न हर्षोन्मत्त हों न अधीर होकर रोयें कलपें

February 1974

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आम तौर से छोटी तबियत के लोग थोड़ी सी सफलता पर अहंकार से उन्मत्त हो उठते हैं और छोटी सी

सफलता पर ऐसे रोते कलपते हैं मानो अब मौत से कम में छुटकारा ही नहीं। यह मन के छोटे होने का चिन्ह हैं।

छोटी सफलता से हर्षोन्मत्त हो जाने में यह हानि है कि ऐसा व्यक्ति अहंकारी और दुस्साहसी हो जाता है और हर कठिन काम को सरल समझ कर बिना आवश्यक तैयारी किये ऐसे कार्यों में टाँग अड़ा देता है जो उसकी क्षमता से बाहर का होता है। कोई व्यक्ति एक बार एक काम में सफल हो गया है तो उसे बुद्धिमानी और कुशलता की पूरी ठेकेदारी अपने सिर पर नहीं बाँध लेनी चाहिए। सफलता और असफलता की धूप-छाँह तो जीवन के पावस में ऐसी ही आँख मिचौनी करती रहती है। सफलता के माध्यम से हम साहसी और उत्साही बनें इतना ही पर्याप्त है। अहंकारी और दुस्साहसी बन बैठे तो समझना चाहिए कि सफलता क्या आई अपने ऊपर ऐसी विक्षिप्तता लद गई जो अगले ही दिनों विपत्ति ही सिद्ध होगी।

असफलता को देखते ही हिम्मत हार बैठना भावी अभ्युदय की ओर से निराश हो जाना अथवा बेहिसाब रोने कलपने लगना एक भयानक मानसिक दुर्गुण है। इस व्यथा में ग्रस्त व्यक्ति प्रायः अधीर होते हैं और फिर प्रयत्न करने पर नई योजना के अनुसार हारी बाजी को जीतने की आशा छोड़ बैठते हैं। हवा के साथ उड़ने वाले इन हलके तिनकों का अस्तित्व उथला और ओछा होता है वे कदाचित ही किसी बड़े उत्तरदायित्व का भार अपने ऊपर ओढ़ पाते हैं और यदि कुछ जिम्मेदारी उठालें तो शायद ही अन्त तक उसका निर्वाह करने का साहस दिखाते हैं।

प्रगतिशील और सफल जीवन जीने के लिए हमें धैर्य वान, साहसी और संतुलित होना चाहिए। पथ में आती रहने वाली कठिनाइयाँ को स्वाभाविकता ही समझना चाहिए और अपने विवेक एवं स्वभाव को इसके लिए प्रशिक्षित करना चाहिए कि गुत्थियों को कैसे सुलझाया जाता है और अवरोधों को कैसे हटाया जाता है। यह विशेषता उसी में उत्पन्न हो सकती हैं जो परिस्थितियों के उतार चढ़ाव से अत्यधिक प्रभावित नहीं होता और ऊँचे नीचे घटनाक्रम एवं अनुकूल प्रतिकूल वातावरण से भी अपनी दूरदर्शिता को स्थिर बनाये रहता है।

सेनानायकों को विविध मोर्चों पर लड़ना पड़ता है। अभी आगे बढ़ना होता है अभी पीछे हटना पड़ता है। परम प्रिय साथियों को मृत्यु के मुख में जाते और घायल कराहते देखना पड़ता है। कई बार तो अपनी वही जान पर आवीतता है। खाने सोने का कोई ठिकाना नहीं रहता। ओछी दृष्टि वालों के लिए यह परिस्थितियाँ रुदन-क्रंदन कराने वाली और विक्षिप्त करने वाली ही हो सकती हैं। किन्तु सेना नायक अपने पद, स्तर, गौरव और कर्तव्य को समझता है इसलिए इन समस्त भावुक उतार चढ़ावों को एक कौने पर पटके हुए खिलाड़ी की मनः स्थिति में जीवन-मरण का खेल खेलता है। मनुष्यता की गरिमा इसी प्रकार की रीति नीति अपनाने में है। हर गौरवशाली व्यक्ति को जीवन संग्राम में इसी स्तर का संतुलन बनाये रखना चाहिए और शूरवीर सेनापति की भूमिका निबाहनी चाहिए।

भीष्म पितामह का शरीर तीरों से छिदा पड़ा था तरे भी वे संतुलन बनाये रखकर इच्छित दिनों तक जिये और सम्बन्धियों को महत्वपूर्ण परामर्श देते रहे। महाराणा प्रताप को क्या नहीं सहना पड़ा। पाण्डवों का प्रायः पूरा ही जीवन कैसी विपत्ति में गुजरा। भगवान राम और कृष्ण पर क्या-क्या बीती। ईसा और सुकरात को क्या मिला। शंकराचार्य को किस परिस्थितियों में काम करना पड़ा। नैपोलियन ने पग पग पर कितने खतरे उठाये। हरिश्चन्द्र ने क्या नहीं सहा।

मनुष्यता की गरिमा बढ़ाने वाले सदा से अपनी साहसिकता, धैर्य निष्ठा, और कर्तव्य परायणता का परिचय देते रहे हैं, ऐसा उनके लिए तभी संभव हुआ जब परिस्थितियों को महत्व न देते हुए उन्होंने सब कुछ खोकर भी अपने संतुलन को यथास्थान बनाये रखा।


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