को एक दिशा विशेष में केन्द्रित करने की साधना क र ली जाय तो शक्ति के बिखराव को समेट कर एक प्रयोजन में लगाने से आशाजनक सफलता मिला सकती हैं। बिखरी हुई बारूद में आग लगाने से वह भक् से जल जायगी पर उसे बन्दूक की नली द्वारा केन्द्रित करके एक दिशा विशेष में फेंका जाय तो उसका प्रहार असहनीय बन जाता है। मस्तिष्कीय ऊर्जा को के न्द्र−विशेष पर इकट्ठा करना और उसे दिशा−विशेष में लगा देना यही है ध्यान का प्रमुख उद्देश्य।
साँसारिक सफलताएँ भी इस ध्यान धारणा के आधार पर मिलती हैं। मन लगा कर पढ़ने वाले छात्र अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होते हैं। कवि, लेखक, चित्नकार, कलाकार, वैज्ञानिक, वकील आदि बुद्धि−जीवी वर्ग के लोगों की प्रगति का आधार उनकी एकाग्र साधना ही होती है। शरीर से किये जाने वाले कामों की सुन्दरता और सफलता मात्र श्रम पर आधारित नहीं होती, उसमें भी मनोयोग की संलग्नता आवश्यक होती है। यह मनोयोग और कुछ नहीं ध्यान का के केंद्रीकरण ही है। कोई व्यापारी, अध्यापक, शिल्पी अथवा श्रमिक, इस प्रयोग के बिना अपने काम में न तो कुशल हो सकता है और न सफल।
आध्यात्मिक साधनाओं में ध्यान को इसलिए अग्रणी माना गया है कि ईश्वर प्राप्ति और आत्म−कल्याण जैसे महान प्रयोजनों के लिए भी तन्मयता एवं तत्परता की आवश्यकता पड़ती है। स्नेह, ममत्व और श्रद्धा, विश्वास के केन्द्रीकरण का नाम ही भक्ति−भावना है। मस्तिष्क को पूरी तरह समेट कर जीवन रहस्यों का विश्लेषण किया जाय तो ही वह ज्ञान प्राप्त होता है जो सद्ज्ञान एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा का जागरण करने के लिए आवश्यक है। अपूर्णता को पूर्णता में परिणत करने के लिए—आत्मा को परमात्मा में जोड़ देने के लिए योग−साधना की जाती है। यह प्रक्रिया या तभी सम्भव होती है, जब चिन्तन को प्रखर और केन्द्रीभूत बना कर लक्ष्य प्राप्ति के लिए एकाग्रतापूर्वक प्रयुक्त किया जाय। ध्यान इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है। इसलिए प्रायः सभी साधना मार्गों में ध्यान को प्रधानता दी गई है। उसके बिना आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त होना कठिन है।
छान्दोग्य उपनिषद् के सप्तम अध्याय के छठे और सातवें खण्ड में ध्यानयोग को उपासना की उच्च कक्षा बताया गया है। महर्षि सनत्कुमार जिज्ञासु नारद का समाधान करते हुए कहते हैं—
‘बाग्वाव नाम्नी भूयसी।’
अर्थात्—नामोच्चार से वाक् बढ़ कर है।
‘मनो बाववाचोभूयो।’ अर्थात्−वाक् से भी बढ़ कर मन है।
‘संकल्पो वाव मनसी भूयान्।’
अर्थात्−मन से बढ़ कर संकल्प है।
‘चित्तं वाव संकल्पाद्भूयो।’
अर्थात् चित्त संकल्प से भी बढ़ कर है
‘ध्यानं वाव चित्ताद्भूयो।’
अर्थात्−चित्त से भी बढ़कर ध्यान है।
इस प्रतिपादन में इस तथ्य को इंगित किया गया है कि उपासना क्षेत्र में ध्यान साधना को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
नाम, जप, वाक, संयम, मनोनिग्रह, संकल्पोद्भव, चित्त निरोध, यह सब उपासना की क्रमिक भूमिकाएँ हैं और इन सबसे ऊपर ध्यान है। ध्यान की शक्ति और सामर्थ्य का और भी अधिक स्पष्टीकरण करते हुए महर्षि सनत्कुमार जिज्ञासु नारद को फिर समझाते हैं।
