क्या शुष्क वायुमण्डल में आर्द्रता उत्पन्न की जा सकती है? क्या सुखे आसमान से वर्षा हो सकती है? यह प्रश्न ऐसे ही हैं, जैसे कि यह पूछना कि—क्या कठोर प्रकृति कोमल बनाई जा सकती हैं? क्या संकीर्ण स्वार्थपरता को उदार आत्मा-विस्तार में परिणत किया जो सकता है?
मोटेतौर से यक प्रतीत होता है कि आधार न हो तो परिणाम कैसे उत्पन्न हो सकता है? पर वात ऐसी है नहीं प्रकृति के अन्तराल का थोड़ा गहन अध्ययन करें तो प्रतीत होगा कि सर्वत्र बीज-रूप से सभी पदार्थ और सभी परिस्थितियाँ मौजूद हैं। किसी वस्तु का कहीं पूर्णतया अभाव नहीं। बीज-रूप से हर वस्तु हर जगह विद्यमान है। जो नहीं है, उसे भी प्रयत्न करने पर उगाया और बढ़ाया जा सकता है।
कृत्रिम वर्षा के प्रयोग अब क्रमशः अधिक सफल होते जा रहे हैं और जहाँ बादल नहीं है, वहाँ बादल लाने तथा जिन बादलों में पानी नहीं है, उनमें बरसने वाली घटा उत्पन्न करना अब शक्य और प्रत्यक्ष होता जा रहा है।
सोडियम क्लोराइड भरे गुब्बारे आकाश में उड़ाये जाते हैं, वे एक निश्चित ऊँचाई पर जाकर अपने आप फट जाते हैं और वह नमक उस क्षेत्र में उड़ने वाले बादलों पर छिड़क जाता है। फलस्वरूप वर्षा होने लगती है।
कृत्रिम वर्षा की दूसरी विधि है, रासायनिक पदार्थों के संयोग से कृत्रिम बादल बनाना। हवा में जो नमी होती है, उसे एक जगह एकत्रित करने वाले रसायन यदि बखेर दिये जायँ तो समुद्र से उठने वाले मानसून की प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी, वरन् स्थानीय वायु में भरा हुआ जल अंश ही सघन होकर बादलों के रूप में प्रकट होगा।
कार्बन डाई-आक्साइड को घनीभूत करके सूखी बर्फ की तरह जमा लिया जाता है और उसका बुरादा बादलों पर छिड़का जाता है, इससे वे वर्षा करने की स्थिति में आ जाते हैं। सिल्वर आक्साइड का धुंआ छोड़ने से भी यही प्रयोजन पूरा हो सकता है। छोटे जल-कणों को परस्पर एकत्रित होकर बड़े जल-कणों का रूप बना लेने और बूँद बनकर बरसने लगने की पृष्ठभूमि उपरोक्त रसायनों द्वारा बनाई जा सकती है।
एक प्रयोग यह है कि जलता हुआ तेल आकाश में छोड़कर उस धुँए से बादलों को आकर्षित किया जाय। यह प्रयोग अमेरिका में पूर्ण सफल रहा है। यज्ञ द्वारा वर्षा होने की बात भी इसी आधार पर सिद्ध होती है। प्राचीन-भारत के विज्ञानी इस रहस्य से परिचित थे। इसलिए उन्होंने धार्मिक और आध्यात्मिक प्रयोजन के साथ-साथ उपयुक्त वर्षा कराने वाली प्रक्रिया का यज्ञ रूप में विकास किया।
कृत्रिम वर्षा का शोध-कार्य भारत में भी चल रहा है। ‘कौंसिल आफ सांइटिफिक एण्ड इण्डिस्ट्रियल रिसर्च’ ने इसके लिए एक विशेष व्यवस्था की है। उसका नाम है—’रेन एण्ड क्लाइड रिसर्च यूनिट’। अन्य देशों में भी इस प्रकार के प्रयोग चल रहे हैं कि वर्षा कराने या रोकने का अधिकार अकेले इन्द्र देवता के हाथों में ही न रहे, वरन् मनुष्य भी उसका अधिकारी, हिस्सेदार बन जाय।
मनुष्य की प्रकृति जन्मजात होती है और वह बदली नहीं जा सकती। समाज की परिस्थितियाँ युग का परिपाक है, हम उसमें क्या कर सकते हैं? यह दोनों ही विचार निरर्थक और निराशावादी हैं। कृत्रिम वर्षा के सफल प्रयोगों पर दृष्टिपात करें तो यह आशा सहज ही वैध सकती है कि मानवी-प्रकृति और समाज की परिस्थितियों को अभीष्ट दिशा में मोड़ा-मरोड़ा जा सकना—श्रम-साध्य भर है—असम्भव नहीं।