‘ध्यायतीव पृथ्वी।’
अर्थात्−पृथ्वी ध्यानरत है।’
‘ध्यायतीवान्तरिक्षं।’
अर्थात्−अन्तरिक्ष ध्यान मग्न है।
‘ध्यायतीव द्यौः।’
अर्थात्−द्युलोक ध्यान में निरत है।
‘ध्यायन्तीवापो।’
अर्थात्−जल ध्यान में संलग्न है।
‘ध्यायन्तीव पर्वता।’
अर्थात्−पर्वत ध्यान करते हैं।
‘ध्यायन्तीव देवाः।’
अर्थात्−देवता ध्यान करते हैं।
‘ध्यायन्तीव मनुष्याः।’
अर्थात्−मनुष्य भी ध्यान में निरत हैं।
ध्यान में सन्निहित एकाग्रता की शक्ति का ही इन प्रतिवादनों में उल्लेख है। बिखरे हुए विचार और अस्त−व्यस्त मनःस्तर कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं होते। बिखरा मन एक प्रकार से विक्षिप्तता का ही परिचायक है। दिशा−विहीन स्थिति और अव्यवस्थित क्रम अपना कर तो जड़−चेतना किसी का काम नहीं चल सकता। व्यवस्था और एकाग्रता एक दूसरे पर आश्रित है। शक्ति चाहे कितनी ही बड़ी−चढ़ी क्यों न हो, उसका चमत्कार एकाग्रता के केन्द्रीकरण में ही उत्पन्न होता है। इसलिए विज्ञ व्यक्ति अपने जीवन क्रम में एकाग्रता की ध्यान साधना पर समुचित ध्यान देते हैं। इसके विपरीत दुर्गति में गिरने वाले लोग अपनी वृत्तियों को निरर्थक और अनर्थ मूलक दुष्प्रवृत्तियों में बखेरते और नष्ट करते रहते हैं। महर्षि सनत्कुमार आगे फिर कहते हैं—
येऽल्पाः कलहिनः पिशुना उपवादिन स्तेऽथ ये प्रभवो ध्यानापादाँशा इवैव ते भवन्ति।
अर्थात् नीच प्रकृति के लोग कलहकारी, बकवादी, निन्दा, चुगली में आपनी सामर्थ्य को बखेरते हैं किन्तु जो विवेकवान् हैं, वे ध्यान को अपनाते हैं और उसका लाभ उठाते हैं।
यह सब समझाने के उपरान्त जिज्ञासु नारद को सनत्कुमार ने स्पष्ट शब्दों में एक ही उपासना का निर्देश करते हुए कहा—’ध्यानमुपास्थिति’ अर्थात् तुम ध्यान की उपासना में लग जाओ।
ध्यान के दो वर्ग हैं, एक आत्म−शोधन दूसरा प्रभु समर्पण। आत्म−शोधन में अपने आप को शरीर से, प्रवृत्तियों से ऊपर साक्षी दृष्टा माना जाता है। आत्म−निरीक्षण, आत्म−चिन्तन, आत्म−सुधार, आत्म−निर्माण और आत्म−विकास की योजना बद्ध रीति−नीति का निर्धारण ध्यान योग का एक महत्वपूर्ण विषय है। अपने को दोष, दुर्गुणों से रहित, पवित्र और उत्कृष्ट स्तर का मानने तथा उसके लिए प्रबल प्रयास करने का प्रचण्ड संकल्प उभारना ध्यान योग के अंतर्गत ही आता है।
ध्यानं निर्विषयं मनः। साँख्य दर्शन
मन का विषय विकारों से रहित होना ध्यान है।
रागोपहन्तिर्ध्यानम्।
रागो का निराकरण ही ध्यान है।
ध्यान का दूसरा वर्ग है, प्रभुपरायणता। ईश्वर को आत्म समर्पण जीव और ब्रह्म की सत्ता का सान्निध्य और एकीकरण। इसके लिए ब्रह्म का कई रूपों में चिन्तन करने और उसके साथ तादात्म्य होने की प्रक्रिया प्रचलित है। भगवान के किसी भी रूप का ध्यान करते हुए उसको अपनी सघन आत्मीयता का आरोपण साकार ध्यान साधना कहा जाता है।
उपनिषद् ने ध्यान को साक्षात ब्रह्म ही माना है और कहाँ है—इष्ट की तादात्म्यता आत्मा की पवित्रता और सक्षमता को विकसित करते हुए उसे ब्रह्म−स्तर तक ही पहुँचा देती है।
सयोध्यान ब्रह्मेत्युपास्ते यावद् ध्यानस्य गतं तत्रास्यय यथा कामाचारो भवति यो ध्यानं ब्रह्मेत्युपास्ते ऽस्ति।
—छान्दोग्योपनिषद् 7।6।2
अर्थात्−जो यह मान कर उपासना करता है कि ‘ध्यान ही ब्रह्म है।’ उसके ध्यान की गति इतनी विस्तृत हो जाती है जितनी कि ब्रह्म की।
निराकार साधना में सविता−देवता का−ज्योति पुञ्ज प्राणी की काया को भी ध्यान केन्द्र नियत किया जा सकता है।
किसी गुण विशेष के सिद्धान्त, स्वरूप, अभ्यास एवं परिणाम को लेकर भी चिन्तन को देर तक सीमित किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, संयम, उदारता जैसे गुणों की व्याख्या, प्रयोग, पद्धति एवं प्रतिक्रिया के अनेक पक्ष हो सकते हैं और उन सब पर क्रमशः विचार करते हुए देर तक मन को उसी परिधि में प्रतिबन्धित रहने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
ऊपर की पंक्ति यों में आत्म−शोधन की साधना का उल्लेख हुआ। उसमें ईश्वर का समावेश आवश्यक नहीं। गुलाब आदि किसी भौतिक आधार को भी माध्यम बनाया जा सकता है पर प्रभु समर्पण स्तर की जब साधना करनी हो तो फिर भक्त के अस्तित्व को भगवान की सत्ता में समर्पित में होने का ध्यान ही करना पड़ेगा।
परमेश्वर का विराट् रूप भी ध्यान के लिए उपयुक्त प्रकार है। स्वर्ग उसका शीर्ष, पृथ्वी उसके पाद, दिशाएँ हाथ, सूर्य चन्द्र नेत्र, वायु श्वास, अग्नि पाचन, धर्म हृदय, वनस्पति केश, पर्वत अस्थियाँ, नदियाँ नाड़ियाँ, समुद्र मूत्राशय जैसी कल्पना विराट् ब्रह्म की की जा सकती है और उन क्षेत्रों के प्रस्तुत दृश्यों में मन को उलझाये रहा जा सकता है।
इस विराट ब्रह्म का एक क्षुद्रतम घटक ही अपना ‘अहम्’ है। अपनी सत्ता ब्रह्म सत्ता की ही एक इकाई है। व्यक्ति का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं वह समष्टि का ही एक कण है। हमें विराट् ब्रह्म के लिए—विश्व मानव के लिए ही अपने अस्तित्व का समर्पण करते हुए जीवन−यापन करना चाहिए। यही निष्कर्ष विराट् ब्रह्म का ध्यान−धारणा का है।
आत्मा को शरीर से भिन्न सत् चित आनन्द स्वरूप मानना शरीर और आत्मा की भिन्नता की गहराई से अनुभूति करना और मात्र शरीर के सुख−साधन जुटाने में ही निमग्न न रह कर आत्मकल्याण के लिए उत्साह जगाना भी ध्यान प्रक्रिया का एक प्रयोजन है।
मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मेरा नहीं है। शरीर के साथ जुड़ा हुआ अहम् भाव मिथ्या है। शरीर और सम्पत्ति की दृष्टि से मेरा पन निरर्थक है। यह जड़−पदार्थ मुझसे भिन्न है। मैं सत् चित आनन्द का अविनाशी अंश हूँ। इस प्रकार चिन्तन करते हुए, जब भौतिक अहम् विलीन हो जाय तो समझना चाहिए, मैं और तू से ऊपर उठा हुआ, परब्रह्म परमात्मा उपलब्ध हो गया।
प्राणि जगत तथा पदार्थ मात्र में एक ही चेतन−तत्व भरा है। उस व्यापक चेतना के साथ एकाग्रता करने पर समस्त विश्व−चेतनसत्ता का स्वरूप दिखाई पड़ता है। ऐसी स्थिति को भागवत् प्राप्ति कह सकते हैं।
ध्यान योग के आधार पर अन्तः चेतना को विकसित करते हुए मनुष्य अपने को लघु से महान् बना सकता है। जीव से ब्रह्म हो सकता है।